Tuesday 14 June 2022

व्यंग्य-हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य का अनुवाद (छत्तीसगढ़ी म)


 

व्यंग्य-हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य का अनुवाद (छत्तीसगढ़ी म)

   अनुवादक - दुर्गा प्रसाद पारकर


एकलव्य ह गुरू ला अँगूठा देख इस

{सन् 4163 ईस्वी शोधकर्ताओं को कुछ पुरानी पोथियों की पाण्डुलिपियाँ हाल ही में मिली है, जिसमें बीसवीं सदी के अन्त में लिखित एक पुराण भी है। इस पुराण को सम्पादित करके हाल ही में प्रकाषित किया गया है। सम्पादक ने इस पुराण की भूमिका में लिखा है- “..... यह पुराण बीसवी सदी के अन्तिम वर्षो में लिखा गया मालूम होता है। इसकी केवल एक हस्तलिखित प्रति ही प्राप्त हुई है। यद्यपि बीसवी, सदी में मुद्रण-विद्या बहुत ही पिछड़ी हुई थी और ‘रोटरी’ नाम की छपाई की एक मामूली मषीन को ही लोग इतनी बड़ी उपलब्धि मानते थे कि उसके प्रचार के लिए आधी दुनिया में ‘रोटरी क्लब’ खुले हए थे फिर भी उस युग में पुस्तकें थोड़ी-बहुत छप जाती थी। यह महत्वपूर्ण पुराण तब क्यों नहीं छप सका, इसके सामाजिक, राजनीतिक कारणों की खोज हो रही है। इस पुराण से उस युग के सामाजिक, आर्थिक, नौतिक और सांस्कृतिक जीवन पर विषद प्रकाष पड़ता है।” उक्त पुराण में से एक कथा यहाँ उद्घृत की जा रही है।

- लेखक}

एक समय के बात आय।

एक ठन विष्वविद्यालय म राजनीति विभाग के एक झिन प्रतिष्ठित अध्यापक रिहिसे, जेकर नाम द्रोणाचार्य रिहिसे। पद क्रम के मुताबिक वोह ‘रीडर’ कहावत रिहिसे। ‘रीडर’ (पढने वाला) वो अध्यापक ला काहत रिहिन हे, जेला कक्षा म पढ़ाय बर नइ आवत रिहिसे अउ वोह पाठ्य-पुस्तक नइ तो कुंजी ला कक्षा म पढ़ के काम चला लेवत रिहिसे।







आचार्य द्रोणाचार्य के दू झिन चेला रिहिसे। एक झन के नाम अर्जुनदास अउ दूसर के एकलव्य दास। अर्जुनदास एक झिन धनवान बाप के बेटा रिहिसे, जेकर समाज म बड रूआब रिहिसे अउ राजदरबार म घलो ओकर मान होवत रिहिसे। आचार्य रोज अर्जुनदास के घर जावत रिहिसे अउ अर्जुनदास घलो ओकर घर आवत रिहिसे। उँकर सम्बन्ध अतेक गढ़ा रिहिसे कहूँ कोना मान ले आँखी मूँद के आचार्य प्रवर के कल्पना करतिस, त आचार्य के शरीर कल्पना म आवत-आवत ओमा पूछी निकल आतिस अउ पूछी के छोर म अर्जुनदास के चेहरा बन जतिस। 

    एकलव्य गरीब आदमी के लइका रिहिस, इही पाय के ओला आचार्य के दर्षन कम होवत रिहिसे। फेर गुरू के प्रति ओकर भक्ति रिहिस। वोह अपन कुरिया म द्रोणाचार्य के एक ठन चित्र टांग के रखे रिहिसे अउ ओकर लिखे एक ठन कंुजी ला मुडसरिया राख के सुतत रिहिसे। 

    दूनो चेला एम. ए. के परीक्षा के तैयारी करत रिहिन हे (एम. ए. एक अइसे परीक्षा रिहिसे जेला पढ़े के बाद तीन साल के बेकारी के कोर्स पढ़ना परत रिहिसे। -सं.)

    अर्जुन जानव रिहिसे विद्या पढ़े ले नही, बल्कि गुरू-कृपा ले मिलथे। वोह सरलग गुरू के सेवा म लगे रहै। वोह  आचार्य के घर म किराना कपड़ा अउ साग-भाजी पहुँचावत रहै। तिहार बार म आचार्य के पाँचो झिन लइका मन ला बाजार लेगै अउ उहें उमन ला मिठाई, कपड़ा, खिलौना बिसा के देतिस। वोहा आचार्य ला सिनेमा, नाटक देखातिस अउ दूसर अध्यापक मन के गोसइन के कलंक-कथा गढ़के, ओला सुनाके ओकर मनोरंजन करै। वोह आचार्य के कुषल-क्षेम उपर बराबर ध्यान देतिस। रतिहा ओकर आघू म दूसर आचार्य मन के चारी करतिस, जेकर ले ओकर आत्मा के उत्थान होवै।

    वेाति एकलव्य गुरू-सवो ला बिसर के रात-दिन पढ़ई-लिखई म लगे रहै। एक दिन आचार्य अउ अर्जुन म अइसन किसम के गोठ-बात होइस।



द्धितीय श्रेणी के श्राप। फेर कोनो कारण ले श्राप अउ वरदान बदलगे। गुरू बहुत नाराज होइस अउ वोह मोला रिसर्च नइ करन दीस। अब वोह नइहे। ओकर विरोधी सिंह गुट ह ओला अपन दल सहित निकलवा दे रिहिस अब ओकर जघा डॉक्टर सक्सेना आगे हे। मोर वो दबे शउँख ह जाग उठिस। अउ मोला कका के गोठ ह जमगे।

    मैं बिहान दिन डॉक्टर सक्सेना के बंगला म पहँचेंव। वोह अपन अध्ययन-कक्ष म तीन-चार झिन शोध-छात्र मन संग बइठे रिहिसे। मैंह आचार्य ला नमस्कार करेव अउ जइसने अपन परिचय देवइया रेहंेव ओसने वो छात्र मन उठिन अउ मोला पकड़ के जबरन आचार्य के चरण उपर पटक दीन। एक झिन ह ओकर चरण के धूर्रा ला मोर माथ म लगा दीस। मैंह अकबका के केहेंव, “अरे, काय करत हव ?”

    एक झिन छात्र ह समझइस, “हम्मन तोला नियम सिखावत हन। एक कुरिया म आचार्यजी ह सिरिफ छात्र मन ला आवन देथे। बाजू के कुरिया म वोह दूसर लोगन मन ले मिलथे-जुलथे जइसे विष्वविद्यालय के अधिकारी मन ले, कार्यकारिणी के सदस्य मन ले, नेता मन ले। ए कुरिया म जउन भी आथे ओला आचार्यजी के साष्टंाग दण्डवत पाँव परे बर परथे ताहन ओकर चरण के धूर्रा ला माथ म लगाए बर परथे। तैंह देखत नइ हस भक्त मन के खातिर चरणरज हमेषा तैयार रखथे।” मैंह ह केहेंव, “त वो कुरिया म का बूता होथे ? उहाँ के का नियम हे ?”

    छात्र किहिस, “वो कुरिया के विषय म गुने भर ले पाप लगथे। वो कुरिया म गुरूदेव अपन हाथ धोके जाथे।”

    मैंह आचार्य के गन्दा पाँव अउ साफ-सुथरा हाथ डाहर देखेंव ओकर बाद वो छवि ह मोर करेजा म सबर दिन बर बसगे।

    मोला अब बइठे बर अनुमति मिलगे। मैंह केहेंव, “गुरूदेव, मैं रिसर्च करना चाहत हवं।”

    वोह पूछिस, “काबर ?”

    मैंह प्रभावित करे के इरादा ले केहेंव, “मोर अन्तर ह”


“आचार्यवर, मैं आपके घर म किराना, कपड़ा, सब्जी आदि पहुँचाथौं के नही ?”

“हव बेटा, पहँुचाथस।”

“आचार्य ला सिनेमा-नाटक कोन देखाथे ? लड़का मन ला मिठाई, खिलौना अउ कपड़ा-लत्था कोन बिसा के देथे ?”

“तिंही ह, बेटा। तिंही ह एक सबो बूता ला करथस।”

“का कोनो अउ दूसर चेला हे, जउन अपाके मुहूँ म आपके बड़ई मेार ले जादा करके आपके मन ला खुष करत होही ?”

“नही, कोनो नही।”

“का कोनो अइसन अध्यापक बाँचे हे, जेकर चारी नइ करके अपाके दिल ला दुखाय हवं ?”

“नही, कोनो नइ बाँचे हे, बेटा।”

“का येह सच नोहे के आपके रीडर बने म मोर पिता जी के बड़ हाथ हे ?”

“येह बिलकुल सच आय।”

“येती विभागध्यक्ष बने बर आप काकर ले सहयोग लेहू ?”

“निःसन्देह तो पिता ले।”

“का एकलय्य ह आपके सेवा करे हवै ?”

“थोरको नही। ओला तो गुरू के कोनो सुध नइ हे। वोह तो बिना जीव क ग्रंथ मन म बूड़े रहिथे।”

“अच्छा, ए बताव गुरूदेव, के आपके सबले मयारूक षिष्य कोन आय?”

“तेंह बेटा! तेर-सरीख मयारूक षिष्य न कभू होय हे अउ न होही।”

अचानक अर्जुन हाथ जोरके खड़ा हो गे अउ किहिस, “त गुरूदेव, मोला वरदान देवव के मैं मीहिच्च ह फर्स्ट क्लास फर्स्ट आववँ अउ छात्रवृति झोंकके विदेष जावनँ।”





येला सुनके आचार्य ह थोकिन सोच म परगै, ताहन किहिस, “ए तो महूँ चाहत हवँ, फेर एकलव्य येमा बाधक बनही। वोह सब ले हुषियार हे अउ मेहनती घलो।”

    अर्जुनदास ह किहिस, “येला मैं कुछू नइ जानवँ। मैं तो अतना जानथवँ के कहूँ मैं प्रथम नइ आयेंव, त गुरू के महिमा भंग हो जही, अवइया बखत म कोनो षिष्य गुरू के सेवा नइ करही अउ ए नीच परम्परा ला शुरू करे के कलंक आप ला लगही।”

    आचार्य फेर सोच म परगै। थोर-थोर ओकर चेहरा उपर बेेफिक्री के मजबूती आ गै। अर्जुन ओतेक बेर गुरू के तेजस्वी चेहरा ला देख के चकित हो गै। आचार्य के जीवन-भर के पुण्य झलक बनके चेहरा उपर प्रकट हो-गे-हे।

    आचार्य ह बुलंद आवाज म किहिस, “तोर मनोकामना पूरा होही।”

बिहान दिन आचार्य ह एकलव्य ला घर बलइस। ओला पूछिस, “बेटा, तैंह अपन कुरिया म मोर चित्र काबर टाँग के रखे हस ?” 

एकलव्य ह किहिस, “आप मोर गुरू अव।”

“अउ मोर लिखे कुंजी ला मुड़सरिया बनाके काबर सुतथस ?”

“एकर सेती के दिन म मिले येती-वोती बगरे ज्ञान ह रात म परीक्षा के प्रष्न के उत्तर म सकलाके बंधा जाय।”

आचार्य ह ध्यान से देखिस। ताहन किहिस, “यदि तैं मोर षिष्य अस, ता मोला गुरू दक्षिणा दे।”









    एकलव्य ह जवाब दीस, “मैंह का दे सकथवँ, गुरूवर! न मोर किराना के दुकान हे न कपड़ा के। मोर पिता ले घलो ईमान बेचत नइ बनिस, तभे तो वोह गरीब हे।”

    आचार्य ह किहिस, “मैंह वो चीज ला माँगथौ, जउन तोर करा हे। तैह मोला अपन जेउनी हाथ के अँगूठा काट के दे। उठा वो सुपारी काँटे के सरौता अउ काँट दे अँगूठा।”

    एकलव्य कलेचूप रिहिस। वोह जानो-मानो एकर बर तैयार रिहिसे। वो किहिस, “गुरूवर, अँगूठा ला तौ मैंह खुषी-खुषी काँट के दे दवँ, फेर एहा अपके का काम आही ?”

    आचार्य ह किहिस, “वोइसे मैंह जानथौं। मोला एक महान परम्परा ला निभाना हे। अर्जुन के भक्ति ले मैं खुष हवँ। मैंह ओला वरदान दे हवँ के तिहीं ह प्रथम आबे। फेर वोह तब तक प्रथम नइ आ सकै, जब तक तैंह लिखे म समर्थ हस। तैंह लिख झन सकस अउ मोर वचन पूरा हो, एकर सेती मोला तोर जेउनी अँगूठा चाही।”

    एकलव्य हाँसिस। किहिस, “मगर जेउनी अँगूठा काँटे भर ले घलो आपक उद्देष्य पूरा नइ हो सकै। मैं तो डेरी हाथ ले घलो ओतने कुषलता ले लिख लेथवँ। जब मैंह होष सम्हालेंव अउ अपन नांव उपर देंव, तभे मैं समझ गेंव के कोनो गुरू कभू मोर अँगूठा मांगही। मैं उही समे ले दूनो हाथ ले लिखे के अभ्यास करत हवँ। दूनो अँगूठा के कटाय ले आपके उद्देष्य पूरा हो सकथे। फेर षिष्य के दूनो अँगूठा कटवाए के परम्परा नइ हे। खैर, मोर करा दूसरा रद्दा घलो हवै।”

    उही संझा कन आचार्य ह अर्जुनदास ला किहिस, “ओकर अँगूठा ला मैं नइ ले सकेंव। फेर मोर करा एक ठन रामबाण दाँव घलो हवै, जेकर ले वोह नइ बांच सकै। तोर एक पेपर ला जाँचे बर मोला मिलइया हे अउ दूसर पेपर मोर परममित्र देवदत्त शर्मा ला। एक दूनो म तोला 100 म 99 नम्बर मिल जही ताहन तैह एकलव्य ले अगुवा जबे। ओकर दूनो अँगूठा ह कटा जही-ओकर तेज बुद्धि अउ ओकर पढ़ई-खिई ह धरे के धरे रही जही।”



    अर्जुन बेफिकर हो गे। ओला गुरू के क्षमता उपर भरोसा रिहिस। ओह विभाग म अतना प्रभावषाली रिहिस के ओकर मरजी के खिलाफ पत्ता तक नइ डोलै।

    पेपर हो गे। अर्जुन दास अउ एकलव्य दूनो झिन मति अनुसार सवाल के जवाब दीन एकलव्य के मन म शक रिहिस, फेर अर्जुनदास एकदम निष्चिंत। ओला गुरू कृपा मिले रिहिसे।

    आखरी पेपर देवा के संझा कन अर्जुन आचार्य करा अइस। आचार्य मुहूँ ओथराए बइठे रिहिस।

    अर्जुन के उछाह ह ठण्डा पर गै। वोह आचार्य के मुहूँ डाहर देखते रहिगे।

आचार्य ह ठण्डा साँस तीर के किहिस, “मैं पापी हवँ। मैं अपन वचन पूरा नइ कर पाहूँ। भविष्य म कोनो षिष्य गुरू के सेवा नइ करही अउ अवइया गुरू मन के पीढ़ी मन मोला कोसही।”

    अर्जुन ह पूछिस, “फरे होइस का, गुरूदेव ?”

    आचार्य किहिस, “धोखा होइस। पेपर जाँचे बर न मोला मिलिस, न देवदत्त ला। उपकुलपति ह अपन हाथ ले कोनो अनजान मनखे मन ला पेपर ला दे दीस।”

    अर्जुन ह किहिस, “फेर अइसे कइसे होगे ? पेपर काबर करा जाना हे, येला तो आपे तय करे रेहेव ?”

    आचार्य किहिस, “फेर एकलव्य ह मोर रिपोर्ट कर दे रिहिसे।” गुरू-चेला दूनो मूड़ी गड़ियाय बहुत देर तक बइठे रिहिन। अर्जुन ह किहिस, “गुरूदेव, प्राचीन काल म घलो एक झिन एकलव्य होगे हे न ?” आचार्य किहिस, “हव, फेर ओमा अउ एमा बड़ फरक हवै। ओह बड़ पुण्य-युग रिहिस, येह पाप-युग आय। वो एकलव्य ह बिना तर्क के अँगूठा काट के गुरू ला दे दे रिहिसे, ए एकलव्य ह गुरू ला अँगूठा देखा दीस।” 






गँाधीजी के शाल

चार दिन हो गे हवै, फेर शाल के आरो नइ लगे हे। सेवकजी ह रेलवे स्टेषन म पूछताछ करिस, डब्बा म संग बइठे परिचित यात्री ले पूछिस फेर कोनो सुराग नइ मिलिस। कलेचूप जतना पता लगाना रिहिस, लगा लीस। पुलिस म रिपोर्ट लिखवाए बर अउ अखबार म विज्ञप्ति छपवाए बर मन म बात उठे रिहिस, फेर सेवकजी ह सोचिस के वोह गाँधीजी के दे पवित्र शाल रिहिस, ओला पुलिस अउ अखबारी मामला म फंसाए ले ओकर पवित्रता खतम हो जही। कोनो कूचीमन के गुच्छा या फेर सूटकेस तो रिहिस नही। पूज्य गाँधीजी के शाल रिहिस।

    सेवकजी हर दिन कस मुहाटी के बीच म कुरसी लगाके बइठ रिहिस। गोदी म मोड़ाए अखबार ह माड़े रिहिस। घेरी-बेरी चष्मा निकाले, धोती म पोंछ के अउ लगा ले, फेर पढ़े कुछू नही। गुनत रिहिसे, गुनत-गुनत आह भरत रिहिसे अउ आह भरके कहूँ शुन्य ला देखत रिहिसे। सड़क ले कतनो चीन्ह-पहिचान मन चल दीन। सेवकजी ह कोनो ला नइ बलइस। दूसर दिन होतिस, त वोह चीन्ह-पहिचान ला देख के उही मेर ले बइठे-बइठे ‘जय हिन्द’ कहिके रोकै। भुच-भुच करत ओकर करा जातिस, ओकर हाथ ला धरके अपनापन देखावत कहितिस-‘अइसे नइ हो सकै। आप बिना चाय पिये नइ जा सकव।’ पकड़के भीतरी म ले आतिस, चाय मंगवा तिस, अलमाीर ले एक ठन फाइल निकालतिस, जउन म अखबार के कतरन लगे रिहिस, जेमा कोनो न कोनो सन्दर्भ म ओकर नावं छपे रिहिसे। एमा बहू कतरन घलो रिहिस, जेमा ओकर ननपन म गंवाए के बाद पिता ह खोजे खातिर विज्ञप्ति छपवाए रिहिस। एक-एक करके सबो कतरन ला बतावत-बतावत बीच-बीच म अपन राष्ट्र अउ समाज सेवा के बारे म गोेठियावय। वोह बतावै के कोन सन् म कते नेता संग वोह कहाँ जेल म रिहिस अउ वोह इँकरमन करा कब का गोठियाए रिहिसे ? अइसे लागै जानो-मानो ओकर दिमाग म घलो फाइल खुले हवै, जेमा ओरी-पारी सबो जानकारी नत्थी हवै। परिचित उठे के उदिम करतिस, 



त सेवकजी ह विनती करत ओकर हाथ ला पकड़ के कहितिस-‘बस’ एक मिनट अऊ। मैं अपन जीवन के सबले कीमती, सबले पवित्र चीत बतावत हवं। वोह आलमारी ले घिरिया के रखे हल्का आसमानी रंग के शाल ला निकालतिस अउ आरती के थारी कस आघु म मड़ा के; भाव-विभोर होके कहितिस-‘ए शाल ला मोला पूज्य गाँधी जी ह दे रिहिसे। मोर बिहाव म वोह खुदे आषीर्वाद दे बर आय रिहिसे। हमर दूनो झिन के मुड़ी म हाथ मड़ाके किहिस-तैंह मोर बेटा नोहस, येह मोर बेटी आय।’ खलखला के हाँस डरिस बापू ह, हाँसत-हाँसत ए शाल ला हम दूनो झिन ला ओढ़ा दिस। आज वोह नइहे......’ वोह आँखी ला मूँद लेतिस ताहन ओकर सुध म बूड़ जतिस। परिचित कहूं समझदार होतिस, त ए स्थिति के फायदा उचाके ‘जयहिन्द’ केहे बिना कलेचूप चल देतिस। कोनो पहिचान वाले वो सड़क ले वो कतरन मन ला अउ वो शाल ला दे बिना जा नइ सकै। आन चार दिन ले लोगन बिना झिझक के जावत रिहिन हे। सेवकजी उमन ला कुछू नइ काहत रिहिसे। सोचै-वो घर म कोन ला काबर बलाये, जेकर वैभव ह चले गे हे।

टाउन हॉल म सँझा कन सभी के घोषणा करत लाउडस्पीकर बंधाए लाँगा ह गुजरिस। सेवकजी के मन ह कुलके ला धर लीस, टेहरा गै। वोह उठके खड़ा होगे। तुरते गुनिस-‘कइसे जावँ?’ शाल जउन गवां गे! बीते कतनो बच्छर ले ओकर ले कोनो सभा ह नइ छूटे रिहिसे। हर सभा म वाहे गाँधीजी के शाल ओढ़के पहुँच जावै। मंच म बइठे अउ आखरी वक्ता के बाद खड़ा होके काहै-‘महूँ ला ए विषय उपर दू शब्द कहना हे।’ माइक पकड़ के वोह ह बोले ला धर ले - ......... मैंह जउन भी सीखे हवँ; पूज्य गाँधीजी के चरण म बइठके। वोह मोला बेटा बरोबर दुलारय। मोर बिहान म वोह खुदे असीस दे बर अइस। हमर दूनो के मूड़ी उपर हाथ मड़ाके मोला किहिस-तैंह मोर बेटा नोहस, एहा मेार बेटी आय। खलखला के हाँस डरिस बापू अउ ए शाल ला हम्मन ला ओढ़ा दीस। येह असीस आय। मोर जीवन के सबले कीमती, सबले जादा पवित्र धन आय। सभा होतिस, त लोगन मन जानत राहै के सेवकजी जरूर  आही अउ शाल के बारे म बता के बइठ जही। एक सभा म


वोह ए विषय उपर आवत रिहिसे के सभापति ह घण्टी बजा दीस। हड़बड़ा के बइठे ला धरिस। तभे कोनो मजाकिया ह चिल्लइस-‘सेवकजी! आप शाल के बारे म बताए बर भूला गेव! लोगन हाँस डरिन। फेर सेवकजी ह सहज भाव ले किहिस जब प्रसंग उठायेच गेहे, त बताना मोर धरम आय। ए शाल मोला पूज्य गाँधीजी ह-’

    शाल ह बिक्कट जुन्ना होगे रिहिसे। जघा-जघा ले चिरागे रिहिस, छेदा होगे रिहिसे। फेर सेवकजी ह ओला कवच कस ओढ़त रिहिसे। ओला ओढ़ के अपन-आप ला अजेय अनुभव करै। शाल के ओकर इज्जत रिहिस, प्रतिष्ठा रिहिस। शाल ओकर जवीन के एक मात्र ताकत रिहिस। उही शाल रेल मे गँवागे। सेवकजी सभा-समारोह के घोषणा ला सुनै अउ मन मारके रहि जाय। कालीच्च श्रम-मन्त्री आए रिहिसे। ओकर सभा म बोलना सेवकजी ला जरूरी लागत रिहिसे, फेर शाल बिना वोह असहाय होगे रिहिसे। कोनो ह केहे रिहिसे- ‘सेवक जी! आजकल आप सभा मन म नइ दीखव। सेवकजी ह अब्बड़ उदास होके जवाब दीस- ‘भइगे भई! बहुत होगे। अब मैंह सार्वजनिक जीवन ले सन्यास लुहूँ। आज ओला लागत रिहिसे के सन्यास नइ ले जा सकै। अइसे तो जिए घलो नइ जा सकै। जीवन ह व्यर्थ होवत हे तेकर बोध बड़ जल्दी ओला होवत हे। जीवन रीता होगे, बिन मतलब के होगे।

