छत्तीसगढ़ी कहानी - लतखोर
सबर दिन बरोबर अपन दूकान के बाहिर बइठे रौनिया तापत रहेवं। वोहँ मोर दूकान के आगू ले गुजरत रिहिसे। रेंगते-रेंगत मोला नवके नमस्कार करीस । मँहू ओतके नवके ओकर नमस्कार के जवाब लहुटाएवँ। वोहँ मोर नमस्कार ल लपेटके मोर कोति लपकिस। ओकर स्वागत म एक ठिन कुर्सी ल ढपेल देवँ -‘आ बइठ।’
वो हथेली ल आपस म रगड़के अपन आप ल रिचार्ज करत बइठत कहीस - ‘ये जाड़ तको न.... बड़ नौटंकीबाज हवय।’
’जाड़ तको ....नौटंकीबाज’ - सुनके बड़ अचंभो होइस - जाड़ से नौटंकी के का संबंध ? समझ तो नइ आइस, तभो अपन समझदारी ल बेसरम होए ले बचाए रखेवँ अउ ‘हूँ’ कहिके मुस्कुरा देवँ।
दू चार दिन से अनुभव करत रेहेवँ । वोहँ जब भी एति ले गुजरय, नवके नमस्कार जरूर करय। वोकर अइसन नमस्कार के प्रभाव से मोर अंतस म माननीय, सम्माननीय अउ महान होए के बादर उमड़े -घुमड़े लगे रिहिस। प्रतिस्पर्धा के ये जुग म मान, सम्मान अउ गौरव के फोकटइहा मिलना अतेक सुलभ अउ आसान नइ होवय। सम्मानित, चर्चित अउ गौरवान्वित होना जतना कठिन होथे, ओकर ले कहीं जादा कठिन वो स्थिति ल यथावत बनाए रखना होथे।
‘दू मिनट होए नइ पावय कि घाम चरचराए लगथे अउ थोरको तीरियाए ताहेन कंपकंपासी लगथे।’
नरियर तेल बरोबर लदबद ले जमे-माड़े मोर दिमाग ओकर गोठ के ताव ले पिघल गीस - ’अच्छा’ ! यानि जाड़ और घाम के बीच अइसन किसम ले अनैतिक, अवैधानिक और अनौपचारिक संबंध भी हो सकत हे।’
‘जड़काला में घाम तापे के अलगेच आनंद हे।’ वो मोला ‘खो’ करीस। ओकर ‘खो’ म कुछ न कुछ करना मोरो बर आवश्यक हो गीस।
‘समय बिताने के लिए करना है कुछ काम’ के तर्ज म महूँ एक ठिन ‘खो’ कर दिएवँ।
‘हाँ, वो तो हे।’
ओकर मोर परिचय बिलकुल नेवरिया रिहिसे, फेर ओकर गोठ-बात ले मोर अंतस म जबर, जुन्नेटहा अउ कुनकुन-कुनकुन गर्माहट के सुगबुगाहट होए लगे रिहिस।
ओकर बात म सादगी, रवानगी अउ ताजगी रिहिसे। कुछ देर बाद वो अपन रस्ता सरपट रेंग दीस अउ मैं अपन ठौर म फदफद-ले माढ़े रहीगेवँ माटी के लोंदा बरोबर।
दू चार दिन ओकर आना, जाना अउ गपियाना अइसने चलत रिहिस। बाते-बात म एक दिन वो अपन नाम दिनेश बताइस। अउ एहू बताइस कि मैं महेश के भाई हरवँ।
मोर मुँह ले उदुपहा शब्द उछाल मारीस - ’हाँ... वो तो मोर चड्डु-पड्डु संगी हरे।’
‘चड्डु-पड्डु संगी ?’-वो अकचकाइस।
मैं मुड़ी डोलावत कहेवँ - ‘लंगोटिया यार। फेर मैं आज पहिली पइत जाने हौं। महेश तको कभू नइ बताइस कि मोर कोनो छोटे भाई हवय।’
‘मोला अकारण घूमना-फिरना पसंद नइहे। मैं बिना मतलब काकरो संग गोठ- बात तको नइ करौं।’ वो चट-ले कहीस अउ फट-ले अपन मतलबी होए के झंडा गड़िया दीस ठाढ़।
मैं कहेवँ -‘अच्छा हे।’
‘दुनिया बड़ बेरहम अउ मतलबी हवय, काकरो ऊपर भरोसा करना माने अपने पाँव म कुल्हाड़ी मारे बरोबर हे।’ वो अपन ज्ञान बघारीस।
‘सही कहत हस’- मैं भोकवा भकुवाए बुध के हुसियारी मारत जम्मो मुरचाए हथियार ल ओकर आगू म कूढ़ो देवँ भकरस-ले।
उही दरम्यान एक दिन चड्डु-पड्डु संगवारी महेश दूकान आइस। हालचाल पूछीस, एति-ओति के लफर-झफर लमाइस, ताहेन सोज्झे अपन बात म आ गे -
‘मैं दू चार दिन से देखत हौं, एक झिन आदमी निचट खुर्री फाँद दे हावय। संझा-बिहनिया-मँझनिया, बेरा कुबेरा तोर तीरन बइठे गपियावत रहीथे।’
मैं सोचत कहेवँ - ‘कहूँ तैं दिनेश ल तो नइ काहत हस ?’
