Friday 17 June 2022

कबीरा खड़े बजार -धर्मेंद्र निर्मल

 कबीरा खड़े बजार -धर्मेंद्र निर्मल


दाई अबड़ समझाइस - पढ़ बेटा ! पढ़ !! नई पढ़ेन - हटा सावन के घटा। ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय। जादा पढ़िन, ते महापंडित होगे- एको अहम दूजो नास्ति। ज्ञानी मारे ज्ञान से अंग -अंग भींग जाय, अज्ञानी मारे ठेंगा से मुडी़ कान फूट जाय। मीठ-मीठ बोलके जहर पीयावत हे। लड़ावत हे, सड़ावत हे, अपन झण्डा गड़ावत हे। प्रेम गीत गाके, मन भर मया के रसा चुहकत हे। मुख म राम बगल म छुरी, भगवा ओढ़ जपै -भूरी ! भूरी !! धरम -करम, नीत- नियाव देश -समाज ल उज्जर भविष्य के रद्दा देखइया हरे। आज वो पैडगरी रद्दा सोला सिंगार करके चमचमावत सड़क बन गेे हे। धरती म दू पाँव के रेंगइया मनखे चौपाया, छैपाया होवत अगास म उड़े लगे हे। प्रेम ल हरेक भासा म बोले लगे हे - आई लव यू ! काहे ? त बोले- लव इज गॉड, गुजराती म बोले तनू प्रेम करूँ छूँ, छत्तीसगढ़ी म बोले -नोनी, तोर मया म मरगेंव वो। मया म मरे, के रूप म मरे ? विज्ञान म ‘प्लेटोनिक लव’ माने निस्वार्थ प्रेम होथे, जेमा कोनो किसम के स्वार्थ, छल, कपट झन होवय, अपन सरी सुख, चाह, लालसा या इच्छा प्रेमी के हित अउ सुख बर होवय। संसार म राधा-किसन के प्रेम ‘प्लेटोनिक लव’ के सबले सुग्घर उदाहरन हरे। जा घट प्रेम न संचरै, ता घट जान मसान।


टूरा ल अबड़ मया करथे, काबर कि वोह बंस बढ़ाही। टूरी पर घर जाही। कबीरा कहे - मया महाठगिनी हम जानी। प्रेमी बगिया-जंगिया जाथे। मारे गुस्सा के फुसियइन-फुसियइन गोठियाथे। प्रेम के भाखा दू आखर तको नइ रहय।

चुकचुकहा ह चुकचुक ले पहिर-ओढ़के मंच म चढ़गे। छाती म बड़े जनिक तिरंगा के बिल्ला ओरमाए हे। मानथे- जउन दीखथे तउन बिकथे। वो बिके कवि हरे, बुके भर म नई भूँकय, पइसा म गाथे अउ पुरस्कार ल बिसाथे। माखी गुड़ म गड़ि रहय। जोरदरहा देष भक्ति के गीत गाथे। मंच ले उतरके गोठियाथे-भ्रस्ट कोन नई हे यार ! असल म भ्रस्टाचार के बिरोध उही करथे, जउन ल भ्रस्ट होय के मउका नई मिलय। जोक्कर पुरूस्कार पाथे, कलाकार कल्हर -कल्हर मर जाथे। हर मनखे अपन -अपन भाग के चारा चरे म लगे हे। कोनो अकेल्ला पगुरावत हे कोनो मुनगा के डारा म बइठे चिरईया कस बाँटके धड़कत हे। ऐस करौ बेटा ! च्चेस। साँई इतना दीजिए, कूदि-कूदि च्चेस मिलाय। फेर मस्ती म गाए लगथे- कबीरा खड़े बजार म सबले माँगै चंदा, भट्ठी ले निकलते संझा, उछरै गंदा-गंदा। माने त देवता नइ माने पखरा।


गरीब, मजबूर अउ असहाय मनखे डॉक्टर ल भगवान के अवतार मानथेे। बीमार मनखे आईसीयू म कल्हरत-मरत परे रहि जथे, रोगहा डॉक्टर परिवार के षीषी म सीरींज घुसेर धन तीरे म मस्त रहिथे। दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय। बिना जीव की साँस सो, लोह भस्म हो जाय। फेर डॉक्टर के खाल मोठ होथे अउ सफेद कोट के भीतर पोठ  खोट होथे। काल के श्वेत-ष्याम दूनो रूप हे। कभू सादा कोट म आथे त कभू करिया।