    सेवकजी ओ पीढ़ी के रिहिस, जेहा जवानी के शुरूआत म ठान ले रिहिस के जीनगी-भर देष के स्वतन्त्रता खातिर संग्राम करिंगे। फेर स्वतन्त्रता पहिली आगे, जीनगी बाँचे रहिगे। अब का करे जाय? एला तो सोचे नइ रिहिसे के स्वतन्त्रता मिले के बाद काय करिंगे ? जउन मन विचार कर ले रिहिन अउ योजना घलो बना ले रिहिन, उमन सरकार चलाए ला धर लीन। कुछ मन विरोधी दल म शामिल होगे। फेर जउन चुनाव लड़ के घलो जीत नइ सकिन, अउ सरकान म नइ जा सकिन, उमन बड़ा अलझन म परगै। उमन हारे रिहिन हे। हारे राजा हा रानी मन के महल जावै अउ हारे नेता ह अध्यात्म म जाथे।




सेवकजी ह अध्यात्म म चले गे, फेर उहाँ मन इन लगिस। 24.30 बच्छर के सार्वजनिक जीवन, स्वतन्त्रता संग्राम के जमाना के ओ भारी भीड़, नारा के बाद थपरी के आवाज, भाषण दे के बाद जय जय कार, ‘महात्मा गाँधी की जय’, ‘इनकलाब जिन्दाबाद’ के दम म ओ भाला, ओ आरती! ए सुरता ओला उही किसम ले पीरा देवै, जइसे तपस्वी ला विलास के सुरता ह। ओह लहूट के आगे। अब हर सभा-समारोह मा संघरे ला धर लीस, ओकर जेल के जुन्ना-संगवारी अब शासक बनके लोगन मन तीर शाल ओढ़ के जा के जइसे तइसे काम सिह करवाए ला धर लीन। अइसने दिन कट जाए अउ अपन सफल होए के बाध घलो होवत राहै। 

    फेर अब करै का ? ओह मन लगा के गुनत रिहिसे। शाल ह तो जीनगी के ताकत ला ही लेगे। अब काकर बर जीयनँ ? जीयनँ, त करौं का? अइसन जियाई ले तो मरई अच्छा हवै! फेर वोह मरिस नही। अचानक ओकर मन म एक ठन विचार अइस अउ ओकर ताकत ले वोह खड़ा होगे। चप्पल पहिनिस ताहन दूरिहा बजार के कोन्टा म कपड़ा के दुकान गीस। शाल निकलवइस अउ हल्का आसमानी रंग के एक ठन शाल के कीमत पूछिस। मन म एक होइस-का एहा धोखाबाजी नोहे? हल तो निकाल लीस-वस्तु सत्य नइ हे, भावना सत्य हे। शाल बिसा के सेवकजी ह धर अइस। अब समस्यिा खड़ा होगे नवा ह जुन्ना कइसे दिखै ? सेवकजी ह ओला पानी म बूड़ो के सुखोइस तहान उही म फर्ष ला पेाछिस, दू-तीन दिन तक ओला ओढ़ के सूतत रिहिस। किसम-किसम के अत्याचार ले ओकर चमक थोकिन कम होइस। सेवकजी ओला घिरिया के ओला जुन्ना शाल के जघा म रख दीस। अब मन थोकिन हरू होगे, चेहरा के रौनक लहूटत रिहिसे, फेर जइसने वोह खुष होइस, सक ह कूद परतिस-कहूं लोग समझ झन जाय ? वोह कइसनो करके सक ला शान्त करतिस ताहन लानि ह मुड़ी उठातिस-एहा धोखाबाजी ए। वोह ग्लानि ला पुचकारै-वस्तु सच नोहै, भावना सच आय।

    संझा के सभा के घोषणा होगे रिहिसे। सेवकजी बहुत दिन के बाद


आज सभा म जाए के तइयारी करत रिहिस। संदुक के खादी के कुरता-धोती ला निकाल के पहिनिस, आलमारी ले शाल निकाल के ओढ़िस। फेर सवाल उठिस-एहा धोखाबाजी ए। जवाब दूसर कोन्टा ले उठिस-वस्तु सच नोहै, भावना सच आय।

    सेवक जी मंच म बइठ गे। जीउ ह धुकुर-धुकुर करे ला धर लिस-कहूं कोनो भेद ल झन जान ले ? कोनो सहज देखतिस, त वोह सोच के काँप जतिस के एहा शाल के रहस्य ला जान डरिस। उकुल-बुकुल होवत रिहिसे। आखरी वक्ता के बाद वोह खड़ा होगे। किहिस, “महूं ला ए विषय उर दू शब्द कहना हे।” ओहा माइक के डण्डा ला पकड़ लिस। दिल धड़कत रिहिस अउ हाथ काँपत रिहिस। आज पाँव ला स्थिर रखे बर कोषिष करे के जरूरत परत रिहिसे। बोलना शुरू करिस, “......... मैं जउन कुछ भी सीखे हवं, पूज्य गाँधी जी के चरण म बइठ के। वोह मोला बेटा बरोबर दुलारय। मोर बिहाव के बखत ए शाल ला मोला दे रिहिसे। बापू स्वयं-”

    पहिली कतार म बइठे एक झिन आदमी उठ के खड़ा हो के किहिस, “काबर लबारी मारथर सेवक जी ? ए शाल तो बिलकुल नवा हे अउ मिल के आय। कहूं गाँधी जी ह मिल के शाल देवै ? 

    सभा म सब खलखला के हाँस डरिन, हो-हल्ला मचगे, सेवक जी के पाँव डगमगइस, मुठा ह ढिल्ला हो के माइक के डण्डा ले खसले ला धरिस ताहन वोह उही मेर बइठ गे।










रिसर्च के चक्कर

    मैं कका के बात ला मान के फधित्ता म पड़ गेंव।

    एक दिन बोह किहिस, “आयुष्मान, कुछू काँही के छाया अपन उपर चिपका ले नही ते एकाद दिन जेल चल देबे। तोला फालतू किंजरत देखके एकाद दिन कोनो पुलिस वाला पूछही-का नाव हे तोर ? बाप के का नाव हे ? कहाँ नौकरी करथस ? तैंह अपन अउ अपन बा पके नाव ला तो बता देबे, फेर तीसर सवाल के जवाब म कहिबे-कहूं नौकरी नइ करवं। एला सुनके पुलिसवाला कहि-नौकरी नइ करस ? त कोनो चोर उचक्का अस तैंह। वोक तोला पकड़ के लेग जही। ए देष म जउन काकरो नौकरी नइ करै, ओला चोर समझे जाथे। गुलामी के सिवा शराफत के कोनो पहिचान हम जानबे नइ करन।”

    मैह केहेंव, “कका, त फेर ?”

    “विष्वविद्यालय म ‘रिसर्च’ करे बर धरले। वोह नौकरी नोहे, तभो ले इज्जत देथे। बहुत झिन मन पुलिस के डर ले रिसर्च कराथे। एम. ए. करे के बाद नौकरी मिलत तक जउन काम करे जाथे, उही ला रिसर्च कहिथन। वोह दफ्तर जाये के पहिली करे गे हरि-स्मरण आय। एकरे सेती जादातर शोध-प्रबन्ध बिष्णुसहस्त्रनाम हे-मतलब ओमे एके बात ला हजारो ढंग ले केहे जाथे।”

    कका के गोठ ले मोर एक ठन दबे शउँख ह जाग उठिस। कुछ बच्छर पहिली एम. ए. करे के बाद रिसर्च करे के मोर इच्छा रिहिसे। फेर मोर विभागाध्यक्ष ह वो बखत मोर ले नाराज रिहिस, काबर के मैं ओकर इच्छा के खिलाफ पहला दर्जा ले आए रेहेंव। बात अइसन रिहिस के मोर एक झन सहपाठी ह गुरूदेव ला घर तक पहुंचावय, अउ ओकर जठना जठा के ओला लोरी गा के सुतावय। मैं सिरिफ चौरस्ता तक पहुंचावत रेहेंव-काबर के मोला लोरी नइ आवत रिहिस। वोह ओ सहपाठी ला प्रथम श्रेणी के वरदान द रिहिस अउ मोला


    


ज्ञान के प्यासा हे। मैंह कोनो विषय उपर गम्भीर अउ सखस अध्ययन करना चाहत हवं।”

     आचार्य ह किहिस, “तोर उमर बहुत हवें, फेर तोर मन म अभीन घलो स्कूली लइका मन कस ज्ञान खातिर उछाह हे। एहा सियान मनखे मन के लक्षण आय। अच्छा, पहिली ए बता, तैंह कोन जात के अस ?”

    मैं ए सवाल ले अचानक चकरा गेंव। जातिसूचक संबोधन मैंह बरसो पहिली छोड़ दे रेहेंव। मोला लागिस के मैंह संविधान उपर जरूरत ले जादा विष्वास कर लेंव।

    मोर उलझन ला देख के आचार्य ह पूछिस, “ब्राम्हरण या कायस्थ ?”

    मैंह ह केहेंव, “दूनो नही”

    वोह पूछिस, “मगर तोला कोन अच्छा लागथे-ब्राम्हण या कायस्थ ? इहां ‘ब्राम्हण मन’ अपन गुट बना डरे हे, जेकर नेता आय डॉ शर्मा। महूं ह अपन गुट बना डरे हवं - कायस्थ गुट। ओकर नेतृत्व के जिम्मेदारी मोर असन छोटे मनखे उपर हवे। तैं कहूं ब्राम्हण गुट के प्रति समर्पित हस त डॉ शर्मा करा जा। वोह तोर बेवस्था करही। अगर......”

    मैंह पूछेव, “गुरूदेव, का कोनो ब्राम्हण ह कायस्थ गुट म शामिल नइ हो सकें ?”

    वोह किहिस, “हो सकथे। स्वार्थ ह जाति अउ धर्म ले उपर के निष्ठा आय।”

    मैं पूछेंव, “उपकुलपतिजी ह कते गुट डाहर हे ?”

    आचार्यजी ह किहिस, “ओकर दाई ह कायस्थ रिहिस अउ ददा ह ब्राम्हण। इही पाय के कभू ए डाहर झूकय त कभू वो डाहर। तैंह अपन तय कर।”

    मैंह केहेंव, “गुरूदेव, मैं तय कर के ही आय हवं। मैंह सब्बो नता-रिष्ता ला छोर के सिरिफ आप ले सम्बन्ध राखे हवं। ‘नाते सकल राम ते मनियत’-एकतरफा भक्ति के ए सूत्र ला मैं जानथौं।”

    डॉक्टर साहब खुष होइस। किहिस, “तोर श्रद्धा ले मैं खुष हवं। मैंह तोला डौक्टरेट देवा हूं। तैंह सिचर्य शुरू कर। फेर ‘रिसर्च’

के अर्थ समझ ले। एकर अर्थ हे-फिर से खोजना मने जउन पहिली खोजे जा चुके हे, ओला फिर से खोजना ‘रिसर्च’ कहाथे। जउन हमर गं्रथ मन म हे ओला फिर से खोजना हे। भारत के विष्वविद्यालय मन म जउन प्रोफेसर मन हमर विरोधी हे उँकर मन के ग्रन्थ अउ निष्कर्ष मन ला नइ देखना हे, काबर तब तोर काम रिसर्च नइ होके ‘सर्च’ हो जही। दुसर बात ए आय की विष्वविद्यालय ज्ञान के विषाल कुण्ड आय। एमा जतना ज्ञान भरे जा सकै ओतना भराय हवै। लबालब भराय हवै एक कुण्ड हे। कहूं बाहिस के ज्ञान ला के भरे जाही ते ए कुण्ड ह फूट जही। तैंह जानथास, धाँसा बाँध के टूटे ले दिल्ली के तीर तखार म कतना नुकसान होय रिहिस। हर अध्यापक अउ हर छात्र के ए कर्तवय आय की ए कुण्ड म बाहिर ले ज्ञान-जल झन आवन देवो, नहि ते बांध टूटही अउ भारी विनाष होही। अइसन हर छेदा म अंगरी राखे राहौ, जिंहा ले ज्ञान भीतरी म खुसरत होही।”

    मै मुड़ी गड़िया के ओकर उपदेष ला सुनत रेहेंव। वोह विस्तार मे मोला अपना कर्तव्य समझइस। बीच-बीच म वोह छात्र मन डाहर ला देख के काहै, “कइसे, लबारी मारत हवं ?”

    वोह राग धर के कहितिस, “नही, सिरतोन कहिथस।”

    अब आचार्य ह किहिस, “अब तैंह थोकिन बइठ के सुन, ए छात्र मन का शोध कर के लाने हवै। हव, तुमन एक के बाद एक अपन-अपन शोध-पत्र ला पढ़व।”

    पहेला छात्र ह पढ़िस-जेकर सार ए आय की परसो डॉक्टर शर्मा कहूं काम म घूमें बर गे रिहिस। संग म ओकर लोग-लइका मन घलो रिहिन। इहां ले चार मील के बाद पेट्रोल सिरागे। ताहन उमन सब झिन पैदल उहां तक अइन। ओकर बाद रात कन डॉक्टर शर्मा नौकर संग पेट्रोल धर के अइन ताहन कार ला लइन। डिपार्टमेण्ट म सब झिन लुका के हाँसत रिहिन हे।

    एला सुनके आचार्य ह बिक्कट जोर-जोर से हाँसे ला धर लीस। हाँसत-हाँसत किहिस- सब झिन पैदन आय हवें।

ही-ही-ही-ही! तहान पेट्रोल धर के गीन- ही-ही-ही-ही। ओला हाँसत देख के वो छात्र मन घलो खलखला के हाँसे ला धर लीन।

    ओला हाँसी नइ आवत रिहिसे। एक छात्र ह किहिस, “आप हाँसव कावर नही ? शुरू ले ही अनुषासन भंग करत हव। आगु का होही ?”

    मैंह ए अवसर म अपन प्रतिभा देखायेंव। किहिस, “मैं गुनत हवं की एक महत्वपूर्ण विषय उपर आप जइसे पारंगत शोध कर्ता मन के ध्यान काबर नइ गीस ?”

    “कते विषय उपर ?” वोह पूछिस।

    मैंह केहेंव, “कार म वो जउन माइ लोगन रिहिस, वोह डॉक्टर शर्मा के गोसइन रिहिस या कोनो दूसर ?”

    उमन सब सन्न रहिगे। आचार्य ह खुश हाके मोला पोटार लीस। किहिस, “वाह, एला कथे शोध-प्रतिभा। मैं अतेक बच्छर लें रिसर्च करवावत हवं, फेर ए बात ह मोर आँखी ले घलो ओझल होगे। यंगमैन, अद्भूत हस। तोला शोध करा के मोला गौरव मिलही।”

    मोर रंग जम गे।

    दूसर छात्र ह जउन रिसर्च-पेपर पढ़िस ओकर सार ए रिहिस की डॉक्टर र्श्मा के गुट के एक अध्यापक, कार्यकारिणी के एक झिन ठेकादार सदस्य घर गीस अउ ओला उपकुलपति के बंगला लेगिस। उहां उमन लगभग एक घंटा रिहिन। एकर बाद उमन बाहिर निकलिन तहान पाँच मिनट ले हाँस-हाँस के गोठियावत रिहिन। अइसने किसम ले बाकी मन घलो अपन-अपन शोध-निबन्ध पढ़िन।

    आचार्यजी ह हम्मन ल किहिस, “अब तुमन ला मैंह खास विषय ऊपर काम देवत हवं। तुमन जानथव, अभीन इही राज्य म मुख्यमन्त्री बदले हे। तुमन ला एक हप्ता म शोध करना हे की ए विष्वविद्यालय ऊपर का असर पड़ही। सब्बो उदिम ले पता लगाव




की कोन अध्यापक के ओकर ले कइसन सम्बन्ध हे ? कोन मन अपन-आप ल ओकर ‘आदमी’ समझथे ? कोन अभी तक ले अपन-आप ल जुन्ना मुख्यमन्त्री के आदमी कथे। उपकुलपति ओकर कृपा पात्र हवै की नही, ? अउ वोह कते-कते बात ले खुष होथे ? देखो, ए विषय उपर बड़ा ध्यान से काम करना हे काबर की एकरे ऊपर तंुहर थीसिस के योग्यता निर्भर हे।”

    आचार्य ह जउन नवा विषय शोध खातिर दे रिहिसे, ओकर ऊपर बढ़िया बूता मिहीच्च ह करेंव। जब वो शोध-पात्र आचार्य के आघु पढे़ंव, त वोह खुषी के मारे उछल पड़िंस। किहिस, “नियम कहूं बाधक नइ होविस न मैं तोला तुरते डी. लिट. देवा देतेंव।”

    फेर एक दिन आचार्य ह थोकिन नाराजगी जाहिर करे रिहिसे। ओकर करा रिपोर्ट पहुँचे रिहिसे की मैं चउँक म विरोधी गुट के एक अध्यापक संग पान खावत रेहेंव। मैंह सफाई देंव की वोह सिरिफ संयोग के बात रिहिसे।

    वोह किहिस, “मगर तैंह ओकर संग हाँसत तो घलो रेहे। येह गलत हे। एक निष्ठता के बिना शोध नइ होय। तोला उँकर डाहर के मनखे मन के छइंहा ले घलो अलग रहना चाही।”

    वो दिन ले मैंह सावधानी बरतेंव।

    फेर डॉक्टर होवई ह मोर भाग म नइ रिहिस।

    एक दिन संझा कन आचार्यजी ह मोला बलइस। कुरयिा के सब्बो कपाट ला बन्द करके किहिस, “देखो, डीन के फेर नियुक्ति होवइया हे। वो शर्मा के बच्चा फेर कोषिष करत हे। वोह मोर एकमात्र प्रतिद्धन्दी हे। जइसन मैं काहत हवं, ओइसने तैंह कर ताहन वोह रद्दा ले हट जही तहान मैंह डीन बन जहूं।”

    वोह जब ले एक ठन थैली निकाल के मारे हाथ म दीस अउ किहिस, “एमा गाँजा हे। एला डॉक्टर शर्मा के घर म कलेचूप डार देबे ताहन कोनो पब्लिक-फोन ले बिना अपन नावं बनाए, पुलिस ला खभर कर देबे।”

    मैंह एक क्षण तो खडे़ रेहेंव। फेर गांजा ले टेबिल ऊपर फेंक के फुरती से कपाट खोल के जउन भागेंव ने आज तक ले नइ गेंव।

सुदामा के चाँउर

{कृष्ण से मनमानी सम्पत्ति प्राप्त करके विप्र सुदामा अपने भवन में आराम से रहने लगे। उन्हे कोई काम तो करना नही पड़ता था, इसलिए पण्डितानी से लड़ने और जम्हाई लेने के बाद भी जो समय बचता उसमें कुछ लिख-पढ. लेते, उसमें से संस्मरण और डायरी के कुछ भाग अब मिल गये हैं। उसमें से कृष्ण से भेंट वाला प्रसंग यहाँ उद्घृत किया जाता है। - लेखक}

...... मनखे मन के खुसुर-फूसुर करई के मारे मैंह हक खा गे हवं। लोगन मोला चैन से काबर राहन नइ देवै। असइे केहे जाथे की कृष्ण ह प्रजा के कोष ले धन निकाल के अपन संगवारी ला दे दीस। कृष्ण ह असइे का गलती करिस, जउन मोला एक कनिक धन दे दीस। राज-पद पाके कोन ह अपन भाई-भतीजा अउ संगवारी मन के भला नइ करै? कोनो-कोनो तो मुहीच्च ला भोकला कहिथे। कहिथे की कृष्ण ह मोर दू मुठा चाउँर ला खाके मोला दू ठन लोक ला दे रिहिसे फेर मैंह भोकवा बरोबर लहूटा देंव। काली बिहनिया मैंह भवन के बाहिर मैदान म दातौन चाबत घूमत रेहेंव-मोला एक पहर तक ले दातौन करे के आदत हे काबर की कोनो किसम ले समय ला तो काटना हे। आघु ले ब्राम्हण देवदत्त ह अपन कोनो विदेषी संगवारी संग निकलिस जावत-जावत मोर डाहर इषारा करत काहत रिहिस-‘येहा उही भोकवा सुदामा आय, जेला कृष्ण ह दू ठन लोक दे रिहिसे, फेर एहा लहूटा दीस।’ सुनके मोर तन-बदन म आगी लगगे फेर मैंह ह क्रोध ला पी गेंव। का करतेंव ? मिही ह तो ए गोठ ला बगराए रेहेंव। मनखे मन के बुद्धि ला एक युग म का होगे हे! कोनो ह ए नइ किहिस की हे लबरा सुदामा, माल ले कृष्ण ह हर भेंट करइया मन ला एक-दू ठन लोक ला दान म देवत होही, त तो हर रोज हजारो लोक ला बांटत होही। फेर लोक तो तीने ठन हे अउ मथुरा तीनो लोक म सबले सुन्दर हे। अउ हे




लबरा ब्राम्हण, मानले तैंह कहिबे की सिरिफ तिंही भर ह ओकर करा भेंट करे बर गे रहे, त यहू ह लबारी आय। जब कोनो राजधानी जाथे, त बड़े पद मन म बइठे अपन पहिली के चिन्ट-पहिचान सन भेंट करके आ जथे। फेर कृष्ण तो बहुत हँसमुख अउ मिलनसार हे, ओला नृत्य-संगीत नाटक के राउँख हे अउ ओकर तीर-तखार म एक ले बढ़के एक कला के जनइया सुन्दरी मन के जमघट रहिये। जउन राजनेता के तीर-तखार म सुन्दरी मन के फूल कस गुच्छा रथे, ओला मिलइया मन के कमी नइ परय।

    कोनो अइसन शंका नइ करिस। एती कतनो युग क एक बात ला माने जाही की कृष्ण ह मोर दू मुठा चाँउर खा के मोला ‘दू लोक दीस, अउ बाद म मैंह ओला लहूटा देंव, फेर आज मैंह सिर तोन बात ला लिख देना चाहत हवं, जेकर ले युगो-युगो तक अउ अतेक बड़ भुइयाँ म, कोनो कभू ए पन्ना के अधार म संसार ले कहि सकही की दू मुठा चाँउर अउ दू लोक वाले बाते ह लबारी आय, सुदामा ह कृष्ण ले दान नइ ले रिहिस बल्कि वोह तो एक दुसर के सुख-चैन खातिर सौदा करे रिहिस।

जब मैंह द्वारिका जाय बर धरेंव, तब ब्राह्मणी ह परोसिन ले एक पाव चाँउर उधारी मांग के बांध दीस। वोह जानत रिहिस की राजपुरूष बिना भेंट लेवे काकरो बूता नइ करै। मोर घर म एक पाव चाँउर नइ रिही, अइसन बात नइ रिहिस, फेर ब्राह्मणी जानत रिहिसे की राजपुरूष उधारी या चोरी के माल ले बहुत खुष होथे।

    कृष्ण ह मोला बड़ मया करत अपन तीर बइठार के मोर खखौरी म दबाय गमछा ला तीरिस, उलट-पुलट के देखिस। ओमा चाँउर के एको ठन दाना घलो नइ रिहिस। कृष्ण ह मोर डाहर बड़ अचरज अउ खिसिया के देखन किहिस, “कहाँ गे चाँउर ह ? तैंह फेर छल-कपट करे। मैंह अपन दिव्य-दृष्टि ले देख डरे रेहेंव की भउजी ह मोर बर गमछा म चाँउर बाँधे रिहिस।”

    मोर मन म होइस, कहि देंव का कहिके की हे मोर राजमित्र, जउन नजर ले अपन संगवारी मन के गोसइन ला गोसइया के गमछा म चाँउर बाँधत देखत रहिथस, उही नजर ले मनखे मन के गरीबी अउ

भुखमरी ला काबर नइ देखत ? फेर मैं कुछु सोच बिचार के चुप रेहेंव। 

    कृष्ण ह चाँउर खाए बर बड़ ललचाय रिहिस। ओकर बिनती ह मया के सेती कम रिहिसे, एकर खेती जादा रिहिसे की तीर म खड़े चित्रकार मन चाँउर खावत महराज के चित्र खींचे बर तैयार खड़े रिहिन। चित्र खींच के ओकर खाल्हे म लिखे जातिस, ‘दीनबन्धु एक गरीब के चाँउर खावत।’

    वोह बनावटी खिसिया के पूछिस - “का तैंह चाँउर ला घलो खा डरे ?”