‘हाँ... हाँ, दिनेश के गोठ करत हौं।’
‘वो तो तोर भाई हरे न !’ वोकर बताए के पहिलीच पूछे के अंदाज म बताके मैं बाजी मारके अपन आप ल खुश कर लेवँ।
‘भाई हरे, फेर ओला तोर तीरन बइठत-उठत देखके मोला तोर चिंता सताए लगे हे। उही सेति मैं तोर तीरन आए हौं।’
‘मोर चिंता कि मोला लेके अपन भाई के चिंता ?’ मैं अपन संशक चिंता अउ मजाक दूनो ल मिंझार के माहौल ल हल्का करेवँ।
कहीस -‘देख, तैं ओला चिटको नइ जानस। जब वो पइसा-वइसा माँगही न त बिल्कुल झन देबे, चेतावत हौं तोला।’
‘अरे ! कोई पागल-वागल थोड़े हौं, जऊन वो माँगही अउ मैं दे देहूँ।’
‘जानत हौं, तैं न पागल हस, न बइलाबुद्धि, फेर ओकर बुद्धि के बइला से मैं भलीभाँति परिचित हौं। वो कब, कहाँ, कइसे सींग मारही, मार खवइया ल तको पता नइ चलय, अउ सामने वाला कोंघर के चारों खाना चित्त।’
‘भला मैं काबर दूँहू, अउ ओकर तीरन सींग हे न त हमू कमती मरखण्डा नइ हन।’ मैं अबूझ अपन हुसियारी झाड़ेवँ।
वोहँ तरस खावत कहीस -‘मैं सिरिफ समझावत हाववँ, आगू तैं जान, तोर काम जानय। फेर हाँ ! अतका दावा करत हौं कि जब वो पइसा माँगही, त तैं थोरको मना तको नइ कर पाबे।’
‘काबर .......वोहँ तोर भाई हरे, तेकर सेति ....?’ मैं अपन जीत के एलान करत बत्तीसी के अंजोर बगराएवँ।
‘नहीं, एकर सेति कि ओकर चालाकी के आगू म चतुराई तको चुतियापा कर बइठथे।’- वो गंभीर होके बोलीस।
मोला ओकर गंभीरता ऊपर हँसी आवत रिहिसे अउ वोहँ मोर सरलता, अज्ञानता अउ भोकवापन ऊपर तरस खावत रिहिसे। खैर, बात आइस, गइस। समय के धार म बोहागे। धीरे-धीरे दिनेश के आना जाना कमतिया गे। मोर बुद्धि तको वो बात ल बिसार दीस।
महीना भर बाद एक दिन दूकान म बइठे कुछ हिसाब-किताब, जोड़-घटाव करत रेहेवँ। अचानक दिनेश आइस अउ उही चीन्हे-जाने अंदाज म मुचमुचावत कहीस -‘लगथे अब्बड़ेहे व्यस्तता हावय ?’
‘नइ हे, वो जुन्नेटहा लेनदार मन के सूची ल टटोलत रेहेवँ ... तैं सुना, का हालचाल हे ? तोरे अब्बड़ दिन बाद आना होइस हे।’
‘हाँ...कामे कुछ अइसन रिहिसे कि एति आना कमती होगे रिहिसे अउ तैं तो जानते हावस कि मैं बिन मतलब काकरो संग गोठ-बात, मेल-मुलाकात नइ करवँ।’
‘अभीन एति बर कइसे ?’
