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*अगम*
*(छत्तीसगढ़ी लघुकथा)*
रुख ले झरे सुक्खा पींयर पान हर कहिस- मैं अब खईता के हो गंय। मैं रुख म रथें, हरियर रथें तब मंय फेर दुनिया बर फर - फूल सिरझाय सकथें।फेर अब तो मंय ख़ईता भर अंव...
"नहीं पान!तँय ख़ईता नई होय अस।तोला मंय बहार के ले जाहाँ अउ बेटा बहु नाती बर रसोई उतारहाँ।वोमन बर भानस चुरोहां।बहु बेटा बुता गंय हें अउ नाती पढ़े!" पान के गोठ ल सुनके, माड़ी- कोहनी करत थुलथुल डोकरी कहिस।
"अउ ये अइसन नई करथिस तब मंय तोला अपन अँकवार म भर के,अपन म समो लेथें अउ तँय दूसर नावा पान बर खातु- माटी बन जाय रथे।तोर नावा रूप तियार हो जातिस।पान ! इहाँ कुछु भी खइता नई ये,न कोई कन न कोई क्षन...
येला सुनिस तब पींयर सुक्खा पान के तन न सही फेर मन हरियर हो गय रहिस।
*रामनाथ साहू*
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