    “नही।” मैंह केहेंव।

”त फेर कहाँ गे ?” वाहे रिसागे।

मैंह केहेंव, “नइ बतावं। मैंह वचनबद्ध हवं।”

“काकर सन वचनबद्ध हस ?”

“तोर रक्षक विभाग के अधिकारी सन, वोह केहे हे की कहूं तैंह ए सब मामला महराज ला बताबेे, ते तोर बालणी ह राड़ी हो जही।

कृष्ण हाँसिस। पूछिस, “कइसन मामला ? संगवारी, तैं मोला बता तो। मैं तोला अभयदान देवत हवं। मैं तोला अपन खुद के रथ म सकुषल घर पहुँचाहूँ।”

आश्वासन पा के मैंह केहेंव, “अच्छा बतावत हवं। फेर पहिली राज्य-षासन म तोर परीक्षा लेवत हवं। बना, खुरचन काला कथे अउ बढ़िया शासन म एकर का महत्व हे ?”

कृष्ण ह मोर डाहर नासमझी कस देखे ला धर लीस किहिस, “मैंह तो ए शब्द ला सुनेच्च नइ हवं।”

    मैंह ह केहंेव, “अचम्भा हे। शासन के सब ले महत्वपूर्ण नीति ला नइ जानस अउ राज करथस।”

कृष्ण ह जल्दी किहिस, “फेर तैंह पहिली चाँउर के ला तो बता।”

तब मैंह सब्बो घटना आ ओरी-पोरी सुनायेंव, जेला इहां लिखत हवं-

माँगत-खावत मैंह द्वारिका नगरी पहँुचेंव। नगरी के वैभव ला



देख के अचकला गेंव। सब्बो धन ह सकलाके द्धारिका म आ गे रिहिस अउ सब्बो विद्या ह जुरिया गे रिहिस। बड़ेब-बड़े कला विषेषज्ञ, पण्डित, कवि अउ गायक राजधानी म आके बस गे रिहिस काबर की इहां राज-पुरस्कार खूब बँटावत रिहिसे। इंकर मन के आघु म मोर जइसे गरीब ब्राह्मण ला कोन पूछतिस? मैंह नगरी के बाहिरेच्च म बिना नहाए, माथ म चन्दन लगा ले रेहेंव, इही पाय के लोगन पूछे ले कम से कम खुदा ला तो बता देवत रिहिन।

पूछत-पूछत मैंह कृष्ण के आघु पहुँच गेंव। उहाँ एक झिन कर्मचारी ला मैंह केहेंव- “भइया, मोला महराज ले मिलना हे।” वोह मोला ध्यान से देखिस अउ शायद हरकाए बर किहिस, “वोती डेरी हाथ डाहर बाजू वाले कार्यालय म जा। उहाँ पूछताछ के बाद जब अनुमति मिलही, तभे जा सकबे।”

थोकिन सोच-विचार के फेर किहिस, “तैंह भइया काबर कथस ?” मैंह ह जवाब देंव, “मनखे, मनखे ला भइया ही तो किही।” वोह मोला समझइस, “निच्चट सिधवा हस। एती कोनो राज-कर्मचारी ला भइया झन कहिबे। वोह मनखे होवई म अपन अपमान समझथे। ओला ‘देवता’ कहना चाही।”

मैंह ओकर गोठ ला गठान पार के वो बड़ेजन कार्यालय के मुहारी करा गेंव। उहां कतनो कर्मचारी मन बइठे रिहिन जेमा जादातर गपषप मारत रिहिन। उमन अपन जघा ले उठतिन अउ तीर के जलपान-गृह म जाके बइठतिनं मैं समझेंव की इमन सब झन ला हइी करे बर राज्य ले वेतन मिलथे।

मैं बहुत समय तक ले खड़े रेहेंव। ताहन हिम्मत करके भीतरी म खुसरेंव। एक झिन कर्मचारी ह खिसिया के मोला किहिस, “ए कतिंहा खुसरत आवत हस ? एहा धर्मषाला नोहे। वो डाहर जा उहाँ धर्मषाला हे अउ रोज भोजन बँटथे।” ओह अँगरी ले रक्स हूँ दिषा डाहर इषारा करिस।

मैं केहेंव, “देवता, मोला महाराज ले मिलना हे।”




मैंह केहेंव, “भगवन, मोर दुब्बर-पातर तन अउ चिरहा-फटहा कपड़ा-लत्ता म झन जा। मैंह पूरा होषो, हवास म हवं। मैंह पगला नइ हवं। मोला वाजिब म महाराज कृष्ण ले भेंट करना हे।”

“अतना म कतनो कर्मचारी आके मोला चारो मुड़ा घेर के खड़ा होगे। ओमे से एक झन केहे ला धर लीस, आपके तो बहुत बड़े इच्छा हे विप्रदेव! का बूता हे आप ला महाराज ले ?”

मैंह केहेंव, “वोह मोर संगवारी आय, संघरा पढ़े हन।” अतका ला सुन के सब झिन एके संघरा हाँस डरिन।

एक झिन किहिस, “वाह महाराज ला तिंही ह संघरा पढ़े बर मिलेस।”

दूसरा ह केहे ला धर लीस, “विप्रदेव, आप भाँग-बाँग पीथव का ?”

तीसरा ह किहिस, “आप कोन देष के राजा अव ?”

मोर संकट के मारे शरीर अउ गरीबी के मारे चिरहा फटहा कपड़ा ला देख-देख के खिल्ली उड़ावत रिहिन। मैं लाज के मारे मरत रेहेंव। चाहत रेहेंव की भुइयाँ फट जतीस अउ मैं ओमा समा जतेंव। दीनबन्धु के सेवक मन के कइसन व्यवहार रिहिस, एक झिन दीन-दुखी उपर। 

इही समय कार्यालय के दूसर छोर ले एक झिन दबंग कर्मचारी चिल्लइस, “एकाद कनिक ‘खुरचन’ के बेवस्था हे ते अइसने मिले बर चले आए।” चारो मुड़ा ले ‘खुरचन-खुरचन’ आवाज आय ला धर लीस।

“खुरचन” मोर बर नवा शब्द रिहिस। मैंह केहेंव, “भइया खुरचन ला तो मैं नइ जानवँ। शब्द-कोष म तो एक शब्द नइहे। कोनो काव्य अउ दर्षन म घलो येह नइ आहे। येह अन्दाजी शासन के कोनो खास शब्द आय। मैं जानथवं बढ़िया शासन कुछ शब्द अउ आँकड़ा मन के बदोलत चलथे।”

ओमे से एक झिन, जउन बड़ सयाना रिहिस, केहे ला धरिस, “ब्राह्मण देवता, राजदरबार म आये हस अउ शासन के नीति ला इन जानस ? तैं तो ‘खुरचन’ तक ला नइ समझस।”


मैंह गजब नरम हो के केहेंव, “बन्धु मैं तो ग्राम वासी अँव। शासन हमर करा सिरिफ कर वसूले बर पहुँचथे। भला राजधानी के रीति-नीति ला मैं कइसे जान सकथवँ ? हमर गँवई -गाँव म तो दुध ला डबकाये के बाद जउन मलाई कराही म चिपके रथे, ओला खुरच (करो) लेथन ताहन उही ला खुरचन (करौनी) कहिथन”

वोह किहिस, “ठीक अइसने किसम ले शासन के कराही म जउन माई चिपके रहिथे ओला हम्मन उही ला हम्मन ‘खुरचन’ कहिथन।”

मैं तभो ले नइ समझेंव। उमन ला मोर उपर थोकिन दया आगे। सयाना किहिस, “तैंह समझे नही विप्रदेव! हमर मतलब हे, यहू एक मन्दिर ए। कुछु भेंट वगैरह तो लायेच्च होबे। महाराज सन का बिना भेंट के मिलबे ? हमरो मन के तो कुछु हिस्सा होही।”

मैं अड़चन म पर गेंव। मोला चूप देख के एक झिन कर्मचारी ह केहे ला धर लीस, “तोर खखौरी म दबे वो गठरी म का हे ब्राह्मण देवता ? सोना हे ?”

मैं चाँउर के गठरी ला अऊ कस के दबा लेंव।

सयाना कर्मचारी किहिस - “का हे ओमे ? खोल ओला।”

मैं घबरायेंव। कहूं चाँउर इंकर आघु म खुलगे, तहान इमन मोर बड़ खिल्ली उड़ाही। मैं कोंदा-लेड़गा कस खड़े रेहेंव।

तभे वो रक्षक विभाग के अधिकारी आघु बढ़िस। ओकर दबंग शरीर, गुस्साए थोथना अउ बिच्छी के डंक जइसे मेछा ला देख के मैं कांप गेंव। वोह टोर्रठ स्वर म किहिस, “अरे दू थपरा लगा, अभी बता दिही ब्राह्मण के बच्चा ह।”

मैं काँप गेंव। मैंह झटकुन मोटरी ला खाले देंव। चाँउर ला देख के सब झन अचम्भा म परगे। एक-दुसर डाहर देखे ला धर लीस। एक झिन किहिस, “ए ब्राह्मण ह पगला गे हे। भला कोनो चाँउर धर के महाराज करा मिले बर जाही ?”

अब तक तो दबंग कर्मचारी आगे रिहिस। वोह किहिस,

मैं काँ गेंव। मैंह झटकुन मोटरी ला खोल देंव। चाँउर ला देख के सब झन अचम्भा म परगे। एक-दुसर डाहर देखे ला धर लीस। एक झिन किहिस, 


“भई, एमा जरूर कोनो भेद हे। येह साधारण नइ मालूम होय। भला महाराज कोनो महाराज बर साधारण चाँउर लाही ? ये ब्राह्मण मन बड़ गुप्त भेद वाले होथे। कतनो किसम के तन्त्र-मन्त्र करत रहिथे। ए चाँउर ह कतनो मन्त्र ले सिद्ध हे तइसे लागथे, जेला महाराज ला दे बर जावत हे।”

मैंह गुनेंव की ए भरम के बइँहा ला धर के कृष्ण करा पहुँच सकथँव। मैंह केहेंव, “ग्यारह रात अउ दिन सरलग मन्त्र जाप करके चाँउर ला सिद्ध करे हवँ।”

“का गुण हे एमा ?”

मन मुताबिक फल-धन प्राप्ति, नारी-सुख, स्वास्थ्य, पुत्र लाभ, शत्रु-नाष!

अतना सुनते भार उमन सब्बो झिन चाँउर ऊपर टूट परिन। सब झिन के कुछु न कुछु इच्छा रिहिस। कार्यालय म काम बन्द होगे। सब्बो कर्मचारी उही जघा सकलागे। जउन आए, वोह एक चुटकी चाँउर खावय।

जब आधा मुठा चाँउन बाँचिस, तब मैंह ओला सकेलत केहेंव, “अब अतना ला महाराज बर राहन देव।” इही बखत एक झिन बड़े अधिकारी वो मेर अइस अउ खिसिया के किहिस, “कहाँ धर के जाथस ? महूँ ला खाना हे। महाराज ला दुसरइया पारी मा ला के दे देथे।”

वोह बाँचे चाँउर ला मुहूं म डार लीस।

मैंह खाली गमछा ला झर्रा के लपेटेंव अउ खखौरी मा दबा लेंव।

बडे़ब-बड़े मेछा वाले वो खतरनाक रक्षक-विभाग के अधिकारी ह एक झिन सेवक ला बला के आदेष दीस, “एला








महराज करा पहुँचा दे।”

मैं सेवक के पीछू गेंव। चारेच कदम रेंगे पाए रेहेंव की वो मेछर्रा आके मोर हाथ ला धर के किहिस, देख ब्राह्मण के बच्चा, कहूँ तैंह महराज ला ए चाँउर वाले बात ला बताबे, ते तोर ब्राह्मणी हा राड़ी हो जही।”

वोह हाथ ला छोड़िस, तहान मैंह धकर-लकर महल म चल देंव।

ए घटना मैंह कृष्ण ला सुनायेंव। वोह बड़ चिन्ता-फिकर म परगे।

मैंह केहेंव, “तैंह राज करथस ते सुतथस ? कइसन धांधली मचे हे। तोर राज-कर्मचारी चाँउर तक ला झटक के खाथे।”

कृष्ण ह किहिस, “मोला सिरतोन म एकर जानकरी नइ रिहिस। मैंह आजे जाँच समिति नियुक्त करत हवं। फेर बाहिर म ए बात तैं कोनो ला झन बताबे। राज्य के बिक्कट बदनामी हो ही।”

मैं अड़ गेंव। मैंह केहेंव, मैं ब्राह्मण अवं-सत्यवादी। प्राण ह भले चले जाय फेर सत्य ला नइ त्याग सकँव। मैं डंका के चोट म कहूं की राज्य म अइसन अन्धेर मचे हे।

कृष्ण के हालत ह बड़ खराब होगे। किहिस, “देख, तैं मोर संगवारी अस। का संगवारी खातिर थोकिन लबारी घलो नइ मारबे ?”

    मैंह ताना मारत केहेंव, “अब तोला अपन संगवारी के सुरता आए ला धरिस। पहिली नइ सोचे की मोर एक झिन संगवारी सुदामा ह गरीबी के दिन कारत हे।”

कृष्ण ह किहिस, “मोर परिस्थिति ला तैं वा समझवे। मैंह इही नइ समझ पावंत की कोन मोर ए अउ कोन दूसर। जब ले मोला ए राज पद मिले हे, कतनो आदमी मोर खास बनके मोर करा सहयोग करे बर आ गेहे। अब तक बीस हजार कका, पच्चीस हजार भतीजा, दस हजार मौसी अउ आठ हजार काकी मन आ गे। अब




तिहीं बता, मैंह काकर-काकर बूता ला करँव ? अउ सच पूछबे व मोला अभी घलो विष्वास नइ होवत हे की तैं उही सुदामा अस, जउन मोर सहपाठी रिहिस, काबर आठवां के सुदामा तो कालिच्च आये रिहिस जेला मैंह बाहिर ले ही लहूटा दे रेहेंव। तैं कोन जनी कइसे भीतरी म खुसर गेस। आ गे हस त कोई बात इनहे, फेर मित-मितानी के बात झन कर; काबर मैं का जानवं की तैं कोन अस। मैं तोर सन सौदा कर सकथँव। तोर करा राज्य के एक ठन रहस्य हे जोकर खुले ले शासन ह कलंकित होही। बोल, ए रहस्य ला गुप्त रखे बर का लेवे ? इहां अइसने किसम ले दे-लेके मुहूं ला चूप कर दे जाथे।”

मैं गुने ला धरेंव। जब संगवारी ले सौदा के बात आगे हे, त फेर संकोच ला छोड़ना चाही।

मैं कहेंव, “अच्छा, अइसने सही। कतना देबे ?”

“दस हजार सोना के मोहर।“ वोह किहिस।

मैंह बनावटी खिसिया के केहेंव, “का तैंह मोर ईमान ला सस्ता समझे हस ?”

“त एक लाख सोना के मोहर, एक भवन अउ एक गाँव ले ले।”

अतना कीमत म मैंह अपन ईमान ला बेच देंव।

कृष्ण ह मोला अपन रथ म वापिस पहँुचइस। लहूट के मैंह दू मुठा चाँउर अउ दू लोक वाले बात ला खुदे गढ़ के बगर देंव। लोगन एकरे उपर भरोसा करही।

कभू जब पृष्ठ ह खुलही तब ए सत्य ह उजागर होही की चाँउर के एक दाना घलो कृष्ण ला नइ मिले रिहिसे। चाँउर तो कर्मचारी मन के ‘खुरचन’ हो गे। यहू ला लोगन जानही की मैंह कृष्ण ले दान नइ ले रेहेंव, कुछ समय बर ईमान ला गिरवी रखे रेहेंव।






धोबिन को नहिं दीन्हीं चदरिया

पता नही, काबर भक्त मन के चद्दर ह मइलाथे! जतना बड़े भक्त ओतने जादा मइलाहा चद्दर। शायद कबीर दास कस ‘जतन’ के ओढ़ के चदरिया ला ‘जइसने के तइसने’ रखे देथे-

दास कबीर जतन से ओढ़ी

धोबिन को नहि दीन्ही चदरिया!

अभीन जउन भक्त किसम के निच्चर डोकरा मोर करा आए रिहिसे, ओकर चद्दर घलो बिक्कट मइलाए रिहिसे। ओकर सन मोर दुए-तीन घाँव जान पहिचान होए रिहिस। उदूप ले वोह आ गे। मोला अलकरहा लागिस-येह मोर करा काबर आ हे?

मोला ओकर जान-पहिचान वाले मन बनाए रिहिन हे की येह पहिली सरकारी नौकरी म रिहिसे। ड्यूटी के दौरान दुर्घटना म एला चोट लगगे। विभाग ह इलाज करवइस अउ छह हजार रूपिया हरजाना दीस। अब येह रिटायर हो-गे-हे। लाख रूपिया ले कम सम्पत्ति नइहे। जमीन घलो हे। मकान हे। एक ठन ला किराये म दे हे। पेंषन घलो मिलथे। घर म दूए प्राणी हे-गोसइया-गोसइन। कोनो तकलीफ नइहे। भजन-पूजन म लगे रहिथे। भगवान ले लगन (लौ) लगे हे। आदमी तुच्छ हे। पड़ोस म कोनो मरत होही त देखे ला घलो नइ जाय। बड़ शान्ति मय, निर्मल आदमी आय काबर की लगन दुनिया ले नही बल्कि परमेष्वर ले लगे हे।

घर म खाए-पीए के सुभीता हो, जिम्मेदारी झन होय, त सन्त अउ भक्त होय म सुभीता होथे। अमीन साईबाबा के पुण्यतिथि म सात दिन तक ले इहां समारोह होइस। दिन-रात चौबिसो घंटा सरलग लाउडस्पीकर म जोर-जोर से 




भजन अउ ‘जै’ होवत रिहिसे। मोहल्ला के पढ़इया-लिखइया मन तकलीफ म रिहिसे। बीमार मनखे मौत के अगोरा करें। दिन-रात हो-हल्ला। पढ़े कब ? नींद कब आये ?

साई बाबा मानव-कल्याण के आसा करइया रिहिसे। ओकर आत्मा ह स्वर्ग म मनमाड़े तड़फत होही।

हजारो-मने पचास-साठ हजार तो खर्च होएच्च होही। इमन अइस कहाँ ले होही, पूछना फालतू हे। आखिरी दिन भण्डारा म ही तीन-चार हजार लोगन मन भोजन करिस होही। ये सब चन्दा के पइसा। एके ठन भजन ह घेरी बेरी बजे-

दर्षन दे दे अम्बे मैया

जियरा दर्षन को तड़फे।

मैंह सोचेंव, एला अइसन घलो गा सकथन-

दर्षन दे दे चन्दा मैया

जियरा खाने को तरसे

मैं एक दिन गेंव, ए देखे बर की ए पतित समाज म अइसन भक्त कोन होय हे। फिर मोला जउन प्रमुख ‘साई भक्त’ मिलिन, ओमन महान रिहिन। काकरो उपर गबन के मुकदमा चलत हे। कोनो सस्पेण्ड अफसर आय। काकरो विभागीय जाँच होवत हे। मुनाफाखोर, मिलावटी। मनखे के खून ओकर ‘कल्याण’ खातिर चुहकइया। अफसर मन ला घूस खवाए के धन्धा करइया। डरपोकना पत्रकार। राजनीति म बनवास भोगइया आधुनिक ‘राम’ जउन दषरथ के आज्ञा ले नही, जनता के खदेड़ दे ले बनवास भुगतत हे। फेर वो मनखे जिंकर धन्धा ही आय कोनो न कोनो बहाना चन्दा वसूलना अउ ओला खा लेना। 

मैंह सोचेंव - एक मैं पापी अउ अतेक झन इमन भक्त। मैं भक्त मन के आघु ले लजा के भाग गेंव।





फेर सोचेंव-साई बाबा जीयत रहितीस अउ इमन ओकर करा जातिन। वोह सन्त रिहिस, ज्ञानी रिहिस, भीतरी के रहस्य ला, चरित्र ला समझ लेवै। उमन एला समझ लेवैं उमन आषीर्वाद माँगतिन, त साई बाबा कहितिस, ‘परम पापी, तन खातिर बहुत कर डरेव। अब वतन ला त्याग देवौ अउ नरक बर जठना बाँधो। उहाँ रिजवैषन मैं करा देथवँ।’

त मोला  भक्त मन ले बिक्कट डर लागथे। पर ए भक्त मन घर म आ-गे। कबीर के ‘धोबिन को नहि दीन्ही चदरिया’ के गन्ध ला-ले-के। 

बइठिस तहान तुरते ‘रामधुन गाए ला धर लीस। ओकर बाद किहिस, आप तो स्वयं ज्ञानी अव। ब्रह्मच्च ह सत्य आय। जगत मिथ्या हे। माया बैरी आय। कोनो ला माया के फंादा म नइ फँसाना चाही। मैंह माया त्याग दे हवँ। अब बस, प्रभु हे अउ मैं हवँ। लोभ, मोह, स्वार्थ-सबले मुक्त।’

फेर ओहा ‘हरे राम, हरे कृष्ण’ गाये ला धर लीस।

मेला परेषानी तो होइस, पर अच्छा घलो लागिस की एक एकझिन विरागी भकत के चरण-रज मोर घर म परत हे।

मैंह ओला खाना खवायेंव। बड़ स्वाद ले के वोह बेकार तन म हकन के खाना ला डारिस।

ताहन सुत-गे।

संझा कन गोठ-बात शुरू होइस।

        भजन अउ हरि स्मरण ह स्थगित होगे। बीच-बीचम वोह ‘हे राम’ कहि लेवत रिहिस।

      किहिस, “ड्यूटी म घायल होए के मुआबजा मोला सिरिफ छै हजार रूपया दे दीस।”

मैं चउँकंेव-माया सन्त के भीतर ले कइसे निकलगे। कहँा लुकाये रिहिसे ? दिन भर येह माया ला कोसत रिहिसे अउ अब छै हजार के मुआवजा के बात करत हे।

    माया सिरतोन म बड़ ठगनी होथे। 

    फेर किहिस, “मैंह पन्द्रह हजार के मुकदमा दायर

करे रेहेंव। फेर अभी मैंह हाईकोर्ट ले केस हार गेंव।”

फेर वोह एक ठन कागत निकालिस। किहिस, “येदे मैंह राष्ट्रपति ला चिट्ठी लिखे हवं। एला देखव।”

मैंह चिट्ठी ला पढ़ेंव। सब्बो फालतू के बात रिहिसे। असली बात जउन लिखे रिहिसे, वोह असइन आय, “मैंह ईष्वर भक्त अवँ। मनखे मोर संग न्याय नइ कर सकै। मैंह पन्द्रह हजार रूपया चाहत रेहेंव। पर हाई कार्ट ह मोर माँग ला नामंजूर कर दीस। जज मन घलो मनखे होथे। राष्ट्रपति महोदय, मोर बायान ब्रह्मा, बिष्णु, महेष के आघु म होही। अब एक प्रबन्ध कइ देवौ।”

“मैंह केहेव, जब माया आप त्याग दे हव, त अतेक अकन माया आप अऊ काबर चाहत हव ?”