कुछ लोगन अतेक अच्छा होथे कि दुनिया भर म अपन बड़ई करत घूमथे । अपन छोड़ ओला जग म दूसर कोनो बने दिखबे -लगबे नइ करय - ये बने नइ हे, वो बने नइहे। बूरा जो देखन मैं चला बूरा न मिलया कोय। लोगन ल दूसर के घर ल झाँके ले फुरसत नइहे त अपन मन ल कब अउ काबर झाँकही। 

स्वार्थी, लालची अउ सुविधाभोगी मनखे ल हित -अहित, नियाव - अन्याव, धरम -करम अउ नीत-अनीत नई चिन्हावय। आँखी के अंधियाए भर ले मनखे अंधरा नई होवय। इही सोचथे जतका होवय ततका जोर लेववँ -कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लियो बनाय, ता पर मुल्ला बाँग दे, बहरो हुआ खुदाय। नवरात म दूर्गा पूजा के धूम रहिथे। बनचुकरू बन-ठन के जाथे। कबीरा पूछ परथे - का रे बाँड़ू, कहाँ ? हम तो देवी दर्षन बर जाथन। बाँड़ू बँड़वा कुकुर कस भूँके लगथे- अधर्मी हे स्साले। साधो देखो जग बौराना, साँची कहौ तो मारण धावे झूठे जग पतियाना। हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना। आपस में दोउ लड़ मरतु है मरम कोई नहीं जाना। 


सुतके उठे नई रहिबे चिपराहामन रातेकन के मेसेज पेल डारे रहिथे -प्रेम वो धागा हरे जेमे संसार ल बाँधे के ताकत होथे। कबीरा पूछ परथे - तैं अपन दाई -ददा संग बइठ के बने प्रेम से कब गोठियाए रहे ? बने सील -लोढ़ा के दू कुटका करके भाई बाँटा कर लेस। अपन सगा सोदर के संग छोड़ बाहिरी ल घर म घुसेरथस। बइरी बर ऊँच पीढ़ा के आडम्बर ल झन कर। अपन चीपरा ल पहिली धो तब दूसर के आँखी ल धोबे। गुरूजी के गाल फुग्गा कस फूल जथे। सुग्गा कस टाँय-टाँय टर्राए लगथे - ए कोन हरे यार ? बहुत बोलथे, ग्रुप ले निकालौ एला। जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान। अउ हम वासी उस देष के, जहाँ जाति -पांति कुल नाहि। 


माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर। रावन बारे के खेल हर बछर होथे। ईर्श्या, लालच, स्वार्थ, खोट अउ बुराई रूपी मन के रावन ल कभू समझाए भी हस कि अइसे नई होना चाही ? मंदिर भीतर पूजा करे ल बइठे, धियान बाहिर म हे- नवा पनही ये, कोनो चोरा झन लेवय। कबीरा कथे त चटरहा हो जथे। मनखे भया महाचोखू प्रानी, प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। 

चारो मुड़ा चारी-चुगली, झूठ, फरेब, धोखाधड़ी, अंधविश्वास, आडम्बर के बजबजावत-बस्सावत नाली बोहावत हे। मनखे सुधरे के नाम नई लेवत हे। कथे ये सब ल सुधारे बर भगतसिंह चाही, फेर मोर घर नहीं, परोसी के घर बने हे। 


राजाजी टोपा बाँधे, टोपी सँवारत, टोपी पहिराए म लगे हे। अपन-अपन ल टमर-टमर के रेवड़ी बाँटत हे। प्रजा मेहनत, मँहगई अउ मजबूरी म धुनत-गुनत घुनावत हे। मीन सदा जल में रहे कतको धो बस्साय।

धरम करम ह जिनगी ल सुग्घर अउ सुफल बनाए के साधन हरे। एमे आडम्बर के का काम ? तभे कबीरा कथे - पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार। एक पइत ललकारे ले जानवर तको सुधर जथे, मनखे काबर नई सुधरय ? मन म चिंता रेहे ले नींद नई आवय। कबीरा ल चिंता हे दुनियाँ के -सर्वे भवन्तु सुखिनः। भगवान तको भाव के भूखा होथे। दुनिया अपन मौज म मगन हे। स्वार्थी मन स्वारथ म मगन हे तेकर पाए के सुखी हे। कबीरा ल फिकर म नींद नइ आवय- सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर हे जागै और रोवै।


धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

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