‘वो..... मैं .......अपन इहाँ.... श्रीमती जी ल ....... अचानक चक्कर आगे, खड़ेच-खड़े गिरके बेहोश होगे भई।’ अतका काहत- काहत वोहँ गंभीर हो गे। मैं ओकर चेहरा ल पढ़े के कोशिश करेवँ। ओकर चेहरा म चिंता अउ व्याकुलता हँ लपलप-लपलप झलकत रिहिस। माथ म पसीना के बूँद मन चिकचिक-चिकचिक चिकचिकावत रिहिस।
‘अभी कइसे हवय ?’ मैं अपन अंतस के झिरिया म संवेदना ओगारत पूछेवँ।
‘अभी तक बेहोश हे। उही ल लेके आए रेहेवँ डाक्टर इहाँ।’ थोरके रूकके फेर बोलीस -’मैं नहाए के तियारी करत रेहेवँ कि ये जऊँहरहा अउ जोरदरहा घटना घट गे। जल्दबाजी म अपन पर्स ल तको घरे म भूल आएवँ।’ - अतका कहीके वो गुमसुम हो गे।
मैं गुनते रेहेवँ कि का कहवँ, कैसे करवँ ? अतके म गुमसुम समे ल हुद्दा मारके भगावत वो कहीस - ‘दवाई मन ल तो घर ले पइसा लानके थोरिक देर बाद तको बिसा सकत हौं फेर ....... अभीन डाक्टर के फीस.....?’
‘डाक्टर का काहत हे ?’
‘आजकल बिगर फीस के डॉक्टर नाड़ी तक ल तो नइ छूवय।’ वोहँ गंभीर अउ रोवाँसु होवत कहीस -‘जाँवर-जोड़ी के जिनगी के सवाल हे, अगर अभीन दू हजार रूपिया दे देते त बड़ा मेहरबानी होतीस।’
मैं कुछ कहीतेवँ, कुछ करतेवँ या नइ करतेवँ, पता नहीं, ओकर पहिली वोहँ ओतके तपाक ले आगू कहीस - ‘मैं बस अभीन्च घर ले लानके तोर पइसा ल लहुटा देहूँ, मोर विश्वास कर।’
‘जाँवर-जोड़ी के जिनगी के सवाल हे’ सबद के डोर म मोर मुँह बँधागे। मैं निस्तब्ध अउ निरूत्तर रही गेवँ। मोर ले रेहे नइ गीस। बिगर कुछ बोले ‘अइसन दुख के घड़ी म तको काकरो संग नइ देना का मानवता हरे’ सोचत गल्ला ले पाँच-पाँच सौ के चार ठिन नोट निकालेवँ अउ वोकर हाथ म थमा देवँ।
वोहँ पइसा ल खीसा म धरीस अउ -’मैं आवत-जावत तोर पइसा ल लहुटा देहूँ काहत सुटुर-सुटुर रेंगते बनीस।
ओकर बाद बहुत दिन तक नजर नइ आइस। एक दिन अचानक बाजार में आमना-सामना हो गे। देखते साथ कहीस -‘अरे ! तोर पइसा लहुटाना रिहिसे, देख, अभीन तो मोर तीरन एको पइसा नइ हे, बस अइसने घूमत-फिरत एति आ गे रेहेवँ। खैर, सँझा कुन दूकान आवत हौं।’
मैं कहेवँ -‘वो सब ल छोड़, अभीन ये बता कि श्रीमती जी के तबियत कइसे हावय ?’
‘श्रीमती..........?’ - वो अचानक झपाए असन सकपकावत-झेंपत पूछीस फेर मुड़ी खुजियावत कहीस-‘ठीक हे, ठीक हे, दवा के भरोसा चलत हे, जिनगी।’ अउ ‘मैं थोरिक जल्दी में हौं’ -कहत खिसक मारीस।
एक दिन एक दू झिन ग्राहक मन के बीच व्यस्त रहेवँ। अचानक मोर नजर उठीस। ओतके बेरा दिनेश उहाँ ले गुजरत रिहिसे। दूनों के नजर टकरा गे। वो तुरते नमस्ते ठोंकत मुड़गे अउ मोर कोति कदम बढ़ा दीस।
‘आ, दिनेश ! कइसे हस ?’ मैं औपचारिकता निभाएवँ।
मोर सवाल के जवाब नइ दीस, कहे लगीस -‘अरे ! निर्मल जी !! तोर पइसा लहुटाना रिहिसे, मोला सुरता हे, फेर का करौं, अभीन मैं रखे नइ पाए हौं, फेर तैं चिटको चिन्ता झन कर, मैं तोर पइसा ल लउहे लहुटा देहौं।’
सुनके मोला बड़ गुस्सा आइस, फेर पीके रहिगेवँ।
अइसनेहे काहत-सुनत छह महीना बीत गे। मैंह वो पइसा के हिसाब ल डूबत खाता म बोर के ‘बीती ताहि बिसार दे’ के तर्ज म भूला गेवँ। वो जब भी मिलय, मोर कुछु बोले -पूछे के पहिली इहीच काहय -‘अरे ! निर्मल जी !! तोर पइसा लहुटाना रिहिसे, मोला सुरता हे, फेर का करौं, अभीन मैं रखे नइ पाए हौं, तैं चिटको चिन्ता झन कर, तोर पइसा ल लउहे लहुटा देहौं।’
जे पइत मिलय, ते पइत अइसेनेहेच काहय। जे पइत वोकर संग भेंट होवय, ते पइत बड़ गुस्सा आवय, फेर पीके रही जाववँ।
एक दिन रायपुर ले लहुटत रेहेवँ। बस स्टैण्ड में बस आके रूकीस। मैं बस के आगू कोति बइठे रेहेवँ। आगू मुँहाटी ले उतरते रेहेवँ कि अचानक मोर नजर बस के पीछू दरवाजा कोति पर ग़ीस। पीछू दुवार ले दिनेश उतरत रिहिसे। मोला देखते साथ चिल्लाइस - ‘नमस्ते’। मैं ओकर नमस्कार के जवाब मुड़ी हलाके दिएवँ अउ हाथ ल हलाके इशारे म पूछेवँ - ‘कहाँ ?’