ओकर जवाब रिहिस, “मैंह माया त्याग दे हवँ, फेर माया मोला फँसाये हे। वोह कथे-पन्द्रह हजार लेव।”

मैंह केहेंव-आप खुद माया के फांदा म परत जात हव। एला काट डारौ निलौम के चाकू ले।

वोह किहिस, “कुछु हो जय, मैंह राष्ट्रपति ले न्याय करवाहूँ।”

 ब्रह्मा, विष्णु, महेष न्यायाधीष होही। तीनो झन ला राष्ट्रपति बलावय। मैं अपन केस इँकर मन के आघू म ही रखहूँ।

मैंह केहेंव, “पृथ्वी अउ स्वर्ग म डाक-तार सम्बन्ध अभी नइहे। राष्ट्रपति ब्रह्मा, विष्णु, महेष ला ‘सम्मन’ कइसे भेजही ? वो देव मन इहाँ नइ आ सकै। एके ठन रद्दा हे।” 

वोह किहिस, “का ?”

मैंह केहेंव, “आप ला संग म धर के राष्ट्रपति स्वर्ग जावै अउ ब्रह्मा, विष्णु, महेष के आघु म आपके केस ला रखै।”

वोह किहिस, ‘महूँ ला जाये बर परही ?’

मैंह केहेंव, “हव। फेर उहाँ ले कोनो वापस नइ लहूटय। कहूँ पन्द्रह हजार के ‘क्लेम’ ला मान भी ले जाही

त ओकर ‘पेमेण्ट’ पृथ्वी म होही या उहाँ होही ? पुनर्जन्म कहूँ होवत होही त कोनो कुकुर, कोनो सुरा बना दे जाथे। कोनो ठीकाना नइहे, आप का बना दे जाहू। त वो पन्द्रह हजार का काम के ?”

वोह किहिस, “मने महूँ ला जाए बर परही ? (घबराहट) मैंह केहेंव, ”हव नइ जाबे त बयान को दिही ? फेर स्वर्ग म सुखे-सुख। आप तो विरागी अव! उहें राहों।”

ओला फिकर होगे। भजन बंद होगे। ‘हरे राम, रहे कृष्ण’ बंद। किहिस, बात असइन आय की ए भुइयाँ म कुछ बच्छर रहना हे। कुछ बूता घलो करना हे। देह छोड़े के इच्छा नइहे।”

मैंह केहेंव, “बहुत रहि लेस। देह तो पाप के खदान आय। पाप छूट जाय त का हर्ज हे ? पर एक बात हे।”

वोह पूछिस, “का ?”

“मैंह केहेंव, राष्ट्रपति ह आपके संग ब्रह्मा, बिष्णु, महेष करा नइ जावै। महूँ नइ चाहवँ। कोनो भी नइ चाहय। आप ला अकेल्लच जाए बर परही। राष्ट्रपति चिट्टी शायद लिख दे।”  

“वोह किहिस, मोर ख्याल रिहिस की मोर ए चिट्ठी ले राष्ट्रपति के दिल पिघल जही अउ वोह बाँचे नौ हजार ला देवा दिही। मोर बिनती ए नोहे की वोह ब्रह्मा, बिष्णु, महेष करा जाये। बस नौ हजार अउ देवा दे।”

मैंह केहेंव, “ए चिट्ठी ला राष्ट्रपति के सचिव ह चीर के फेंक दिही अउ कलेक्टर ला खभर करही की ए आदमी के दिमाग खराब होगे हे। एक ऊपर निगरानी रखे जाय। कहूँ कोनो अपराध झन कर बइठे।”

वोह घबरइस। किहिस, “अरे बाप रे, अइसन होही ? मोर पाछू पुलिस पर जही ?”

मैंह केहेंव, “अइसनेच्च होथे। कानून ए।”

भक्ति ला भुलागे। परमेष्वर ओकर अनचिन्हार होगे।



ब्रह्मा, बिष्णु, महेष कोन आय, एला वोह भूला गे रिहिस। मोर ख्याल से, येह अध्यात्म म चले गे-हे अंउ एकर दिमाग घलो गड़गड़ हो-गे-हे।

फेर मोर अन्दाज गलत रिहिसे। वोह समान्य ही रिहिसे। वोह किहिस, “त ए चिट्ठी ला राष्ट्रपति ला नइ भेजवँ ?”

मैंह केहेंव, “कभू नही।”

वोह किहिस, “आप काहत हव, त नइ भेजवँ। फेर आपसे बात करना हे। बहुत प्राइवेट हे।”

भजन बन्द। राम, कृष्ण कोनो नही। ब्रह्मा, बिष्णु, महेष ला वोह बिसर डरे रिहिसे। नर्क म घलो होही तभो ले कोनो मतलब नइहे। मैंह केहेंव, “कुरिया म मैं अउ आप दूनो झन हन। जउन बात करना हे, बिना झिझक के करन।”

अब उँकर ईष्वर कोनो करा गँवा गे रिहिस। मिलत नइ रिहिस। नौ हजार चेतना म ईष्वर के खाली ‘सीट’ उप्पर बइठ गे रिहिसे।

वोह भक्त जरूर रिहिसे, पर चद्दर ले बदबू कम आये ला धर ले रिहिसे।

किहिस, “अब तो ए मामला दिल्ली म ही तय होही। आप दिल्ली जावत रहिथव। कतनो संसद सदस्य मन ले आपके बढ़िया सम्बन्ध हे। सुने हवँ मन्त्री मन ले घलो आपके सम्बन्ध हे। आप कोषिष करहू ते मामला तय हो सकथे। मोला बाँचे नौ हजार मिल सकथे।”

“मैंह केहेंव, मैं कोषिष करहूँ, जरूर कहूँ की आपके नौ हजार, जेला आप अपन ‘क्लेम’ कहिथव आप ला मिल जाये।”

वोह किहिस, “बस मोला सिरिफ आपे उपर भरोसा हे। इही पाय के मैं आये हवं। मैं ईष्वर ला अउ आप ला दूए झिन ला मानथवं। आपो करूणा सागर अव।”

चद्दर के बदबू पहिली ले कम होगे रिहिस।





मैंह केहेंव, “मगर आपके परम हितैषी ब्रह्मा, विष्णु, महेष कुछु नइ कर पाही नौ हजार देवाये मे ?”

“वो किहिस, ओला छोड़ौ। आपे मोर ब्रह्मा, विष्णु, महेष अब। आपे ए बूता ला करवाव।”

चन्दन पुँछ गे रिहिसे।

जऊन हर क्षण ईष्वर के नावं लेवय, वोह अब एको घाँव इेष्वर के सुरता नइ करत रिहिस।

किहिस, ”बस मामला ला मैं आप उपर छोड़ दे हवं। आपके बड़े-बड़े ‘सोर्स’ हे। आप ए बूता ला करवई लेखे। अब मोर गाड़ी के बेरा होवत हे। मै चलत हवँ।”

मैंह पूछेवं, ”भोजन ?”

वोह किहिस, ”भोजन तो मैं स्वास्थ्य के ख्याल से एके घाँव करथवँ।”

मैंह भाँचा ले केहेंव, ”एकर बर स्टेषन तक के रिक्षा कर दे। रिक्षा वाला के किराया ला तिंही हा दे देखे।”

वोह किहिस, ”अरे, आप कइसे बात करथव ? आप रिक्षा के किराया दुहू ?”

मैंह केंहेव, ”हव, आप मोर घर आयेव। कृपा करेव। आप मोर मेहमान अव। मोर कर्तव्य ए येह।”

रिक्षा म वोह बइठिस। भाँचा ला केहेंव, ”भाँचा, तैं थोकिन इहां ले चल दे।”

भाँचा चल दीस।

तब वोह मोर कान म किहिस, अगर आप नौ हजार देवा देहू, त तीन हजार म आप ला दे देहूँ। वन थर्ड।

मोला बिजली के झटका लगीस। एकर मन म मोर का छवि हे!

भक्ति, सन्तत्व, निर्लोभ, माया हीनता, विराग, मिथ्या





जीवन ले हम कहंा तक आ गे रेहेन।

मैंह ओला जवाब नइ देंव।

रिक्षावाला ले केहेंव, ”तोला किराया मिलगे।

गाड़ी के टाइम होवत हे। जल्दी स्टेषन पहुँचा दे।”

मैंह ओकर ‘नमस्कार’ के जवाब घलो नइ देंव।

मोला होष नइ रिहिस। फेर कुरिया म बइठ के गुनत 

रेहेंव की भक्त, सन्त मोला कइसे समझये।

येह मोला नही, जमाना के चरित्र ला समझथे।

चदरिया मइलाहा ओढ़थे।

जस-के-तस रखना चाहथे। जीवन-भर उही चदरिया,

उही ढंग ले ओढ़िस। फेर जाये के बखत बदबू काफी कम रिहिसेः

    दास कबीर जतन से ओढ़ी

    धोबिन को नहिं दीन्ही चदरिया!














सदाचार के ताबीज

एक ठन राज्य म हल्ला मचगे की भ्रष्टाचार बहुत बगर गे-हे। राजा ह एक दिन दरबारी मन ले किहिस, ”प्रजा बहुत हल्ला मचावत हे की सब जगह भ्रष्टाचार बगरे हे। हमला तो आज तक ले नइ दिखिस। तुमन ला कोनो मेर दिखे होही त बताव।”

दरबारी मन किहिस, जब हुनर ला नइ दिखिस त हम्मन ला कइसे दिख सकथे ? ”नही अइसन नोहे। कभू-कभू जउन मोला नइ दिखै, वोह तुमन ला दिखत होही। जइसे मोला खराब सपना कभू नइ दिखै फेर तुमन ला तो दिखत होही।”

दरबारी मन किहिन, ”जी, दिखथे। फेर वोह सपना के बाद आय।”

राजा ह किहिस, ”तभो ले तुमन सब्बो राज्य म खोज के देखो की कोनो मेर भ्रष्टाचार तो नइहे। कइूँ कोनो जघा मिल जही त हमर देखे बर नमूना लेवत आहू। महूं तो देखौं की कइसन होथे।”

एक झिन दरबारी ह किहिस, ”हुजूर वोह हम्मन ला नइ दिखही। सुने हव वोह बहुत बारीक होथे। हमर आँखी ला आपके विराटता देखे के अतेक आदत परगे हे तिही पाये के हमला बारीक चीज नइ दिखे। हम्मन ला कहूं भ्रष्टाचार दिखगे त ओमे हम्मन ला आपे के तस्वीर दिखही काबर की हमर आँखी म तो आपे के सूरत बसे हे। वोइसे हमर राज्य म एक जाति रथे जेला ‘विषेषज्ञ’ कहिथे। एक जाति करा कुछ अइसे काजर रहिथे जेला आँखी म आँज के उमन बारीक चीज ला घलो देख लेथे। मोर बिनती हे की ये विषेषज्ञ मन ला ही हुजूर भ्रष्टाचार खोजे के बूता ला सौंपो।”







राजा ह ‘विषेषज्ञ’ जाति के पाँच झिन मनखे ला बला के किहिस, ”सुने हवं हमर राज्य म भ्रष्टाचार हे। वोइसे वोह कहाँ हे, पता नइ चलय। तुमन उँकर पता लगावत। अगर मिल जही त पकड़ के मोर करा लाहू। अगर बहुत अकन होही त नमूना बर थोकिन ले आहू।”

विषेषज्ञ मन उही दिन ले छान-बीन शुरू कर दीन।

दू महीना बाद उमन फेर दरबार म हाजिर होइन।

राजा ह पूछिस, ”विषेषज्ञ हो, तंुहर जाँच पूरा होगे।”

”जी सरकार।”

”का तुमन ला भ्रष्टाचार मिलिस ?”

”जी, बहुत अकन मिलिस।”

राजा ह हाथ लमइस, ”ला तो, मोला देखाव। देखवँ कइसन होथे।”

विषेषज्ञ मन किहिस, ”हुजूर, वोह हाथ के पकड़ म नइ आय। वोह मोटा नही बारीक हे, गुप्त हे। वोइसे वोह सबो जघा व्याप्त हे। ओला देखे नइ जा सकै, अनुभव करे जा सकत हे।”

राजा ह सोच म परगे। किहिस, विषेषज्ञ हो, तुमन कहिथव की वोह बारीक हे, गुप्त हे अउ सर्वव्यापी है। ये गुन तो ईष्वर के आय। त का भ्रष्टाचार ईष्वर आय?

विषेषज्ञ मन किहिन, ”हव, महाराज, अब भ्रष्टाचार ईष्वर हो-गे-हे।”

एक झिन दरबारी ह पूछिस, ”वोइसे वोह हे कहाँ ? कइसे अनुभव होथे ?”

विशेषज्ञ मन जवाब दिन, ”वोह सबो जघा हे। वोह ए भवन म घलो हे। वोह महाराज के सिंहासन म हे।”

”सिंहासन म हे” ....... कहिके राजा साहब कूद के दूरिया म खड़ा होगे।

विषेषज्ञ मन किहिन, ”हव, सरकार, सिंहासन म हे। पिछले महीना ए सिंहासन ला रँगाय बर जउन बिल के भुगतान करे गे-हे वो”




बिल फर्जी हे। वाह वाजिब म दुगुना दाम के आय। आधा पइसा ला बीच वाले मन खा-गे। आपके पूरा शासन म भ्रष्टाचार हे अउ वहू खासकर घूस के रूप म हे।”

विषेष ज्ञमन के बात सुन के राजा ला फिकर हो-गे अउ दरबारी मन के कान खड़ा होगे।

राजा ह किहिस, ”येह तो बड़ चिन्ता के बात आय। मैं भ्रष्टाचार बिल्कुल मिटाना चाहत हवं। विषेषज्ञ हो, तुमन बता सकथों की वोह वइसे मिट सकथे ?”

विषेषज्ञ मन किहिन, ”हव महराज, हम्मन ओकरो बर योजना तैयार करे हन। भ्रष्टाचार मिटाए खातिर महाराज ला व्यवस्था म बहुत परिवर्तन करे बर परही। एक तो भ्रष्टाचार के मौका ला मिटाये बर परही। जइसे ठेका हे त ठेकादार हे। अउ ठेकादार हे त अधिकारी मन बर घूस हे। ठेका मिट जही तहान ओकर घूस मिट जही। अइसने किसन ले अउ कतनो अकन चीज हे। का कारण से आदमी घूस लेथे, एहा गुने के बात आय।” 

राजा ह किहिस, ”अच्छा, तुमन अपन सब्बो योजना ला मढ़ा के जावौ। हम अउ हमर दरबार ओकर उपर विचार करिंगे।”

विषेषज्ञ मन चल दीन।

राजा अउ दरबारी मन भ्रष्टाचार मिटाए के योजना ला पढ़िन। ओकर उपर विचार करिन।

गुनत-गुनत दिन बीतत गीस अउ राजा के तबियत खराब होय ला धर लीस। एक दिन एक झिन दरबारी ह किहिस, ”महाराज, चिन्ता के सेती आपके तबियत बिगड़त जावत हे। वो विषेषज्ञ मन आप ला झंझट म डार दिन।”

राजा ह किहिस, ”हव, मोला रतिहा नींद नइ आवै।”

दूसर दरबारी किहिस, ”अइसन रिपार्ट ला आगी म डार देना चाही जेकर ले महाराज के नींद म बाधा परय।” 

राजा ह किहिस, ”फेर करन का ? तहूं मन घलो भ्रष्टाचार मिटाये के योजना ला पढ़े हव। तंुहर मन के का मत हे ? का ओला काम म लाना चाहिए ?”


दरबारी मन किहिन, ”महाराज, वो याकजना का ए, एंक ठन मुसिबत आय। ओकर मुताबिक तो कतनो उलट-फेर करे बर परही। कतेक परेषानी होही! सबो व्यवस्था ह उलट-पुलट हो जही। जउन चले आवत हे, ओला बदले म नवा-नवा परेषानी पैदा हो सकत हे। हमला तो कोनो अइसे उदीम चाहि जेकर ले बिना कुछु उलट-फेर करे भ्रष्टाचार मिट जाय।”

राजा साहब किसिह, ”महू इही चाहत हवं। फेर ये होय कइसे ? हमर परदादा ला तो जादू आवत रिहिसे; हमला तो वहू नइ आय। तहूँ मन कोनो उपाय खोजो।”

एक दिन दरबारी मन राजा के आघु म एक झिन साधु ला खड़ा करिन अउ किहिन, ”महाराज, एक ठन कुन्दरा म तपस्या करइया ए महान साधक ला हम्मन लाए हन। एहा सदाचार के ताबीज बनाय हे। वो कतनो मंत्र ले सिद्ध हे अउ ओकर बाँधे ले आदमी एकदम सदाचारी हो जथे।”

साधु ह अपन झोरा ले एक ठन ताबिज निकाल के राजा ला दीस। राजा ह ओला देखिस। किहिस, ”हे साधु , ए ताबीज के बारे म मोला विस्तार ले बताव। एकर ले आदमी सदाचारी कइसे हो जाथे ?”

साधु ह समझइस, ”महाराज भ्रष्टाचार अउ सदाचार मनखे के आत्मा म होथे, बाहिर म नइ होय। विधाता जब मनखे ला बनाथे तब काकरो भी आत्मा म ईमान के मषीन फिर कर देथे अउ काकरो आत्मा म बेईमानी के। मषीन ले ईमान अउ बेईमानी के स्वर निकलथे, जेला ‘आत्मा के पुकार’ कहिथन। आत्मा के पुकार के मुताबिक ही मनखे काम करथे। सवाल ए हे की जेकर आत्मा ले बईमानी के स्वर निकलथे, ओला दबा के ईमान के स्वर कइसे निकले जाय ? मैं कहनो बछर ले एकरे चिन्तर म लगे हवँ। मैंह सदाचार के ताबीज बनाय हवं। जउन मनखे के बाँह म एहा बंधाही, वोह सदाचारी हो




जही। मैंह कुकुर उपर घलो सम्मा देखे हवँ। ए ताबीज ला टोटा म बाँधे ले कुकुर घलो रोटी नइ चोराय। बात अइसन आय की ए ताबीज ले घलो सदाचार के स्वर निकलथे। जब काकरो आत्मा बेईमानी के स्वर निकाले बर धरथे त ए ताबीज शक्ति ह आत्मा के गला ला घोंट देथे तहान आदमी ला ताबीज के स्वर सुनई देथे। वोह ए स्वर मन ला आत्मा के पुकार समझ के सदाचार डाहर प्रेरित होथे। इही ए ताबीज के गुण ए महाराज!”

दरबार म हो-हल्ला मचगे। दरबारी मन उठ-उठ के ताबीज ला देखे बर धर लीन।

राजा खुष होके किहिस, ”मैं नइ जानत रेहेंव की मोर राज्य म अइसन चमत्कारी साधु घलो हे। तपस्वी, हम आपके बहुत आभारी हन। आप हमर संकट ला हर लेव। हम्मन र्स्वव्यापी भ्रष्टाचार ले बहुत परेषान रेहेन। मगर हमला लाखो नही बल्कि करोड़ो ताबीज चाहि। मै राज्य डाहर ले ताबीज बनाए बर एक ठन कारखाना खोल देथवँ। आप ओकर जनरल मैनेजर बन जाव अउ अपन देख-रेख म बढ़िया ताबीज बनवाव।”

एक झन मंत्री ह किहिस, ”महाराज, राज्य काबर संकट म परै ? मोर तो बिनती हे की साधु बाबा ला ठेका दे-दे जाए। वोह अपन मण्डली ले ताबीज बनवा के राज्य ला सप्लाई कर दिही।”

राजा ला ए सलाह पसन्द अइस। साधू ला ताबीज बनाए के ठेका दे-दे गीस। तुरंते ओला पाँच करोड़ रूपया कारखाना खोले बर एडवान्स मिलगे।

राज्य के अखबार मन म समाचार छपिस-, ‘सदाचार के ताबीज के खोज। ताबीज बनाए के कारखाना खुलिस!’

लाखो ताबीज बनगे। सरकार के आदेष ले हर सरकारी कर्मचारी के बाहाँ म एक-एक ताबीज बाँध के गीस।

भ्रष्टाचार के समस्यिा के अइसे सरल हल निकले ले राजा अउ राजदरबारी सब खुष रिहिन।


एक दिन राजा के मन म उत्साह जागिस। सोंचिस-‘देखवँ तो का एक ताबीज कइसे काम करथे।’

वोह वेष बदल के एक ठन कार्यालय गीस। वो दिन दू तारीख रिहिस। एक दिन पहिली तनख्वाह मिले रिहिसे।

वोह एक झन कर्मचारी करा गीस अउ कई ठन बूता बता के वोला पाँच रूपया के नोट दे ला धरिस।

कर्मचारी ह ओला खिसियइस, ‘भागो इहाँ ले! घूस लेना पाप हे।’

राजा बहुत खुष होइस। ताबीज ह कर्मचारी ला ईमानदार बना दे रिहिस।

कुछ दिन बाद फेर वेष बदल के उही कर्मचारी करा गीस। वो दिन इकतीस तारिख रिहिस-महीना के आखिरी दिन।

राजा ह फेर ओला पाँच के नोट देखइस, वोह ओला घर के जेब म रख लीस।

राजा ह ओकर हाथ ला पकड़ लीस। किहिस, ”मैंह तोर राजा अवँ। का तेहा आज सदाचार के ताबीज बाँध के नइ आए हस ?”

”बाँधे हवँ, सरकार, एदे देख ले!”

वोह आस्तीन चढ़ा के ताबीज ला देखा दीस।

राजा असमंजस म परगे। फेर अइसे कइसे होगे ?

वोह ताबीज म कान टेका के सुनिस। ताबीज ले स्वर

निकलत रिहिस - “अरे, आज इकतीस ए। आज तो ले लो!”









ईमानदार मन के सम्मेलन म

मैं हलफिया काहत हवँ, मैंहा बिल्कूल बेकसूर हवँ। मैंह कभू अइसन कुछू करेच नइ हवँ, जेकर ले ईमानदार माने जावँ कोन जनी ओला करसे ए भोरहा होगे की मैंह ईमानदार हवँ। मोला चिट्ठी मिलिस “हम्मन ए शहर म एक ईमानदार सम्मेलन करत हन। आप देष के नाम्ही ईमानदार अव। हमर विनती हे की आप ए सम्मेलन के उद्घाटन करव। दोनो दिन ईमानदारी उपर गोष्ठी घलो हे। आप कृपा करके पहिली गोष्ठी के अध्यक्षता करव अउ दूसर गोष्ठी मन के गोठ बात म भाग लेवव। हम्मन आपके अवई‘-जवई के पहला दर्जा के किराया दिंगे अउ आवास, भोजन आदि के बढ़िहा बेवस्था करिंगे। आप जानत हव, अभी देष मेब बड़ रफ्तार ले सामाजिक बदलाव होवत हे। अभीन देषवासी मन म ईमानदारी के चेतना जगाना बहुत जरूरी हे। अइसन नजर म ए सम्मेलन राष्ट्रीय महत्व के होही। आपके आए ले ईमानदार अउ नवा-नवा ईमानदार मन ला बड़ प्रेरणा मिलही।”

जब ईमानदारी लदइच गे तब मैं गेंव। तभो ले फेर हलफिया काहत हवँ की ईमानदारी बर नइ गे रेहेंव। ईमान ले मोला कुछू लेना देना नइहे। मै ए हिसाब लगा के गेंव-

दूसरा दर्जा म जाहूँ अउ पहला के किराया लुहूँ। अइसन करे ले एक सौ पचास रूपय बाँचही। अउ चाय, नाष्ता, भोजन तीन दिन ले फोकट म खाए बर मिलही, मने ये लगभग तीस रूपया होइस। अइसन तरीका ले एक सौ अस्सी रूपया नगद कमई होही। येह बेईमानी कहाही। वोइसे उमन मोला राष्ट्रीय स्तर के ईमानदार माने के काबर ? 

जाने माने ईमानदार बेईमानी नइ करही, ते वोह दू कौड़ी के ईमानदार होइस।

स्टेषन म मोर बहुत स्वागत होइस। लगभग दस ठन बडे़ब-बड़े फूल-माला पहिनइन। गुनेेंव, तीन-तखार म कोनो माली होतिस ते फूल-माला ला घलों बेच देतेंव।


मोला होटल के एक ठन बड़के-जन कमरा म रूकवाए गीस। उहां तीन ठन बिस्तर रिहिस। मजबूत ताला वो आयोजक मन खुदे ले आये रिहिन। होटल के ताला के का भरोसा! वइसे भी सम्मेलन रिहिस ईमानदान मन के। सच्चा ईमानदार वो होथे जउन सबला बेईमान मान के चले। मोर कमरा के डेरी अउ आघु म दू ठन हाल रिहिसे, जेमा लगभग तीस-पैंतीस प्रतिनिधि मन रूके रिहिन हे। मोर दू झिन ईमानदार संगवारी मन घलो मोरे कमरा म आ गे। बिस्तर वोइसे भी तीन ठन रिहिसे। मैं गुनेंव, ताला लगाये जाही त इमन ला तकलीफ होही। मैंह ताला नइ लगायेंव।

सम्मेलन तो ईमानदार मन के रिहिसे, त ताला काबर लगाय जाय ? मैंह देखेंव, चोर मन के सम्मेलन तक म ताला नइ लगाय जाय। चोर अपन चोरहा संगवारी मन के चोरी नइ करय।

उद्घाटन जोरदार होइस। मैंह लगभग ए घन्टा तक अइसे जोरदार भाषण देंव की मोला अब तक ले सरम आवत हे। 

लोगन मन जा चुके रिहिन हे। मैं रेहेंव मुख्य अतिथि। लोगन मोर सन गोठियावत रिहिन हे। मैं रेंगे के बेर चप्पल पहिरे बर गेंव। देखेंव मोर चप्पल गायब होगे रिहिसे। नवा अउ बढ़िया चप्पल रिहिसे। अब वो मोर एक जोड़ी फटे-जुन्ना चापल बाँचे रिहिसे। मैं उही ला पहिन लेंव। देखते-देखत ए बात बगर गे की मोर नवा चप्पल ला कोनो पहिर के लेगे हे।

एक झन ईमानदार डेलीमेट मोर कमरा म अइस। वोह किहिस, “का आपके चप्पल ला कोनो पहिर के लेगे हे ?”

मैंह केहेंव, “हव अतेक बड़ जलसा म चप्पल मन के अदला-बदली होई जथे।” ताहन मैंह ध्यान से देखेंव, ओकर पाँव म मोर चप्पल रिहिसे। बहू ह मोरो चप्पल ला देखत रिहिसे। असइे लागत रिहिसे की वो चप्पल ह ओकरे रिहिसे।

तहान वोह मोला निसंकोच समझाए ला धर लीस,



 

“देखो, चप्पल मन ला एक जघा नइ उतारना चाही। एक ठन ला इहाँ उतार, त दूसर ला दस फीट दूर। तब चप्पल चोरी नइ होए। एके जघा जोड़ी रिही, न कोनो भी पहिन लिही। मैंह अइसनेच करे रेहेंव।”

मैंह देखत रेहेंव की वो मोर चप्पल ला पहिरे रिहिसे अउ मुही ला समझावत रिहिसे।    

मैंह केहेंव, “कोनो बात नही। बिहनिया दूसर बिसा लहूँ। आपके चप्पल नइ गीस, एहा गनिमत ए।”

फेर मैंह देखेंव एक बिस्तर के चद्दर गायब हे। मैंह आयोजनकर्ता मन ले केहेंव, त उमन जवाब दिन, “होटल वाले मन ओला धोवाए बर भेज दे होही। दूसर आ जही।” फेर दूसर नइ अइस।

दूसर दिन गोष्ठी मन शुरू होइस। विषय बहुत बढ़िया रिहिसे: (1) ईमानदारी: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य म। (2) धर्म अउ ईमान। (3) बईमानी के सौन्दर्यषास्त्र। (4) ईमानदारी अउ आधुनिकता।

सबले ऊंचा स्तर के गोठ-बात होइस ईमानदारी के सौन्दर्यषास्त्र उपर। श्रोता मन बिक्कट तारीफ करिन की ईमानदार मन के सम्मेलन म बेईमानी के सौन्दर्यषास्त्र उपर गोठ-बात बहुत जरूरी रिहिसे। येह एक ठन बहुत बड़े उपलब्धि आय।

रात कन गोष्ठी मन ले लहूटेंव। देखेंत की दू ठन अऊ चद्दर गायब रिहिसे। तीनो चले गे।

मोर करा दू-तीन झन ईमानदार मन अइन। किहिस, “हमर शहर म ईमानदार महासंघ के शाखा नइहे। हम्मन अपन किराया करके आए हन। इहां ए आयोजक मन हमर मन ले दस-दस रूपया ले के हम्मन ला डेलीगेट बनाये हे। अउ हमर अधिकार कुछू नइहे।”

मैंह केहेंव, “अधिकार काबर नइहे? तीन दिन ले खाए अउ रेहे के अधिकार हे आप मन ला। अउ आप मन ला चुनाव म भाग ले के अधिकार हे। जब अतेक दूरिया ले आए हव त कुछू बन के जावव-मन्त्री, उपमन्त्री नहीे ते कम से कम


कार्यकारिणी के सदस्य बनके जावव। सम्मेलन म आके बिना कुछू बने नइ लहूटना चाही।”

दूसर दिन बइठक म जाये बर घाम के चष्मा ला खोजेंव ला धरेव, त नइ मिलिस। संझा कन के ताय।

मैह एक दू झन ला केहेंव, त बात बगरगे।

ठउँका ओतके बेर बाजू के कमरा म हल्ला होइस, “अरे, मोर ब्रीफकेस कहाँ चल दिस ? इसी मेर तो रखे रेहेंव।”

मैं पूछंेव, “ओमा पइसा-कउड़ी तो नइ रिहिसे ?”

जवाब मिलिस, “पइसा-कउड़ी नइ रिहिसे। कागजात रिहिसे।”

मैंह केहेंव, “त मिल जही।”

मैंह बिना घाम के चष्मा पहिरे बइठक म पहंुच गेंव। बइठक म पन्द्रह मिनट चाय के छुट्टी होइस। लोगन मन संग देखइन। एक झन सज्जन अइस। किहिस, “बिक्कट चोरी होवये। देखव, आपके घाम के चष्मा घलो चले गे।”

वोह घाम के चष्मा लगाए रिहिसे। मोला सुरता रिहिस एक दिन पहिली वोह घाम के चष्मा नइ लगावत रिहिसे। मैंह देखेंव, जउन चष्मा वोह लगाए रिहिसे, वोह मोरे रिहिसे-करिया मोला फ्रेम के। फेर वोह बिना डर-हितास के मोर आघु म बइठे रिहिसे।

किहिस, “आप चष्मा नइ लगाए रेहेव ?”

मैंह केहेंव, “रतिहा कन चाँदनी म घाम के चष्मा लगाए जाथे का ? मैंह कमरा म टेबिल उपर रख दे रेहेंव।”

वोह किहिस, “कोना उठा के लेगे होही।”

मैं ओला देखत रेहेंव अउ वोह मोर चष्मा लगाए निष्चिंत बइठे रिहिसे। बेईमानी के सौन्दर्यषास्त्र वोह बढ़िया समझगे रिहिसे।

कोनो बात नही, आयोजक मन मोला एक ठन चष्मा बिना के दे दिन।



तीसर दिन रात कन लहूटेंव, त कुछ हरारत रिहिसे। थोकिन ठण्ड घलो रिहिसे मैंह सोचेंव, बिस्तर ले कम्बल निकला लवँ। फेर कम्बल गायब रिहिसे।

फेर हल्ला होइस। स्वागत समिति के मन्त्री अइस। कई झन कार्यकर्ता अइन। मन्त्री कार्यकर्ता मन ला खिसियाए ला धरिस, “तुमन का करत हव ? तुँहर ड्यूटी इहाँ हे। तुँहर राहत ले चोरी होवत हे। येह ईमानदार सम्मेलन ए। बाहिर ए चोरी के बात हा बगरही ताहन कतना बदनामी होही ?”

कार्यकर्ता मन किहिस, “हम्मन का करबोन ? अगर सम्मानीय डेलीगेट एती-ओती जाही त का हम्मन उमन ला रोक सकथन ?”

मन्त्री ह खिसिया के किहिस, “मैंह पुलिस ला बला के सबके तलाषी करवा हूँ।”

मैं समझायेंव, “अइसन बिल्कुल झन करव। ईमानदार मन के सम्मेलन म पुलिस ईमानदार मन के तलाषी ले येंह शोभा नइ दिही। वोइसे अतना बड़ सम्मेलन म एकाद कनिक गड़बड़ी तो होबे करही।”

एक झन कार्यकर्ता ह किहिस, “तलाषी काकर करवाबे। लगभग आधा डेलीगेंट मन तो किराया ले मंझनिया कन ही वापस चले गे-हे।”

कोनो किहिस, “मोला तो शक हे उँकर उपर, जउन हमर संगठन म नइहे अउ इहाँ दस रूपया देके डेलिगेट बने हे।”

संयोग से दस रूपया वाला एक झिन डेलीगेट उही मेर बइठे रिहिस। वोह गुस्सा म बगिया के किहिस, “हम्मन ला का आप बेईमान समझथव ? हम का रहाँ चोरी करे बर आये हन ? आप मन अखबार म काबर विज्ञप्ति छपवायेव की हम्मन आ सकथन अउ दस रूपया देके डेलीगेट बन सकथव ? हम्मन कभू नइ आतेन। मोर अपन पानी के कुप्पी ना चोरा के लेगे। मोर संगवारी के थैली ले पचास रूपिया चोरी होगे। मोला तो अइसे लागथे की आप मन सम्मेलन एकरे सेती बलवाए हव की डेलीगेट मन के चोरी करवा लेना तलाषी अपन करवाव।”



बड़ मुष्किल से मैंह ओला समझायेंव।

रात कन पहिने के कपड़ा ला मुड़सरिया म दबा के सुतैव।

नवा चप्पल अउ शेविंग के डब्बा ला बिस्तर के खाल्हे दबायेंव।

बिहनिया मोला लहूटना रिहिसे। 

मोला उमन बिक्कट अकन पइसा दिन। मैंह समान बाँधेव।

मन्त्री ह किहिस, “परसाई जी, गाड़ी आए म देरी हे। चलव, स्वागत समिति के संग बढ़िया होटल म भोजन हो जाय। अब ताला लगा देथन।”

फेर ताला घलो गायब रिहिसे। ताला तक ला चोरा लीन। गजब होगे।

मैह केहेंव, “रिक्षा बलवाव। मैंह सीधा स्टेषन जाहूँ। इहाँ नइ रूकवँ।”

“मन्त्री हैरान रिहिस। किहिस, अइसन घलो का नराजगी हे ?”   

मैंह केहेंव, “नराजी एकोकनी नइहे। बात ए आय की सबो चीज के चोरी होग। ताला तक चोरी होगे। अब मैंह बाँचे हवँ। अगर रूकेंव त युही ला चोरा के लेग जही।”














भोला वाम के जीव

अइसन कभू-नइ होय रिहिसे।

धर्मराज ह लाखों साल ले कतनों मनखे मन ला कर्म अउ सिफारिष के आधार म स्वर्ग नइ ते नरक म रेहे के स्थान ‘अलाट’ करत आवत हे। वोइसे अइसन कभू-नइ होय रिहिसे।

आघु म बइठे चित्रगुप्त ह घेरी-बरी चष्मा पोछ के, घेरी-बेरी थूक ले पन्ना पलट-पलट के रजिस्टर के बाद रजिस्टर देखत रिहिसे। गलती पकड़ेच म नइ आवत रिहिसे। आखिर वोह खोज के रजिस्टर ला अतना जोर से बन्द करिस की माछी ह चपेट म आ-गे। ओला निकालत किहिस, “महाराज, रिकार्ड सब ठीक हे। भोलाराम के जीव हे पाँच दिन पहिली देह ला छोड़िस अउ यमदूत के संग ए लोग बर खाना घलो होइस, फेर इहाँ अभी तक ले नइ पहुँचे हे।”

धर्मराज ह पूछिस, “अउ वो दूत कहाँ हे ?”

“महारज, वहू लापता हे।”

इही सभे कपाट खुलिस अउ एक झिन यमदूत ह बड़ा हलाकान होके उहाँ अइस। ओकर वाजिब अरकरहा थोथना ह मेहनत, तकलीफ अउ डर के खेती अउ जादा बिगड़ गे रिहिसे। ओला देखते मार चित्रगुप्त ह भड़क के उठगे, “अरे, ते कहाँ रेहे अतेक दिन ? भोलाराम के जीव ह कहाँ हे ?”

यमदूत ह हाथ जोड़ के किहिस, “दया निधान, मै कइसे बनाववँ की का होगे। आज तक मैंह धोखा नइ खाए रेहेंव, फेर भोलाराम के जीव मोला चकमा दे दीस। पाँच दिन पहिली जब जीव हे भोलाराम के देह ला त्यागिस, तब मैंह ओला पकड़ेव अउ ए लोक के यात्रा के शुरूआत करेंव। नगर के बाहिर जइसने मैं ओला धरके एक तेज वायु तरंग उपर




सवार होयेंव वोइसने ओहा मोर चंगुल ले छूट क कोन जनी कहाँ गायब होगे। ए पाँचो दिन म मैंह सरबस ब्रह्माण्ड छान मारेंवंे, फेर ओकर कहूँ पता नइ चलिस।”

धर्मराज खिसिया के किहिस, “मुर्ख! जीव मन ला लावत-लावत डोकरा होगेस, तभो ले एक झन मामूली डोकरा आदमी के जीव ह तोला चकमा दे दीस।”

दूत ह मुड़ी गड़िया के किहिस, “महाराज, मोर सावधानी म कोनो कसर नइ रिहिसे। मोर ए घांठा मरे हाथ ले अच्छा-अच्छा वकील चलो नइ छूट सके। फेर ए पइत तो कोनो इन्द्रजाल होगे तइसे लागथे।”

चित्रगुप्त ह किहिस, “महाराज आजकल धरती म अइसन किसम के व्यापार बिक्कट चलत हे। लोग अपन संगवारी मन ला कुछु चीज भेजथे त ओला रद्दा म रेलवे वाले मन जतन लेथे। हॉजरी के पार्सल मन के मोजा ला तो रेलवे अफसर पहिनथे। मालगाड़ी के डब्बा-के-डब्बा रद्दा म कर जथे। एक बात अउ होवत हे। राजनैतिक दल मन के नेता विरोधी नेता ला किडनैप कर लेथे। कहूँ भोला राम के जीव ला तो घलो कोना विरोधी के मरे के बाद ओकर सति-गति करे बर तो किडनैप नइ करे हे ?”

धर्मराज ह ताना मारत चित्रगुप्त ला देखत किहिस, “तोरो घलो रिटायर होय के उम्र आ-गे-हे। भला भोलाराम जइसे बिन पुछारी के, गरीब आदमी ले कोनो ला का लेना-देना ?”

इही बखत कहूँ ले घुमत-घामत नारद मूनी उहाँ आ-गे। धर्मराज ला गुम-सुम बइठे देख के किहिस, “का धर्मराज, कइसे चिन्ता म बइठे हस ? का नरक म निवास-स्थान के समस्यिा अभी हल नइ होय हे ?”

धर्मराज ह किहिस, “वो समस्यिा तो कब के हल हो-गे-हे। नरक म बीते साल म बड़ गुनवान करीगर





आ-गे-हे। कतनो इमारत मन के ठेकादार हे, उजन मन पूरा पइसा लेके खराब इमारत बनाये हे। बड़े-बड़े इंजीनियर घलो आ-गे-हे, जेमन ठेकादार मन ले मिल के पंचवर्षीय योजना मन के पइसा खाय हे।  ओवर सीयार हे, जेमन बनिहार मन के हाजिरी भर के पइसा हड़पे हे, जउन कभू काम म गेच नइहे। इमन नकर म कतनो इमारत लान दीन। वो समस्यिा तो हल होगे, फेर एक ठन भारी उलझन आ-गे-हे। भोलाराम नाम के एक झन मनखे के पाँच दिन पहिली मृत्यु होइस। ओकर जीव ला ए दूत इहाँ लावत रिहिसे, फेर जीव एला रद्दा म चकमा दे के भाग-गे। एहा जम्मो ब्रह्माण्ड छान मारिस फेर वोह कहूँ नइ मिलीस। अगर अइसन होय ला धरिस त पाप-पूण्य के भेद हा घलो मेटा जही।”

नारद ह पुछिस,“ओकर उपर इनकमटैक्स तो बकाया नइ रिहिसे ? हो सकथे, उमन हा रोक ले होही।”

चित्रगुप्त हा किहिस, “इनकम होतिस त तो टैक्स हो तिस। भुखमर्रा रिहिस।”

नारद किहिस, “मामला बड़ा मजेदार हे। अच्छा मोला ओकर नाम, पता तो बताव। मैं धरती म जाथवँ।”

चित्रगुप्त ह रजिस्टर देख के बतइस, “भोलाराम नाम रिहिस ओकर। जबलपरु शहर म छमापुर मोहल्ला म नरवा के तीन एक-डेढ़ कुरिया के टूटहा-फूटहा मकान म वोह परिवार सहित राहत रिहिसे। ओकर एक झिन गोसइन, दू झिन बेटा अउ एक झिन नोनी रिहिसे। उम्र लगभग साठ साल। सरकारी नौकर रिहिसे। पाँच साल पहिली वो रिटायर होय रिहिसे। मकान के किराया ला वोह एक साल ले नइ दे रिहिसे, इही पाय के मकान मालिक ओला निकालना चाहत रिहिसे। अइसने म भोलाराम ह संसार ला छोड़ दीस। आज पाँचवा दिन आय। जादा सम्भावना






हे की कहूँ मकान-मालिक असली मकान-मालिक होही त वोह भोलाराम के मरे के बाद तुरते ओकर परिवार ला निकाल दे होही। इही पाय के आप ला परिवार के खोज म जादा घूमे बर परही।”

महतारी - बेटी के संघरा रोवई ला सुन के नारद भोलाराम के मकान ला चिन्ह डरिस। 

मुहाटी म जाके  वोह आवाज लगइस, “नारायण! नारायण!” नोनी ह देख के किहिस, “आघु डाहर आव महाराज!”

नारद ह किहिस, “मोला भिक्षा नइ चाही, मोला भोलाराम के बारे म कुछ पुछताछ करना हे। आज महतारी ला थोकिन बाहिर भेज, बेटी!”

भोलाराम के गोसइन बाहिर अइस। नारद ह किहिस, “माता, भोलाराम ला का बीमारी रिहिसे ?”

“का बताववँ ? गरीबी के बीमारी रिहिसे। पाँच साल होगे रिहिसे, पेंषन बर बइठे, फेर पेंषन अब तक ले नइ मिलिस। हर दस-पन्द्रह दिन म एक दरख्वास्त देवत रिहिये, फेर उहाँ ले एक तो जवाब आते इन रिहिसे अउ आतिस त इही की तोर पेंषन के मामला उपर विचार होवत हे। ए पाँच बच्छर म सब गाहना ला बेच के हम्मन खा डरेन। तहान बरतन बेचइस। अब कुछु नइइ बाँचे हैं फोकला होए ला घर ले रेहेन। चिन्ता-फिकर म घुरत-घुरत अउ भूख मरत-मरत वोह दम तोड़ दीस।”

नारद ह किहिस, “का करबे महतारी ? ओकर ओतनेच उम्र रिहिसे।”









“अइसन तो झन काहव माहराज! उम्र बहुत रिहिसे। पचास-साठ रूपय महीना पेंषन मिलतिस ते कुछू अउ बूता कहूँ करके गुजारा चल जातिस। फेर का करन ? पाँच बच्छर नौकरी ले बइठे होगे हे अउ अब तक एको कौड़ी नइ मिले हे।”

दुख के कथा सुने के फुरसत नारद ला नइ रिहिसे। वोह अपन मुद्दा म अइस, “महतारी, ए तो बताव की इहाँ काकरो ले ओकर खास प्रेम रिहिसे, जेमा ओकर मन लगे हो ?”

गोसइन किहिस, “लगाव तो महाराज, लोग-लइका मन ले ही होथे।”

“नही, परिवार के बाहिर घलो हो सकथे।”

मेर मतलब हे, कोनो माईलोगन - ”

माईलोगन ह आँखी ला नटेर के नारद डाहर देखिस।

किहिस, “बिना मतलब के गोठ झन करव महाराज! तेंहा साधु अस, उचक्का नोहस। जिनगी भर वोह कोनो दूसर नारी ला आँखी उठा के नइ देखे हे।”

नारद हाँस के किहिस, “हव, तोर ए सोचना ठीक ही हे। इही जम्मो बढ़िया गृहस्थी के आधार आय। अच्छा, महतारी मैं जाथवँ।”

माईलोगन किहिस, “महाराज, आप तो साधु अव सिद्ध पुरूष अव। कुछ अइसन नइ कर सकन की ओकर रूके पेंषन ह मिल जाय। ए लइका मन के पेट कुछ दिन भर जय।”

नारद ला दया आ-गे रिहिसे। वोह किहिस, “साधु मन के बात ला कोन मानाये ? मोर इहाँ कोनो मठ तो है नइहे। तभो ले मैं सरकारी दफ्तर म जाहूँ अउ कोषिष करहूँ।”

उहाँ ले चल के नारद सरकारी दफ्तर पहुंचिस। उहाँ शुरू के ही कमरा म बइठे बाबू ले वोह भोलाराम के केस के बारे म बात करिस। तो बाबू ह ओला ध्यान





लगा के देखिस अउ किहिस, “भोलाराम ह दरख्वास्त तो भेजे रिहिसे, फेर वनज नइ रिहिसें, एकरे सेती कहूँ उड़ा गे होही। नारद किहिस, ”भई, अहादे बहुत अकन ‘पेपर-वेट’ तो रखाय हे। इमन ला काबर नइ रख दीस ?

बाबू हाँसिस - “आप साधु अब, आप ला दुनिया दारीसमझ म नइ आवै। दरख्वास्त ह ‘पेपर वेट’ ले नइ दबे। खैर, आप वो कमरा म बइठे बाबू ले मिलव।”

नारद वो बाबू करा गीस। वोह तीसर करा भेजिस, तीसर ह चौथा करा, चौथा ह पाँचवा करा। जब नारद पचीस -तीस बाबू अउ अफसर मन के तीर ले घूम के अइस तब एक झिन चपरासी किहिस, “महाराज, आप काबर ए झंझट म पर गेव। आप अगर साल भर घलो इहां चक्कर लगावत रहू, तभो ले काम नइ होय। आप सोझ बड़े साब ले मिलव। ओला खुष कर डरेव, त अभीन काम हो जही।”

नारद बड़े साहब के कमरा म पहुँचिस। बाहर म चपरासी उँघावत रिहिसे, तिही पाय के ओला कोनो नइ छेड़िन। बिना ‘विजिटिंग कार्ड’ के आय देख के, साहब भारी नाराज होगे। किहिस, “एला कोनो मन्दिर-वन्दिर समझ गे हस का ?” धड़धड़-धड़धड़ चले आए। चिट काबर नइ भेजे ?