वोह दऊँड़त मोर तीर आगे अउ हँफरत-हड़बड़ावत कहीस -‘अरे ! निर्मल जी !! तोर पइसा लहुटाना रिहिसे, मोला सुरता हे, फेर का करौं, अभीन मैं रखे नइ हौं, फेर तैं चिटको चिन्ता झन कर, मैं लउहे लहुटा देहौं।’
ओकर गोठ हँ मोर जुन्ना जखम ल भकरस-ले कुरेद-कोड़ के रख दीस। हालाँकि जी कचोटत रिहिसे, तभो ले मैं छाती म पखरा लादके कहेवँ - ‘कते पइसा के बात करत हस यार ? जिहाँ तक मोला सुरता हे, मैंह तोला कभू कोनो पइसा-वइसा नइ दिए हौं भई।’
मोर गोठ ल सुनके वोला खुशी मिंझरा अचरज होइस। पझरे खुशी ल भीतरे-भीतर गटक के वो फट्ट-ले कहीस -‘अरे ! अइसे कइसे गोठियाथस जी, मोला दू हजार रूपिया दिए रेहेस न।’
‘का बात करत हस, तैं तो तैं मैं कोन्होच ल कभू उधार नइ देववँ।’ - मैं गम ल घुटकत चाइना मॉडल के मुस्कान बिखेरत कहेवँ।
अब चौंके के बारी ओकर रिहिस।
‘अरे ! सुरता कर, दिए रेहेस। मैं तोर पइसा ल लउहे लहुटा देहौं। लउहे का, भलकुन आजेच अउ अभीन्च ..... हाँ अभीन्च लेके आवत हौं, अभी दूकाने जावत हस न ?’ - वो जीव म जीव पारत कहीस।
’बिल्कुल नइ लेववँ मैं ........ जब दिएच नइ हौं त का बात के लेहूँ।‘ महूँ ओतके लउहा अउ सरपट जवाब दिएवँ।
मोर जवाब ले पता नहीं ओला का होइस। एकदमेच तीरन म आगे । आके लाचारी अउ शर्मींदगी ओढ़त कहीस -‘ काबर लात मारे असन गोठियाथस निर्मल जी ! अइसे लागत हे जना-मना सहींच म मोला लतिया डारेस।’
मैं अपन बात म अडिग रेहेवँ - ’बिल्कुल नइ लेववँ मैं ........ बिना कोन्हो मतलब के मैं तोर ले पइसा काबर लेहूँ भला ?’
‘नहीं.... मैं अभीन्च लेके आवत हौं बस, अभी तैं दूकाने जावत हस न .... अउ उहेंचेच रहीबे न ?’ अइसे काहत लकर -धकर आगू कोति रेंग दीस।
मैं ओकर दिए आसरा, भरोसा अउ दिलासा के बताशा ल चाँटत-चुचरत दूकान पहुँच गेवँ। दिन भर दूकान में रेहेवँ। मोर सुर अउ नजर रही-रहीके रस्ता म घिलर जावय। अवइया-जवइया मन के चेहरा-मुँहरन म अभर-झपा जावय। मुँधियार के होवत ले ओकर रस्ता देखत रहीगेवँ। उहीच दिन का, वोकर बाद कभू वो बइमान नजर नइ आइस, फेर नइ आइस।
धर्मेन्द्र निर्मल
ग्राम कुरूद, पोस्ट जामुल सीमेंट वर्क्स
तहसील व जिला दुर्ग छत्तीसगढ़
पिन 490024
मोबाइल नं. 9406096346
No comments:
Post a Comment