नारद ह किहिस, “कइसे भेजतेंव ? चपरासी तो सूतत हे।”

“का काम हे ?” साहब ह रौब देखा के पुछिस।

नारद ह भोला राम के पेन्षन-केस बतइस।

साहब किहिस, “आप बैरागी अव। दफ्त्र मन के रीति-रिवाज ला नई जानव। असल म भोलाराम ह गलती करे हे। भई, यहू एक ठन मन्दिर आय। इहाँ








घलो दान-पुण्य करना परथे। आप भोलाराम के हितैषी अव तइसे लागथे। भोलाराम के दरख्वास्त मन उड़त हे, उंकर उपर वजन रखौ।”

नारद ह गुनिस की फेर इहाँ वजन के समस्यिा खड़ा होगे। साहब किहिय, ”भई, सरकारी पइसा के मामला आय, पेंषन के केस बीसों दफ्तर मन म जाथे। देरी हो ही जथे। बीसांे घाँव एके बात ला बीस जगह म लिखे बर परये, तब पक्का होथे। जतना पेंषन मिलये ओतने के स्टेषनरी लग जथे। हाँ, जल्दी घलो हो सकथे, मगर ...........” साहब रूकिस। 

नारद किहिस, “मगर का ?”

साहब ह कुटिल मुस्करावत किहिस, मगर वजन चाही। आप समझे नही। जइसे आपके ए सुन्दर वीणा हे, एकरो वजन ला घलो भोलाराम के दरख्वास्त उपर रखे जा सकथे। मोर बेटी ह गाना बजाना सीखये। एला मैं ओला दे दुहूँ। साधु सन्त मन के वीणा ले तो अउ बढ़िया स्वर निकलथे।”

नारद अपन वीणा ल छिनत देख के थोकिन घबरइस। ताहन फेर संभल के वोह वीणा ला टेबिल उप्पर रख के किहिस, “ए लेवौ। अब जरा जल्दी ओकर पेंषन के आर्डर ला निकाल देवौ।”

साबह ह खुष होके ओला कुरसी दीस, वीणा ला एक कोन्टा म रखिस अउ घण्टी बजइस। चपरासी हाजिर होइस।

साहब ह आदेष दीस, “बड़े बाबू ले भोलाराम के केस के फाइल लाओ।”

    थोकिन देर चपरासी भोलाराम के सौ-डेढ़ सौ दरख्वास्त मन ले भरे फाइल ला धर के अइस। ओमा पेंषन क कागजात घलो रिहिसे। साहब ह फाइल में के 







नाम ला देखिस अउ निष्चित करे बर पूछिस, “का नाम बताये साधुजी आप ह?”

नारद ह समझिस की साहब ह थोकिन ऊँचहा सुनथे। तिही पाए के जोर से किहिस, “भोलाराम।”

अचानक फाइन के अन्दर ले आवाज अइस, “कोन पुकारत हे मोला ? पोस्ट मैन ए ? का पेंषन के आर्डर आ गे ?” 

    नारद चौकिस। फेर तुरते बाते समझ गे। किहिस, “भोलाराम! तें का भोलाराम के जीव अस ?”

    “हव” आवाज अइस।

    नारद किहिस, “मैं नारद अवँ। मैं तोला, लेगे बर आए हवँ। चल, स्वर्ग म तोर अगोरा होवत हे।”

    आवाज अइस, “मोला नइ जाना हे। मैं तो पंेषन के दरख्वास्त मन म अटके हवं। हइें मोर मन लगे हे। मैं अपन दरख्वास्त मन ला छोड़ के नइ जा सकवँ।”















टार्च बेचइया

वोह शुरू के चौराहा म बिजली के टार्च बेचय। बीम म कुछ दिन वोह नइ दिखिस। काली फेर दिखिस। मगर ए पइत वोह दाढ़ी बढ़ाये रिहिसे अउ लम्बा कुरता पहिरे रिहिस।

मैंह पूछेंव, “कहाँ रेहे ? अउ ए दाढ़ी काबर बढ़ाए हस ?”

वोह जवाब दिस, “बाहर गे रेहेंव।”

दाढ़ीवाले सवाल के वोह जवाब अइसन दीस की दाढ़ी उपर हाथ फेरे ला धर लिस।

मैं केहेंव, “आज तैं टार्च नइ बेचत हस ?”

वोह किहिस, “वो बूता ला बन्द कर दे हवं। अब तो आत्मा के भतर म टार्च जल-गे-हे। ‘सूरज छाप’ टार्च अब व्यर्थ लगथे।”

मैंह ह केहेंव, “तैं सन्यास लेवत हस। जेकर आत्मा म प्रकाष बगर जथे वाहे अइसने हरामखोरी म उतर आथे। काकर करा ले दीक्षा लेके आए हस ?”

मोर बात ले ओला पीरा होइस। वोह किहिस, “अइसन कठोर वचन झिन बोलव। आत्मा सबके एक हे। मोर आत्मा ला चोंट पहुँचा के आप अपने आत्मा ला घायल करत हव।”

मैंह केहेंव, “ए सब तो ठीक हे, फेर ए बताव की तैं एकाएक अइसन कइसे हो गेस ? का घर वाली ह तोला छोड़ दीस ? का उधार मिलना बन्द होगे ? का साहूकार मन जादा तंग करना शुरू कर दे हे। का चोरी के मामला म फंस







गे हस ? आखिर बाहिर के टार्च भीतरी आत्मा म कइसे खुसर गे ?”

वोह किहिस, “आपके सब्बो अन्दाज गलत हे। अइसन कुछु नइ होय हे। एक ठन घटना होगे हे, जेह जीवन ला बदल दीस। ओला मैं गुप्त रखना चाहत हवँ। फेर मैं आजे इहाँ ले दूरिहा जावत हवँ, इही पाय के आप ला सब्बो किस्सा ला सुना देथनँ।” वोह बयान शुरू करिस-

“पाँच बच्छर पहिली के बात आय। मैं अपन एक झिन संगवारी संग हताष होके एक जघा म बइठे रेहेंव। हमर आघु म आसमान ला छूवत एक ठन सवार खड़े रिहिसे। वो सवाल रिहिसे - ‘पैसा कइसे पैदा करन ?’ हम दूनो झिन वो सवाल के एक-एक टांग ला पकड़ेन अउ ओला हटाए के कोषिष करे ला धरेन। हम्मन ला पसीना आगे, फेर सवाल हिलबे नइ करिस। संगवारी ह किहिस - ‘यार, ए सवाल के पाँव तो जमीन म बहुत अन्दर तक गड़े हे। एक उखड़े नही। एला छोड़ दे जाय।”

हम्मन दूसर डाहर मुँह कर लेन। तभो ले वो सवाल फेर हमर आघु आ के खड़ा होगे। तब मैंह केहेंव- ‘यार, ए सवाल ह टले नही। चलो इही ला हल कर देथन। पैसा पैदा करे बर कुछ काम-धन्धा करन। हम्मन ओतकेच बेर अलग-अलग दिषा म अपन-अपन किस्मत ला आजमाए बर निकल गेन। पाँच बच्छर बाद ठीक इही तारीख के इही वक्त हम्मन इही मेर मिलेन।’

“संगवारी ह किहिस - ‘यार, ए के संघरा काबर नइ चलन ?”










मैंह ह केहेंव - ‘नहि। किस्मत अजमाने वाला मन के जतना जुन्ना कहानी मैंह पढ़े हवँ सबमें उमन अलग-अलग दिषा म जाथे। संघरा, जाए म किस्मत ले किस्मत टकरा के टूटे के डर रहिथे।’

“त साहब, हम्मन अलग-अलग दिषा म चल देन। मैंह टार्च बेचे के धन्धा शुरू कर देंव। चौराहा म नही ते मैदान म लोगन मन ला, सकेल लेतेव अउ बहुत नाटकीय ढंग से काहवँ - ‘आजकल सबो जघा अंधियारी छाय रहिथें। रात बहुत करिया होथे। अपन-आप ला कुछु नइ सुझय। आदमी ला रद्दा नइ दिखय। वोह भटक जथे। ओकर पाँव म काँटा गड़ जथे, वोह गीर जथे अउ ओकर माड़ी लहू लुहान हो जथे। ओकर तीर-तार म कुलुप अँधियार ह। शेर अउ चीता मन चारो मुड़ा घुमत हे, साँप जमीन उपर रेंगत हे। अंधियार ह सब ला लीलत हे। अँधियार घर म घलो हे। मनखे रात कन पेषाब करे बर उठथे अउ सांप उपर ओकर पाँव पड़ जथे। साँप ओला चाब देथे अउ वोह मर जथे।’

आप तो देखेच हव की लोग मोर बात ला सुनके कइसे डर जावत रिहिन हे। सरी मंझनिया उमन अंधियार के डर ले काँपे ला धर ले। मनखे ला डराना कतना आसान हे। 

“लोग डर्रावय , तब मैं काहवँ-भाई हो, ए सही हे की अँधियार हे। फेर अँजोर घलो हे। उही अँजोर ला मैं आप मन ला दे बर आये हवँ। हमर ‘सूरज छाप’ टार्च म अतेक अँजारे हे, जउन अँधियार ला दूरिहा भगा सकथे। अभीच्च सूरज छाप टार्च खरीदो अउ अँधियार ला दूरिहा भगाओ। जउन-जउन भाई मन ला चाही उमन हाथ ऊँचा करो।”







“साहब मोर टार्च बेचा जय अउ मैं मजा म जिन्दगी बितावत रेहेंव।”

“वादा के मुताबिक ठीक पाँच बच्छर बाद मैं उही जघा म पहुँचेंव जिंहा मोला संगवारी झन मिलना रिहिसे। उहाँ मैंह दिन भर ओकर रद्दा देखेंव, वोह अइस। का होइस ? का वोह भूलागे ? का अब वोह ए जीव लेवा संसार म ही नइहे ?”

“मैं ओला खोजे बर निकल गेंव।”

“एक दिन संझा कन जब मैं एक शहर के सड़क म जावत रेहेंव, मैह देखेंव की तीर के मैदान म बिक्कट अंजोर हे अउ एक डाहर मंच सजे हे। लाउडस्पीकर लगे हे। मैदान म हजारो नर-नारी श्रद्धा ले मुड़ी नवा के बइठे हे। मंच म सुन्दर कोसाही कपड़ा ले सजे महापुरूष बइठे हे। वोह खूब तन्दरूस्त हे, सँवारे लम्बा दाढ़ी हे अउ पीठ उपर लहरावत लम्बा चूँदी है।”

“मैं भीड़ के एक कोन्टा म जाके बइठ गेंव।

“महापुरूष फिल्मी संत लागत रिहिसे। वोह गुरू-गम्भीर वाणी म प्रवचन शुरू करिस। वोह अइसे बोलत रिहिसे जानो-मानो अकाष के कोनो कोन्टा ले एकाद राहस्यमय संदेष ओकर कान म सुनायी परत हे जेला वोह प्रवचन देवत हे।”

“वोट काहत रिहिसे - ‘मैं आज मनुष्य ला एक घोर अँधियार म देखत हवँ। उँकर भीतर कुछु बुझा गे हे। ए युगेच ह अन्धकारमय हे। एक सब ला खवइया 











अँधियार पूरा संसार ला पेट म लुकाय हे। आज मनुष्य ए अँधियार ले घबरा गेहे। वोह रद्दा ले भटक गेहे। आज आत्मा म घलो अँधियार हे। अन्दर के आँरती ज्योतिहीन होगे हे। वोह ओला भेद नइ पाय। मानव-आत्मा अँधियार म घुटथे। मैं देखत हवँ, मनखे के आत्मा डर अउ पीरा ले हलाकान हे।”

    “अइसने वो प्रवचन देवत गीस अउ लोग लीन होके सुनत रिहिन।”

    “मोला हाँसी आवत रिहिसे। एक दू घाँव तो मुँहू दबा-दबा के घलो हाँसेव देखके तीर के श्रोता मन मोला खिसियइन।”

    “महापुरूष प्रवचन के अन्त म पहुँचत-पहुँचत किहिस- भई अउ बहिनी हो, डर्राओ झन। जिंहा अँधियार हे, उहिंचे अँजोर हे। अँधियार म अँजोरी के किरण हे, जइसे अँजोरी म अँधियार के थोकिन करिया पन हे। अँजोर घलो हे। अँजोर बाहिर नइ हे, ओला भीतर म खोजो। भीतरी म बुझाए वो जोत ला जगाओ। में तँुहर सब झन के वो जीत ला जगाए बर आवाहन करत हवँ। मैं तँुहर भीतर उही सदा रहइया जीत ला जगाना चाहत हवँ। हमर ‘साधना-मन्दिर’ म आके वो जीत ला अपन भीतर जगाओ।”

    “साहब, अब तो मैं खलखला के हाँस डरेंव। तीर के मनखे मन मोला धकिया के भगा दीन। मैं मंच करा जाके खड़ा हो - गेंव।”

    “महापुरूष मंच ले उतर के कार उपर चढ़त रिहिसे। मैंह ओला ध्यान से तीर ले देखेंव। ओकर दाढ़ी बढ़े रिहिसे, तिही पाय के मैं थोकिन झिझकेंव। फेर मोर तो दाढ़ी नइ रिहिसे। मैं तो उही असली रूप म रेहेंव। वोह मोला चिन्ह डरिस। किहिस-‘अरे तैं! मैं चिन्ह के 







गोठियाइय च रेहेंव की वोह मोर हाथ ला घर के कार म बइढार लीस। मैं कुछ गोठियाय ला धरेंव त वोह किहिस-‘बंगला तक कोनो गोठ-बात नइ करन। उही ज्ञान-चर्चा होही।’

    “मोला सुरता आगे की वो जघा ड्राइवर हे।”

    “बँगला म पहुँच के मैंह ओकर ठाठ देखेंव। वो वैभव ला देख के मैं थोकिन झिझकेंव, फेर तुरते मै अपन वो संगवारी ले खुल के गोठियाए के शुरू करेंव।”

    “मैंह केहेंव - ‘यार, ते तो बिल्कुल बदल गेस।’

“वोह गम्भीर हो के किहिस-‘परिवर्तन जीवन के अनन्त क्रम आय।’

“मैंह केहेंव - ‘साले फिलासफी झन बघार। ए बता की तैंह अतेक दौलत कइसे कमा लेस पाँच बच्छर म ?’

“वोह पुछिस - तैंह ए पांच बच्छर ले काय करत रेहे ?”

“मैंह केहेव - मैं तो किंजर-किंजर के टार्च बेचत रेहेंव। सही-सही बता का तहूँ टार्च के व्यापारी अस ?”

“वोह किहिस - ‘तोला का अइसने लागथे ? काबर लागथे ?”

“मैं ओला बतायेंव की जउन बात ला मय कहिथवँ उही ला तहूँ काहत रेहे।”

“मैं सोज-सोज कहिथवँ; तैं उही बात ला रहस्यमय ढंग ले कहिथस। अँधियार के डर देखा के लोगन मन करा टार्च बेचथवँ। तहूँ अभी मनखे मन ला अँधियार के डर देखावत रेहे, तहूँ जहर टार्च बेचथस।”









“वोह किहिस - तैंह मोला नइ जानस। मैं टार्च काबर बेचहूँ। मैं साधु, दार्षनिक अउ सन्त कहाथवँ।”

“मैंह केहेंव -‘तैंह कुछु कहावस, बेचथस तैंह टार्च। तोर अउ मेार प्रवचन एक जइसे हे। चाहे कोनो दार्षनिक बने, सन्त बने या साधु बने, अगर वोह मनखे मन ला अँधियार के डर देखाथे त जरूर अपन कम्पनी के टार्च बेचना चाहथे। तोर जइसन मनखे मन बर हमेषा अँधियार छाय रहिथे। बताव तोर जइसे कोनो आदमी ह हजारो म कभू ए केहे की आज दुनिया म अँजोर बगरे हे ? कभू नइ केहे हे। काबर? एकर सेती की ओला अपन कम्पनी के टार्च बेचना हे। मैं खुद सरी-मंझनिया मनखे मन ला कहिथवँ की अँधियार छाय हे। बता कते कम्पनी के टार्च बेचथस ?’

“मोर बात हा ओला ठिकाना म ला-दे रिहिसे। वोह सहज ढंग ले किहिस -‘तोर बात वाजिब हे। मोर कम्पनी नवा नोहे, सनातन आय।’

“मैंह पूछेंव - ‘कहाँ हे तोर दुकान ? नमूना खातिर एकाद टार्च तो देखा। ‘सुरज छाप’ टार्च ले बहुत जादा बिक्री हे ओकर।’

‘वोह किहिस - ‘वोह टार्च के कोनो दुकान बाजार म नइहे। वोह बहुत सूक्ष्म हे। फेर कीमत ओकर बहुत मिल जथे। तैं एक-दू दिन राह, तहान मैं तोला सब कुछ समझा दुहूँ।’











“त साहब मैं दू दिन ओकर करा रेहेंव। तीसर दिन ‘सूरज-छाप’ टार्च के पेटी ला नदिया म फेंक के नवा काम गुरू कर देंव।”

“वो अपन दाढ़ी उपर हाथ फेरे ला धरिस। किहिस- ‘बेटा, एक महीना के देरी अउ हे।’

“मैंह पूछेंव - त अब कोन-से धन्धा करबे ?”

“वोह किहिस - ‘धन्धा उही करहूँ-मने टार्च बेचहूँ। बस कम्पनी बदलत हवँ।’





















आत्म-ज्ञान क्लब

महँू एक घाँव आत्म-ज्ञानी मन के चक्कर म पर-गे- रेहेंव।

मैं वो समय चन्द्रा साहब, रिटायर्ड इन्जीनियर के घर म किराया म राहत रेहेंव।

एक दिन संझा-कन वोट मोला पैदल सिविल लाइन्स के सड़क म रेंगत मिल-गे। मैंह ‘नमस्ते’ के बाद उही बिना मतलब के सवाल पूछेंव, लेजा हम्मन ओकर ले करथन, जेकर से जादा बात नइ करना चाहय - “कहव, कहाँ जावत हव ?”

चन्द्रा साहब रूक-गे। बड़ रहस्य भेर मुस्कान धारण करके किहिस, “तैं नइ जानस ? आज शनिच्चर ए न!”

“शनिच्चर के दिन एहा कहाँ जाये-मैं गुने ला धरेंव। जिहाँ भी जावत होही, एकर जाना अतेक  महत्वपूर्ण अउ मषहूर हे की इंकर किराएदार मन ला तो ओकर जानकारी होना ही चाही। मैंह बिक्कट अन्दाज लगा के डर्रावत-डर्रावत केहेंव, हनुमान जी के दर्षन करे बर जावत होही।”

चन्द्रा साबह मोर अज्ञान ऊपर तरस खाके मुस्करइस, तहान रहस्य खोले ला धरिस, “अरे भई, हर शनिच्चर के ‘आत्म-ज्ञान क्लब के साधना बइठक होथे न। ठेकादार सम्पूरनदास के बँगला म! उहें जावत हवँ।”

मोला सब कुछ सुरता आवत हे। अखबार म अक्सर समाचार छपाये। मोला मालूम नइ रिहिसे की चन्द्रा साहब घलो आत्म-ज्ञान क्लब के सदस्य हे।









वोह किहिस, “तहूँ आए कर।”

मैंह पूछेंव, “उहाँ का होथे ?”

वोह समझइस, “उहाँ आत्म-ज्ञान के साधना होथे। चिन्तन-मनन, ध्यान अउ गोठ बात होथे।”

मैंह पूछेंव, “काकर बारे म ?”

वोह किहिस, “आत्मा के बारे म। मनुष्य अपन आप ला नइ जाने। हम नइ जानन की हम कोन अन। अपन सच्चा स्वरूप के चिन्हारी करना बहुत कठिन हे। हम साधना ले इही जानना चाहथन की मैं कोन अवँ ? मोर सच्चा स्वरूप कइसन हे ?”

मैंह फेर पूछेंव, “एकर ले काय फायदा होथे ? 

वोह मोर बेवकूफी उपर हाँसत किहिस, “ते-तो आत्म-ज्ञान म घलो फायदा नुकसान देखथस। अरे, खुद ला पहिचानना कोनो मामूली बात ए। जीवन के इही परम उद्धेष्य आय। ए जान के बाद आदमी माया ले छूट जथे। कभू आव। अरे, थोर बहुत परामर्ष डाहर घलो झूकव। माया म कब तक फँसे रहू ?”

मैंह ओकर ले आए के वादा करेंव। जावत-जावत वोह किहिस, “आज तीन तारीख हो-गे, तैंहा किराया नइ दे-हस।”

मैंह केहेंव, “एक दू दिन म दे दुहूँ। ए महीना तनख्वाह देरी से मिलही।”

चन्द्रा साहब ह जोर से खिसिया के किहिस, “तनख्वाह मोर कभू मिले, किराया मोला पहिली तारीख के मिल जाना चाही। समझे ?”

वोह छड़ी टेकत-टेकत परमार्थ साधना बर गीस अउ मैं किराया जुगाड के माया म फंस के धर लहूटेंव।







वोह एक दू घाँव अउ आत्म-ज्ञान क्लब म आए बर किहिस। मोर बगल के कुरिया म जितेन्द्र राहय। वोह मोर सन काम करे अउ मोर संगवारी घलो रिहिस। वहूला चन्द्रा साहब ह आए बर बिनती करे रिहिसे।

मैंह ओला केहेंव, “यार, वोह कई घाँव कहि डरे हे। नइ जाबो ते बुरा मान जही।”

वोह किहिस, “फेर उहाँ करिंगे का ? हम्मन तो अइसने आम आदमी अन। हम्मन जानत हन की हम्मन स्कूल मास्टर अन अउ पढ़ा के पेट भरथन। इही हमर सच्चा स्वरूप आय।”

मोर उपर चन्द्रा साहब के बात के थोर-बहुत असर रिहिसे। मैंह केहेंव, “एहा आत्मा-ज्ञान नोहे। वोह बड़ साधना के बाद मिलथे। चल न एक दिन।”

एक शनिच्चर के दिन संझा कन हम्मन ठेकादार सम्पूरन दास के बंगला पहुँचेन। फाटक म जइसने खुसरेन कुकुर ह भूँक के दौड़िस। हम्मन ठिठक गेन। जितेन्द्र ह किहिस, “हर कुकुर जनम ले ही आत्मा-ज्ञानी होथे। वोह जानथे की मैं कुकुर अँव, अउ मोर काम भूँकना आय। कई झन अपन कुकुर ला ‘टाइगर’ कथे, फेर कुकुर अपन सच्चा स्वरूप ल पहिचानथे।”

मैंह केहेंव, “नही, अइसन नोहे। आत्म-ज्ञान जीवधारी मन सिरिफ मनखे ला मिलथे अउ कुकुर मनखे के बहुत करीब रहिस, इही पाय के थोकिन आत्म-ज्ञान वहू ला हो जथे। तैं देखत नइ हस एकर भूँकई म थोकिन पवित्रता हे जउन अऊ कुकुर मन के भूँकई म नइ होय। एहा आत्म-ज्ञान साधक मन के संगति म रहिये न। एहा कोनो ला चाब दिही ते मनखे के घलो आत्मा प्रकट हो जाथे।” 







चन्द्रा साहब अउ ठेकादार सम्पूरनदास बरामदा म आगे अउ उमन कुकुर ला बला लीन। हम्मन जन्मजात आत्म-ज्ञानी के चबई ले बाँच गेन।

हम्मन कमरा म गेन। उहाँ दस-बारह आदमी सोफा अउ आरामी कुरसी मन म बइठे रिहिन हे। हम्मन ला साधारण कुरसी दे दे गीस, काबर की हम्मन किराए दार रेहेन।

मैंह वो साधक मन डाहर नजर घुमायेंव। येमा से कतनो झन ला मैं अलग-अलग ढंग ले जानत रेहेंव, फेर मोला नइ मालूम रिहिस की इमन संघर के आत्म-ज्ञान क्लब बना डरे हे। चन्द्रा साहब अउ सम्पूरनदास के आत्मा के सम्बन्ध तो बीते, पच्चीस तीस बच्छर ले चले आवत हे। चन्द्रा साहब ठेकादार सम्पूरनदास ला ठेका देवय अउ कुछ अइसे चमत्कार होवय की हर इमारत नइ ते पुल मे से चन्द्र साहब के एक ठन मकान पैदा हो जावय। छोटे इमात होतिस, त कोनो मकान के नहानी खोली ही ओमे से निकल आतिस। रिटायर होवत होवत चन्द्रा साहब के कतनो मकान हो गे रिहिसे, जउन किराया म चलत रिहिसे। ओकर बैंक खाता म घलो जब-तब हलचल होवत राहय।

 उहाँ सेवकजी घलो बइठे रिहिसे, जऊन बहुत जुन्ना नेता रहिसे। मनखे मन हल्ला कर दे रिहिन हे की वोह दू-तीन छाँव चुनाव हार गे रिहिसे अउ अब ओला आत्म-ज्ञान के सख्त जरूरत परगे हे।

एक झन प्रोफेसर साबह भाई रिहिस। वोह दाढ़ी बढ़ाय रिहिसे। ढिला-ढाला धोती - कुरता पहिरय।








वोह ठण्ड के रात म घलो बगीच्चा म उघरा किंजरय। बांते बच्छर सरकस देख के हम्मन लहूटेन न बगीच्चा म थोकिन बिलम के प्रोफेसर साहब ला घलो देखन। जितेन्द्र के कहना रिहिसे की सरकार के जउन कुँआ म मोटर साइकिल चलाथे, तहू ह ठण्ड म अइसन नइ घूम संकै। वोह पैतींस साल क उमर म घलो कुँआरा रिहिसे।

उहाँ एडवोकेट शुक्ला घलो रिहिसे, जेकर दू झन कुँआरी बेटी रिहिस। जेकर कुँआरी बेटी हो ओला आत्म-ज्ञान के अइसने जरूरत परथे। सुने रेहेंव की बड़े बेटी के बिहाव वोह प्रोफेसर सन करे के कोषिष म रिहिसे। 

चन्द्रा साहब ह कहि दे रिहिसे की वोह प्रोफेसर ला तइयार कर दिही। शुक्ला के ध्यान ह प्रोफेसर के आत्मा के अपेक्षा ओकर शरीर उपर जादा रिहिसे। सोचत होही की कते शुभ दिन ए दाढ़ी ह मुड़ाही।

ए मनखे मन के सिवाय उहाँ दू-तीन व्यापारी अउ एक-दू रिटायर अफसर मन रिहिन हे।

कमरा म ऊदबत्ती जलत रिहिसे। टेबिल म एक ठन बड़े जन चित्र रखाए रिहिस-कंकाल असन, जइसे स्पिरिट के बोेतल बने रहिथे। खाल्हे म लिखाय रिहिस-‘आत्मा।’ टेबिल म फूल रखाय रिहिसे।

काफी क चुसकी पीयत किहिस, “हां त मैं कहात रेहेंव की जनता के नैतिक स्तर बहुत गिर गे-हे। पहिली जनता के मन मा विष्वास राहय अब वो विष्वास ह हट गे-हे। गाँधीजी करोड़ो रूपया के चन्दा सकेलय, फेर कोनो हिसाब नइ पूछय। फेर अब तो पाँच-दस हजार के घलो जनता हिसाब माँगथे। जउन जाति के हृदय ले विष्वास उठ जाय, ओकर पतन जरूर होथे।” जाति के पतन ले दुखी होके, वोह गरदन नवा लीस।





अचानक प्रोफेसर ह उठिस अउ आँखी बन्द करके, हाथ-जोड़ के ऊँचा आवाज म किहिस-

‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितत्यष्च!’

सब शान्त हो-गे। आँखी मूँद लीन।

प्रोफेसर ह तीन घाँव किहिस-मैं कोन अँव ? मोर सच्चा स्वरूप कइसन हे ? दूसर मन सवाल ला दुहरइन अउ मगन हो-गे। हमु मन देखा-देखी करेन।

प्रोफेसर ह आँखी ला उघारिस, ताहन सब झन उघारिस। एकर मतलब ए आय की सब झन एक ठन आँखी ला आधा उधार के देखत रिहिन हे की कब प्रोफेसर ह आँखी उघारही।

गोठ बात शुरू होइस। प्रोफेसर ह शुरू करिस, “आदीकाल ले मनुष्य के मन म ए प्रष्न गूँजत हे - मैं कोन अँव ? मोर सच्चा स्वरूप कइसन हे ? खुद ला जानना चाहत हे........”

    इही समय एक झन मनखे ह आ-के ठेकादार ला किहिस की डॉक्टर करा फोन करन दे।

    ठेकादार ला घुस्सा आ-गे। किहिस, वक्त-बेवक्त नइ देखे, फोन करे बर आ जथें, ला काबर नइ ले डॉक्टर ला ?

    घबराए आदमी ह जवाब दीस की जाए म देरी लागही, फोन कर दे ले वोह अपन कार ले फौरन आ जही।

    ठेकादार ह ओला दसो बात अऊ सुनइस। फेर ओला फोन कर लेवन दीस। मगर ओकर बाद गोठ-बात होबे नइ करिस। वोइसे घन्टा भर ले ए गोठ जरूर होवत







रिहिस की पड़ोसी तंग करथे। सल झन पड़ोसी मन के सताए हुए रिहिन हे।

    वो दिन बइठक बड़ दुख के संग सिरइस। उमन दुखी रिहिसे काबर की आत्म-ज्ञान के उपलब्धि ह एक हफ्ता अऊ घूंच गे।

    दूसर शनिच्चर के फेर साधना म बाधा अइस।

    मैं कौन अवँ ? मोर सच्चा स्वरूप कइसन हे ? एक प्रष्न मन के बाद ध्यान के बीचे म ठेकादार हा कहि परिस, “आज चन्द्रा साहब के मूड थोकिन खराब हे तइसे लागथे।”

    सब झन आँखी उघारिन। सब झन चन्द्रा साहब ला अइसे ध्यान से देखे ला धरिन, जानो मानो उही सबके आत्मा आय।

    चन्द्रा साहब ह किहिस, “काला बतावौं। संसारिक दुख छोड़ै नही। माया जाल आय। मनखे-मनखे ला दुख देथे।”

वोह रोनहू हो-गे।

    सबला फिकर होइस। एडवोकेट शुक्ला ह पूछिस, “आखिर होय का हे चन्द्रा साहब ?”

    चन्द्रा साहब ह किहिस, “एक झन किरायादार के मकान म हैण्ड-पम्प बिगड़ गे रिहिसे। मैंह ओला कहि दे देहेंव की मैं सुभीत्ता म सुधरा दुहूँ। फेर वोह तो नवा ‘वाषर’ लगवा लीस अउ दस रूपया किराया म से काटे के शुरू कर दीस। मैंह एतराज करेंव, त वोह केहे लगिस भी का हम्मन प्यासे मरन। भला बताव, है ना धाँधली। मैं तो ओला ठीक करवातेंवच। अगर तोला जल्दी हे त तैंह अपन खरचा ले नल ठीक करवा ले।







    चन्द्रा साहब ले सब ला सहानुभूति होइस। एडवोकेट साहब ला घुस्सा घलो अइस। किहिस, “मैं ओला दस दिन म मकान ले निकलवा दुहूँ। कालीच ‘इजेक्टमेण्ट’ कार्यवाही कर हूँ।”

    वोह चन्द्रा साहब के चेहरा म संतोष पढ़ना चाहत रिहिसे। चन्द्रा साहब ह आषा देवाय रिहिसे की लड़की के बिहाव प्रोफेसर ले करवा दुहूँ। प्रोफेसर ह दार्षनिक दृष्टि ले किहिस, “वास्तव म मकान-मालिक के दरजा ईष्वर के आस-पास ही हे। ईष्वर ह सृष्टि रचीस, पृथ्वी बनइस, आकाष बनइस फेर मकान नइ बनइस। मनखे धरतीं म खुल्ला आसमान के खाल्हे तो रही नइ सकत रिहिस तब मकान मालिक मन मनखे मन के रेहे बर मकान बनवइन। जउन किराया बर मकान बनवाथे, वाहे ईष्वर के समान पूज्य हे। फिर ए बात ला बहुत कम किराएदार हा समझथे।”

    वहू ह चन्द्रा साहब डाहर आषा से देखिस की अब वोह खुष  हो-गे होही।

    चन्द्रा साहब थोहिन खुष तो होइस, फेर आत्मा के गोठ करे बर ओकर मन तइयार नइ होइस।

    सबो उदासी म डूबे रिहिन। बहुत बेर ले किराएदार मन के अतलंग नपई के गोठ होवत रिहिसे। आत्म-ज्ञान के मिलई ह एक हप्ता अऊ टल-गे।

    मैं अउ जितेन्द्र लगभग हर शनिच्चर के साधना म संघरे ला धर लेन। प्रोफेसर ह दाढ़ी म तेल चुपरे ला धर ले रिहिसे। एला देख के एडवोकेट शुक्ला बहुत आषावन होगे रिहिसे।

    फेर एकाकए मोर तबादला होगे। आत्म-ज्ञान के साधना उहें छूट गे।








    

अभी दू साल बाद मोला जितेन्द्र मिलिस। मैंह पूछेंव, “आत्म-ज्ञान साधक मन के का हाल हे ?”

जितेन्द्र किहिस, “उँकर साधना सफल होगे। उमन ला आत्म-ज्ञान हो-गे।”

मैंह केहेंव, “आत्म-ज्ञान हो-गे ? फेर सबके का हाल हे ?”

जितेन्द्र बतइस, “उँकर अलग-अलग हाल हे। चन्द्रा साहब, सम्पूरनदास अउ नेता जी पागल खाना म हे। प्रोफेसर बिहाव कर डरे है। वो दूनो सेठ जेल म हे।”

मैंह केहेंव, “अरे, ए कइसे होइस ?”

जितेन्द्र ह बतइस, “एक दिन जब उँकर साधना चरम बिन्दु म पहुँचिस अउ ध्यान करके सवाल करिस मैं कोन अवँ ? मोर सच्चा स्वरूप कइसन हे ?” त आत्मा ले आवाज आए ला धरिस।”

चन्द्र साहब के आत्मा ले आवाज अइस-‘मैं बेईमान अवँ। मैं घूसखोर अवँ।’

सम्पूरनदास के आत्मा ले आवाज अइस-‘मैं चोर अवँ, मैं बेईमान अवँ।’

नेता जी के आत्मा ले आवाज अइस - ‘मैं पाखण्डी अवँ, मैं नीच अवँ।’

दूनो सेठ मन के आत्मा ले आवाज अइस- ‘मैं इनकमटैक्स चोर अवँ। मैं दू हिसाब रखइया अवँ।’

सबके जागे आत्मा ले सरलग ए आवाज आए ला धरिस अउ उमन सड़क म चिल्लावत घूमे ला धर लीन- ‘मैं चारे अवँ। मैं बेईमान अवँ। मैं पाखण्डी अवँ............’










आखिर चन्द्रा साहब, सम्पूरनदास अउ नेताजी ला तो पागल खाना भेजे गीस अउ दूनो सेठ जेल म हे।

प्रोफेसर ह जब आत्मा ले पूछिस-‘मैं कोन अवँ ? मोर सच्चा स्वरूप कइसन हे ?’

त जवाब अइस-“मैं नर अवँ, मोला मादा चाही।” वोह एडवोकेट शुक्ला के बड़े बेटी ले बिहाव कर लीस। शुक्ला जी के आत्मा ले कोनो आवाज नइ अइस, काबर की वोह आत्म-ज्ञान बर नइ आवत रिहिसे, लड़की के बिहाव के जुगाड़ करे बर आवत रिहिसे।

आत्म-ज्ञान बिचारा मन ला ले डूबिस। मोर तबादला इन होतिस, ते महूँ ह वो साधक मन के चक्कर म पर जतेंव। तब कोन जनी का होतिस ?

















युग के पीरा ले सामना

मैंह एक ठन अखबार म षिवषंकर के तारीफ छपवा दे रेहेंव। बिहनिया अखबार छपे रिहिसे। लगभग दस बजे में षिवषंकर के घर डाहर जाय बर चल पड़ेंव।

जगन्नाथ कका अपन जघा म बइठे रिहिसे। पूछिस, “कहाँ जावत हस ?”

मैंह केहंेव, “षिवषंकर करा भेंट करे बर।” 

वोह किहिस, “वोह ए दुनिया म अब नइ मिलय। ओकर करा मिले बर दूसर दुनिया म जाय के तोर तइयारी मोला दिखय नही।”

मैंह केहेंव, “त का षिवषंकर ................”

“हव वोह अभी हप्ता भर पहिली मर-गे।”

“कइसे ? कइसे मर-गे ?”

“तैंह जउन ओकर तारीफ आज के अखबार म छपवाए हस, वोह ओकर प्राण ले लीस। मैं कहूँ सरकार म कहूँ कुछु होतेंव त तोला हत्या के जुर्म म अभी गिरफ्तार कर लेतेंव।”

मैंह केहेंव, “कका, मोला आपके बात बिल्कुल समझ म नइ आवय। आखिर तारीफ ले आदमी कइसे मर जही ?”

कका ह बतइस, ‘देखो होइस अइसे की परोसी ह बिहनिया अखबार ओकर तारीफ पढ़िस। वोह षिवषंकर करा गीस अउ किहिस-षिवषंकर बाबू, आज अखबार म आपके बारे म छपे हे। येला सुन के तुरंत घबरा के चिल्लइस - ‘’अरे बाप रे! छप-गे! अउ उही मेर गीर-गे। थोकिन देर बाद ओकर प्राण निकल गें।’







मैंह केहेंव, वोइसे छपे तो ओकर तारीफ रीहिस!”

कका ह किहिस, “मोला का मालूम ? तैंह ओला पहिली ले बताए तो नइ होवे। वोह समझिस की जउन बात के छपे ले वोह डर्रावत रिहिस, वोह छपगे। देखो जमाना अतना खराब आ-गे हे की बिना खभर करे, काकरो तारीफ घलो नइ करना चाही। काकरो उपर दया करना हे त बता-के करो। उपकार करत हव, त आघु ले बता दे की मैं तोर उपकार करत हवँ।”

मोला दुख होइस - ओकर लोग-लइका के अब का होही ?

मैंह अपन चिन्ता बतायेंव त कका हाँसिस। किहिस, “तैं बड़ भोला हस। लोग-लइका के तो शुभ दिन अब अइस हे। वो षिवषंकर घूस अउ सरकारी पैसा खा-के बहुत अकन जायदाद अर नगद छोड़ दे हे। बीवी-बच्चा मन अब बिना  संकोच के ओकर उपयोग कर सकही। कहूँ वोह जिन्दा रहितिस त हमेषा डर बने रहितिस की कोन जनी कब पकड़ा जाय अउ सम्पत्ति जब्त हो जाय। मरे आदमी के  कोनो जाँच नइ करै। भ्रष्टाचारी कहूँ जल्दी मर जाय, त परिवार ला बड़ सुविधा होथे।”

तीसर पहर षिवषंकर के किरिया करम ले लहूटेंव। मन दुखी रिहिसे। एक ठन पत्रिका पलटेंव, त ओमा सत्येन्द्र के एक कविता मिलिस। ओला पढ़ेंव त मन अउ उदास हो-गे। सत्येन्द्र हमर बड़ प्रतिष्ठित कति आय। ओकर कविता अउ कहानी मन म बड़ पीरा हे। हर कविता अउ कहानी म वोह कहिथे








की जिन्दगी के कनिहा ह टूट गे हे, जीनगी फोकट के बोझ आय अउ हम मरना चाहथन। मोला ओकर बारे म फिकर होय ला धरिस। कहूँ वोह कुछु कर झन बइठे। सोचेेव कॉफी-हाउस म वोह मिल जही। ओकर से ओकर तकलीफ पूछवँ अउ ओला बचाए के कोषिष करवँ।

चौयात्रा करा आयेंव, आघु डाहर लो त्रिवेदी आवत दिखीस। मोला लागिस की येह दू-तीन घन्टा मोला रोक लिही। वोइसे ओकर उज्जर कपड़ा ला देख के मोर डर ह भाग-गे। त्रिवेदी ह जब उज्जर कपड़ा पहिरे रथे त कोनो सेक्रेटरी नही ते मंत्री करा मिले बर जावत रथे। तब वोह दिखावा दुआ-सलाम करके छोड़ देथे। वोइसे मइलाहा कपड़ा म त्रिवेदी फुरसत म रहिथे, अउ दू तीन घन्टा रोक के गोहियाथे। कभू मैंह सोच रेहेवे की एकर कपड़ा ला मैं धो के करहूँ, जेकर ले ये हमेषा बड़े मन करा मिले बर जात करे अउ हमर समय खराब झन करे। फेर डर ए हे की जब मैं कपड़ा धोए बर इँकर घर जाहूँ, त तो येह मइलाहा कपड़ा म रिही अउ घर के बइठार लिही।

त्रिवेदी साहित्य के ‘लिफ्ट’ म चघ के बटन चपक के सरकारी नौकरी के उप्पर मंजिल म पहुँच गे-हे। साहित्य ओकर ले छूट गे हे काबर साहित्य के बूता बढ़िया दूकान नही ते बढ़िया नौकरी लगे तक बर ही होथे। फेर बीते दस साल ले मैं ओकर ग्लानि के गवाही हवं। ओला बराबर लगथे की ओकर जीनगी बरबाद होवत हे। वोह जब मोला मिलथे, जीनगी बराबर होय के रोनो रोथे। आज समय कम रिहिस, इही पाय-के संक्षेप म अपन दुखड़ा रोय लगिस, “यार, हमर तो









लाइफ ही बरबाद हो-गे। सरकारी नौकरी ह सबो प्रतिभा ला खा डरिस। साहित्य-सेवा बर का-का उत्साह मन म रिहिसे, फेर सबो ह धरे के धरे रहि-गे। जब “तरंग के प्रति कविता लिखे रेहेंव तब रचनात्मक शक्ति उफान म रिहिये फेर यहू दरी धानी म फंदा गेंव। हिन्दी ह मोर ले का-का उम्मीद करे रिहिसे। अइसे आत्म ग्लानि होथे की मरे के मन करथे। वोइसे अब तय कर ले हवं -बस, सिर्फ एके बच्छर नौकरी अऊ करहूँ, तहान सब छोड़ के साहित्य-साधना करहूँ-चाहे लाघँन रहि जवँ। बस, मोला एक साल भर अऊ दे।”

मैंह ओला एक बच्छर अऊ देंव। दस, साल ले एक-एक साल देवत हवँ। हर साल वोह नौकरी छोड़े के घोषणा करथे।

मैंह केहेंव, “त्रिवेदी जी, साहित्य-रचना चाहे आप नइ करत होहू, फेर लोग आप ला भूलाय नइ-हे। आज के अधीन काम करइा कर्मचारी आपके प्रतिभा उपर लेख लिखते रहिथे। अउ अभी आपके विभाग के ‘क्लास फोर’ कर्मचारी मन जउन साहित्य बनाय हे, ओकर उद्घाटन घलो आपे ले करवाये रिहिसे।”

त्रिवेदी खुष होइस। किहिस, “अरे भाई, हिन्दी मात्रा बड़ा उदार हे। अपन नालायक बेटा ला घलो नइ भुलाय।”

वोह कालर ठीक करीस।

मैंह पूछेंव, “अभी कहाँ जावत हव ?”

जवाब दीस, “सेक्रटरी ले मिले बर जावत हवं। तीन महीना ले ‘प्रमोषन’ रूके परे हे।”

मैंह केहेंव, “अभी तो आप काहत रेहेव की नौकरी म जिन्दगी बरबाद होवत हे, अउ अब तरक्की के कोषिष करे बर जावत हव।”






वोह किहिस, “अरे यार, जब जिन्दगी ला बरबाद होनच्च हे त ओला प्रमोंषन म बरबाद काबर नइ करे जाय।”

वोह प्रमोषन बर जिन्दगी बरबाद करे बर चल दीस अउ मैं सत्येन्द्र के खोज म  कॉफी हाउस पहुँचेव। कॉफी हाउस म खुसरते भार आघु के टेबिल म जउन देखेंव, ओकर ले थोकिन देर बर मय चकरा गेंव। हमर सियान आदरणीय लेखक आचार्य हेमन्त जी बइठे रिहिसे। वेह कॉफी हाउस म कभू नइ आय रिहिसे। वोहा एला अभारतीय मानय। ठण्डाई के दूकान म जावय। एहा भारतीय ए। ओकर कॉफी हाउस म होवई ले जादा अचम्भा डरावना ओकर पहिरावा-ओदावा रिहिसे। अपन नाती के जाघिंया ला पहिरे रिहिसे, उप्पर रंग-बिरंग के तस्वीर वाला कमीज। हाथ म एक ठन झूनझूना रिहिसे अउ वोह एक ठन चॉकलेट चूसत रिहिसे। मोर होष लहूटिस त मैंह केहेंव, “अरे आचार्य जी, आप इहाँ अउ अइसन!”

मैं ओकर पांव परे बर निहरेंव। पांव-परवई ओकर खास शौक रिहिस। जाड़ म वोह पूरा तन ला कम्बल ले तोप लेवत रिहिसे, फेर पाँव ला बाहिर राख के बइठे राहय, जेकर ले भक्त मन ला सुभीत्ता होय।

ओहा मोला रोकिस, “अरे-अरे, ए काय करत हस ? मैं प्रौढ़ नोहवं। लइका हवं। मोला आषीर्वाद दे। मैं तो उदय होवत हवं।”

ओहा झुनझुना बजइस अउ किहिस, “मोला चॉकलेट खवा।”

  




 




मोला लगिस जानो-मानो आचार्य जी पागल होगे हे। मैंह केहेंव, “फेर ए का होगे हे आप ला ? कोनो नवा लेखक हा कुछु खवा तो नइ देहे ?”

वोह किहिस, “नही, मैं अपन मर्जी से ही लइका बनगे हवं। देखथनं की ए जमाना म नवा मन के बोलबाला हे। त महुं हा नवा बन गेंव। तोरो ले नान्हे बन गेंव। मैं झुनझुना बजाथवँ अउ चॉकलेट खाथवँ - मने नवा ले घलो नवा हवं। अउ ‘मार्डन’ घलो होगे हवं - ए शर्ट ला देख, सुन्दर-सुन्दर औरत मन के छापा छपे हे। अउ लिखाय हे - ‘लव मी, लव मी, लव मी।”

मैं ओला हैरान होके निहारे ला धर लेंव। ओह लइका मन कस किहिस, “अंकल, हमु ला चॉकलेट खवा न!”

मैंह केहेंव, “आचार्यजी, ये तो ठीक हे, फेर लिखई के बारे म का करत हव ?”

वोह किहिस, “लिखत घलो नवा हवं। जउन ला लिख डरे हवं ओला फिर से लिखत हवं, फेर हिज्जा अउ वाक्य विन्यास के गलती करत जाथवं। वोह नवा हो जाथे।”

थोकिन देर बाद ओकर करा ले बइठ के मैं कोन्टा के टेबल म बइठे सत्येन्द्र करा गेंव। मैं केहेंव, “वो जउन एक झन सियनहा कवि हेमन्तजी बइठे हे, ओला जानथस न ?”

सत्येन्द्र ह किहिस, “कोन कवि ? कवि तो पहिली कोनो नी होय हे। कविता तो मोर ले शुरू होथे।”

मैंह केहेंव, “पहिली कोनो कवि नी होइस ?”

तुलसीदास ? सूरदार ? कालिदास ? यहू मन नही ?

सत्येन्द्र किहिस, “ये कवि मन कहां रिहिसे। जब मोर ले पहिली कविता लिखेच नही गे हे त कवि कइसे हो जही ?”




वोह कॉफी के आखिरी घूंट लिस-अउ प्याला ला सरका दिस। मोला किहिस, “का आप मोला काफी पियाय बर आये हस ?”

मैंह केहेंव, “आये तो कोनो दुसर कारण से रेहेंव, तभो ले काफी तोला पिया दुहूं।”

मैंह कॉफी के आर्डर देव।

मैंह केहेंव, “आपके रचना ला मैं पढ़ रहिथवं। ओमा भारी पीरा हे। लागथे आपके मन म पीरा हे पालथी मार के बइठ गे हे। का तकलीफ हे आप ला ?”

ओला चेतना आ गे। सिगरेट फेंक के किहिस, “वोह युग के पीरा आय। अपन जमाना के पीरा ला हम पीयत हन। उही ह जहर बनके हमर रचना म आथे।”

मैंह पूछेंव, “युग के पीरा के षिकायत आप ला कब ले हे ?”

वोह किहिस, “वइसे तो पन्द्रा-सोला साल के उमर ले हे। मोर पेट म वो समय भारी पीरा राहत रिहिसे। येह तीन चार साल चलिस। तहान इलाज ले बने होगे।”

मैंह केहेंव, “मतलब वो बखत युग ह तोर पेट म रिहिसे ?”

वोह किहिस, “हव मगर ओकर बाद युग के पीरा ह मोर भीतर म सचरे ला धर लीस। आत्मा म आ गे। अँगरी मन के पोर तक पहुँच गे। तहान बैंक एकाउण्ट म फैलिस, तहान फर्निचर म, कपड़ा मन म अउ बेड रूम म। अब जीवन अर्थहीन हे। संसारेच ह अर्थहीन हो गे हे। कोनो चीज म कुछु अर्थ नइ रहिगे।”

मैंह केहेंव, “त का मर जाये के बिचार होथे ?”

वोह किहिस, “हव, फेर मृत्यु ह तो धलो अर्थहीन हे। इही पाय के वहू ला स्वीकारे के मन नी करय। मैं कुछु स्वीकार नी सकवं।”






ठउंका ओतके बेर दू झन सुन्दर लइका मन ला घर के एक जुग-जोड़ी भीतरी म आ के एक ठन टेबिल म जा के बइठ गे। माता पिता लड़का मन ला मया करे लगिस।

सत्येन्द्र उमन ला देखत रिहिस अउ ओकर चेहरा म घृणा आ गे। किहिस, “देखो, कतेक उल्लू हे। अपन लइका मन ला मया करत हे, बेवकूफ!”

वोह उमन ला देखते रिहिस। भारी दुखी हो के किहिस, “मैं निच्चट अकेल्ला हवं।”

मैंह पूछेंव, “अकेल्ला काबर हस ?”

वोह किहिस, “काबर की मैं काकरो ले मिलवं-जुलवं नहीं सब ला मोर करा आना चाही। उमन नी आवय, तभे तो अकेल्ला हवं।”

काफी आ गे। हम्मन काफी पीयत गोठियावत रेहेन।

मैह केहेंव, “भाई सत्येन्द्र जी, मोला अभी आपके पीरा के रहस्य समझ म नी आइस।”

वोह खिसिया के मोर डाहर देखिस। किहिस, “तोला का पीरा ह नी दिखय ? का ए युग के संकट ले अनजान हस ?”

मैंह केहेंव, “मोला एकाद-कनिक पीरा अउ संकट ह तो दिखथे। अतेक दिन बाद घलो देष ह लांघन अउ दंग दंग ले उधार हे। नान्हे-नान्हे लइका मन होटल म बूता करथे। नाबालिग लड़की मन भूख ला शांत करे बर गलत धन्धा करथे। दहेज के सेती लड़की मन बिहाव के पहिलीच सुखा जथे। जे डाहर देखबे ते डाहर लूट-खसोट हे। साधारण आदमी के कतनो तरीका ले लहू-चूसे जात हे अउ कोनो बचाव के






रद्दा नजर नी आय। ओती युद्ध के संकट हे। ए सब तो मोर समझ म आथे घलो। इही का युग के पीरा आय ? इही तोर पीआ अउ संकट के अनुभूति के कारण आय ?”

सत्येन्द्र ह मोर डाहर अइसे देखिस जानो-मोनो मेंह कोनो लइका अवं। किहिस, “आप निच्चट भोकवा हव। युग के पीरा अपन अन्तस ले उपजथे। जमाना के मोर उपर जऊन कर्तव्य हे वोह जब नी करय, तब घोर पीरा होथे। देख न, बिहनिया ले मोला तीन कप कॉफी अपने पइसा ले पीये ला परिस। मोला पीरा नी होही ? मोला कूल 800 रू तनख्वाह मिलथे अउ नरेन ला 1000 रू, प्रथमेष ला के अभी-अभी 1200 रूपिया होइसे। मोला रात भर ए पीरा ले नींद नी आय। सुरेष करा कार हो गे हे। मालूम हे आप ला ? अउ मैं टेक्सी म आथवं-जाथवं। मै उतना बड़े लेखक अवं। इहां तीन ठन गर्ल्स कालेज हे। उहां के सबो लड़की मन ला मोर तीर-तार म होना की नही ? मगर कोनो नी आय। ए असंस्कृत समाज म दम घुटथे मोर। अउ आप पुछथव, ये पीरा कहां ले आथे ? मैं ए जम्मो जहर ला पीयत जाथवं। दुनिया अर्थहीन हो गे हे। अउ लोग हे कि खाथे-पीथे, बर-बिहाव रचाथे, लइका पैदा करथे अउ लइमा मन ला मया करथे। सब-के-सब गँवार जड़ अउ संवेदनहीन हे।”

सत्येन्द्र बहुत क्रोध म आ गे रिहिसे। वोह एक म सबो काफी ला गटगट ले पी के कप ला जोर से पटक दीस। ओकर ‘मूड’ ला देख के अइसे लागत रिहिसे जानो-मानो वो अभी जा के रेलगाड़ी के आघु म जा के गिर जही।

मैं ओला चुप करे के कोषिष करेंव। केहेंव, “बन्धु जादा दंदर (घुटो) झन। कहूं पेट के पीरा ह फेर झन उभर आय। मोला बताव, मैं तोर बर का कर सकथवं।”






वोह किहिस, “आप मोर बर कुछु नी कर सकव। आप जावव। मोला अकेल्ला छोड़ देव। मैं आप ले घृणा करथवं।”

मैंह उठ गेंव। आचार्य हेमन्त करा ले निकलेंव, त वोह पूछिस, “का सहाब, हमर वो अंकल ला का हो गे हे ?”

मैंह केहेंव, “वोह युग के पीरा ले त्रस्त हे।”

हेमन्त जी किहिस, हमर जमाना म ए बीमारी नी रिहिसे। बड़ा जानलेवा बीमारी आय। दूसरा महायुद्ध के बाद दुनिया म बगरे हे।”

हेमन्तजी फुग्गा फुलाए बर धरिस अउ मैं कॉफी हाउस ले बाहिर आ गेंव।



  












  

 



भगत के गत

वो दिन जब भगतजी के मौत होय रिहिसे तब मैं केहे रेहेंव - भगती स्वर्गवासी हो गे। 

फेर अभी मोला पता चलिस की भगतजी स्वर्गवासी नही बल्कि नरकवासी हो हे। मैं कहूं, त कोनो ह एक बात ला नइ पतियाही फेर एहा सिरतोन ए की ओला नरक म डार दे गे हे अउ ओकर उपर अइसे अलकरहा पाप मन के आरोप लागय गे हे की निकट भविष्य म ओकर नरक ले छूटे के कोनो आषा नइ हे। अब हम ओकर आत्मा के शान्ति बर प्रार्थना करन, तभो ले कुछु नी होय। बड़े ले बड़े शोक-सभा घलो ओला नरक ले नइ निकाल सकय।

मुहल्ला (पारा) भर के मन घलो सुरता करथे की भगतजी मन्दिर म आधा रात तक भजन करथ। हर दू-तीन दिन म वोह कोनो पोट्ठ (समर्थ) श्रद्धालु ले मन्दिर म लाउडस्पकर लगवा लेतिस अउ उही मेर अपन मण्डली वाले मन संग भजन करय। तिहार-बार म तो चौबिसो घन्टा लाउडस्पीकर म अखण्ड कीर्तन होय। एकाद-घांव मुहल्ला वाले मन ए अखण्ड हल्ला गुल्ला के विरोध करीन त भगतजी ह भक्त मन के भीड़ सकेल के दंगा कराय बर उतारू होगे। वोह भगवान के आउडस्पीकर खातिर प्राण दे बर अउ प्राण ले बर उतारू हो गे रिहिसे।

अइसन ईष्वर-भक्त जउन ह अखो घांव भगवान के नावं लीस, नरक म भेजे गीस अउ अजामिल, जउन ह एक घावं गलती ले भगवान के नावं ले-ले रिहिस, वोह अमीन घलो स्वर्ग के मजा लूटत हे। अन्धेर कहां नइ हे!

    भगतजी ह बड़ विष्वास ले वो लोक म पहुँचीस। बहुत बेर ले इहाँ-उहाँ घूम-घूम के दखत रिहिस। तहान एक ठन कपाट करा जो के चौकीदार ला पूछिस, “स्वर्ग के प्रवेष द्धार रही आय न ?”




    चौकीदार किहिस, “हव, इही ए।”

    वो आघु बढ़े ला धरिस, न ओला चौकीदार रोकिस, “प्रवेष पत्र मने  टिकिट देखा पहिली।”

    भगत ला घुस्सा आ गे। किहिस, “महूं ला टिकिट लागही इहां ? मैं कभू टिकिट नी ले हवं। सिनेमा मैं बिना टिकिट के देखत रेहेंव अउ रेल म घलो बिना टिकिट के बइठत रेहेंव। कोनो मोर ले टिकिट नी मांगे। अब इहां स्वर्ग मे टिकिट मांगथस ? मोला जानथस। मैं ‘भगतजी’ अवं। ”

    चौकीदार ह शांत हो के किहिस, “हो गे। फेर मैं बिना टिकिट के नी जावन दवं। आप पहिली वो दफ्तर म जावव। उहां आपके पाप-पुण्य के हिसाब होही ओकर बाद आप ला टिकिट मिलही।”

    भगतजी ओला ढकेल के आगु डाहर जाय बर धरथे। ओतके बेर चौकीदार ह एकदम पहाड़ -सरीख हो गे अउ वोह ओला उठा के दफ्तर के सीढ़िया उपर खड़ा कर दीस।

    भगतजी दफ्तर म पहंुचिस। उहाँ कोनो बड़े देवता फाइल मन ला घर के बइठे रिहिस। भगतजी हा हाथ जोड़ के किहिस, “एला मैं चीन्ह डरेंव। भगवान कार्तिकेय बिराजे हे।”

    फाइल ले मुड़ी उठा के वोह किहिस, “मैं कार्तिकेय नोहवं। फोकट के चापलूसी झन कर। जीनगी भर उहाँ कुकर्म करत रेहे उहा इहाँ आ के गीजीर-गीजीर करथस। नावँ बताव।”

    भगत जी नाव बतइस, धाम बतइस। वो अधिकारी किहिस, “तोर मामला बड़ कठीन हे। हम्मन अभी तक तय नी कर पाय हन की तोला स्वर्ग देवन या नरक। तोर फैसला ला खूदे भगवान करही।”





भगतजी ह किहिस, “मोर मामला तो बिल्कुल सोझ (सीधा) हे। मैं बिल्कुल सोला आना धार्मिक मनखे अवँ। नियम से रोज भगवान के भजन करथवँ। कभू लबारी नी मारवँ अउ कभू चोरी नी करेंव। मंदिर म कतनो माईलोगन आवत रिहिन हे, फेर मैं सब ला माता समझत रेहेंव। मैंह कभू कोनो पाप नी करे हवं। मोला तो आप आँखी मूंद के स्वर्ग भेज सकथन।”

अधिकारी ह किहिस, “भगतजी, आपके मामला आतेक सोझ (सीधा) नइ हे, जनता आप समझत हव। परमात्मा खुदे वोमे दिलचस्पी लेवत हे। आप ला मैं ओकर आघु म हाजिर कर देथवँ।”

एक झन चपरासी ह भगतजी ला भवान के दरबार म लेगिस। भगतजी ह रद्दा म ही स्तुति शुरू कर दीस। जब वोह भगवान के आघु म पहुँचीस नाहन बड़ जोर-जोर से भजन गाए ला धरिस-

“हम भगत के भगत हमर,

सुन अर्जुन परतिज्ञा मोर, ए व्रत हरै न हारै।”

    भज पूरा करने के बाद गदगद वाणी ले किहिस, “अहा, जन्म जन्मान्तर के मनोकामना आज पूरा होइस हे। प्रभु, अदभूत रूप हे आपके। जतना फोटो आपके संसार म चलत हे, ओमे से काकरो ले नी मिले।”

    भगवान स्तुति ले ‘बोर’ होवत रिहिसे। गुरेर के (करवाई से) किहिस, “अच्छा, अच्छा ठीक हे। अब का चाहथस, ले बोल।”







    भगतजी हे विनती करिस, “भगवान, आप ले का छिपे हे ? आप तो सबके मनोकामना ला जानथव। केहे गे हे - ‘राम झरोखा बैठके सबका मुजरा लेय, जाकी जैसी चाकरी ता को तैसा देय!’ प्रभु मोला स्वर्ग म कोनो बढ़िया से जघा देवा देव।”

    प्रभु ह किहिस, “तेंहा अइसे का करे हस, जेमा तोला स्वर्ग मिले!”

    भगतजी ला ए प्रष्न ले धक्का लगिस। जेकर बर अतेक करेंव उही पूछेव की तेंहा अइसे का करे! भगवान उपर खिसियाए ले का फोयदा - ए सोच के भगतजी घुस्सा ला पी लीास। दीनभाव से किहिस, “मैं रोज आपके भजन करत रेहेेंवं।”

    भगवान ह पूछिस; “फेर लाउडस्पीकर काबर लगावत रेहे ?”

    भगतजी सहज भाव ले किहिस, “वो डाहर सब झन लाउडस्पीकर लगाथे। सिनेमा वाले, मिठाई वाले, काजर बेचइया सबो वोकर उपयोग करथे, त महूँ कर लेंव।”

    उमन ह किहिस, “उमन तो अपनी चीज के विज्ञापन करथे। तें का मोर विज्ञापन करत रेहे ? मैं का बिकाऊ माल अवँ ?”

    भगतजी सन्न रहिगे। सोचिस, भगवान होके कइसे बात करथे।

    भगवान ह पूछिस, “मोला तैं अन्तर्यामी मानथस न ?” 

    भगतजी किहिस, “जी हव।”

    भगवान ह किहिस, “त फेर अन्तर्यामी ला सुनाए बर लाइडस्पीकर काबर लगावत रेहे ? मैं का मैरा अवँ ? इहां सब देवता मन मोर हंसी उड़ाथे। मोर गोसइन घलो खिल्ली उड़ाथे की एक भगत मोला मैरा समझथे।”








    भगवान ला अऊ जादा घुस्सा अइस। वोह केहे लगिस, “ते। कतनो साल ले मुहल्ला भर के मनखे मन ला लेग सकत रिहिन हे, न चैन से बइठ सकत रिहिन अऊ न सूत सकत रिहिन। वोमा से आधा मन तो मोर ले घृणा करे ला धर ले हे। गुनथे, कहूं भगवान नी होतिस ते उमन हा अतना हल्ला नी मचातिस। तैंह मोला कतना बदनाम करे हस!”

    भगत ह हिम्मत करके किहिस, “भगवान, आपके नाम ह मनखे मन के कान म जावत रिहिसे, ए तो उँकर मन बर बढ़ियच रिहिसे। उमन ला अचनाक पुण्य मिल जावत रिहिसे।”

    भगवान ला भगत के मूर्खता उपर तरस अइस। किहिस, “कोन जनी ए परम्परा कइसे चलिस की भक्त ला मूर्ख होना जरूरी हे। अउ कोन ह तोला किहिस की मैं चापलूसी पसन्द करथवँ ?” तैं का एक समझत हस की तैं मोर स्तुति करबे ताहन मैं कोनो बेवकूफ अफसर कस खुष हो जहूँ ? मैं अतना बेवकूफ नी हवं भगजती की तोर असन मूर्ख मोला बुद्धु बना ले। मैं चापलूसी ले खुष नी होववं, कर्म देखथनं।”

    भगतजी किहिस, “भगवान, मैं कभू कोनो कुकर्म नी करे हवं।”

    भगवान हँसिस। किहिस, “भगत, तैंह कतनो मनखे मन के हत्या करे हस। उहाँ के अदालत ले तो बाँच गेस, फेर इहाँ नी बाँचस।”

    भगतजी अब धीरज नी घर सकीस। वोह भगवान के नीयत के बारे म सक्की होगे। गुने ला धरिस ए ह भगवान होके लबारी मारत हे। थोकिन ताव म आके किहिस, “आप ला लबारी मरई हे फभे नही। मैं कोनो मनखे के जान नी ले हवं। अब तक ले मैं सहत रेहेंव, फेर फोकट के आरोप ला मैं सहन नी कर सकवँ। आप सिद्ध करव की मैं हत्या करे हवँ।”






भगवान ह किहिस, “मैं फेर काहत हवँ की तैं हत्यारा अस। अभी प्रमाण देवत हवँ।”

    भगवान ह एक झन अधेड़ उमर के मनखे ला बलइस। भगत ले पूछिस, एला चिन्हत हस ?”

    “हव, एहा मोर मोहल्ला के रमानाथ मास्टर ए साल भर पहिली बीमारी ले मरे रिहिसे।” भगत ह विष्वास से किहिस।

    भगवान किहिस, “बीमारी ने नही, तो भजन ले मरे हे। तो लाउडस्पीकर ले मरे हे। रमानाथ तोर मृत्यु कइसे होइस ?”

    रमानाथ ह किहिस, “प्रभु मैं बीमार रेहेंव। डॉक्टर मन किहिन की तोला भरपूर नींद अउ आराम मिलना चाही। फेर भगतजी के लाउडस्पीकर म अखण्ड कीर्तन के मारे न मै सूत सकेंव न आराम कर सकेंव। दूसर दिन मोर हालत बिगड़ गे अउ चौथा दिन मैं मर गेंव।”

    भगत सून के घबरा गे।

    तभे एक झन बीस-एक्कइस बच्छर के छोकरा ल बलाय गीस। वोह पूछिस, “सुरेन्द्र तैं कइेस मरे ?”

    “मैं आत्महत्या कर ले रेहेंव।” वोह जवाब दीस।

    “आत्म हत्या काबर कर ले रेहे ?” भगवान ह पूछिस। सुरेन्द्रनाथ ह किहिस, “मैं परीक्षा म फेल हो गे रेहेंव।”

    “परीक्षा म फेल कइसे हो गे रेहे ?”

    “भगतजी के लाउडस्पीकर के सेती मैं पढ़ नी सकेव। मोल घर ह मन्दिर के तीरे म हे न!”

    भगतजी ला सुरता अइस की ए लइका ह वोकर





     ले बिनती करे रिहिसे की कम-से-कम परीक्षा के दिन म लाउडस्पीकर झन लबाव जी।

    भगवान ह शक्त होके किहिस, “तोर पाप मन ला देखत, मैं तोला नरक म डारे बर आदेष देवत हवं।”

    भगत जी ह भागे के कोषिष करिस, फेर नरक के खूंखार दूत मन ओला पकड़ लीस।

    हमर भगतजी, जेला हम धर्मात्मा समझत रेहेन, नरक भोगत हे।




















वोह का रिहिसे

(वह क्या था)

बिहनिया ओकर इन्तकाल होगे। वोह इतवार के छुट्टी के दिन मरिस। बइसात हे, फेर वोह बियान के दिन मरिस। बिहनिया मरगे तिही पाय के हम्मन तीन-चार घन्टा म ओला देन। रात कन मरतिस ते रतजगा होतिस अउ माईलोगिन मन ला जादा रोय बर परतिस। हार्ट फेल ले एके घांव म मर गे, कोनो ला ओकर सेवा करे के तकलीफ नी होइस। शनिच्चर के वेतन लान के क्रिया-कर्म करे बर खर्चा छोड़ के मरिस। वसियत लिख के मरिस, जेकर ले अवइया समय म परिवार म झगरा झन होवय।

जइसने जिइस, वोइसने मरिस।

संझा कन परछी म बइठे-बइठे मैं ओकर बारे म गुनत रेहेंव। कतना बिना ओरी-पारी के गोठ सुरता आथे।

मोर परछी ले ओकर सिढ़िया म दिखथे। मैं ओला सीढ़िया ले चढ़त-उतरत देखवं। वोह निच्चट हलू-हलू पांव रख के धीरे-धीरे सीढ़िया चढ़य उतरय। अइसे ढंग ले की सीढ़िया मन उपर दबाव झन परे। ओला धक्का झन लगे। चले ले आवाज नी आवय। लगे जइसे अपने घर मे चोरी करे बर खुसरत हे। वोह सीढ़िया ले माफी मांगज राहय। माफी देबे, मोला तुंहर उपर पांव रखे बर परत हे। मोर मजबूरी हे। मोला घर म तो जाएच बर परही। 

जघा छोटे हे। सीढ़िया करा कभू तीन-चार ठन साईकिल मन रखाय राहय। वोह कोनो साइकिल ला हटा के रद्दा नी बनाय। लहरावत अउ एती-ओती मुड़कत साइकिल मन के बीच ले अइसे निकल जाय की कोनो साइकिल छुवाय घलो नही।





मैं परछी म बइठे रहितेंव त वोह नमस्ते करे। धीरे-धीरे एक हाथ ला आधा उठायअउ बहुत धीरे से ‘नमस्ते’ करे।  जब ओकर हाथ नीचे आ जय तब मोला ‘... ते’ सुनई परे। जब वोह पहिली सीढ़िया म पांव रखे, त मोला ओकर हाथ खाल्हे होवत दीखे अउ ‘ते’ सुनई परे। वोह फूर्ती ले गर्मजोषी के साथ दुनो हाथ जोर के पूरा ‘नमस्ते’ नी करे। ओला डर रिहिसे मैं हड़बड़ा के झटका के साथ हाथ जोड़हूँ। वोह मोला ए तकलीफ ले बचावत रिहिसे। कभू मैंह पहिली ले नमस्ते कर लेतेंव त वोह ठिठक जाय। झण भर स्थिति ला समझतिस अउ हाथ आधा उठा के ‘ते’ करत सीढ़िया उपर पाँव रख देतिस।

कभू वोह मोर करा दू मिनट बइठ जतिस। सुरता आथे। वोह बइठे रिहिसे। माछी मन बहुत रहिसे। मैं एक ठन पत्रिका ले जोर से माछी मन ला उड़ावत रेहेंव। मैं देखंेव, ओकर नाम म घलो दू ठन माछी मन ला उड़ा दिस। वोह जइसे क्षमा मांगत हे-‘माफी देबे, मोर इरादा तोला कभू तकलीफ दे के नइहे। फेर तैं मोर नाक उपर बइठे हस। थोकिन दुरिहा चले जा। चाहबे त दुबारा बइठ जबे, नाक तोरेच ताय।’

एक दिन संझा कन बिजली चले गे। मैं मोमबत्ती जला के बइठे रेहेंवं वोह आके बइठगे। मैं केहेंव-“बिजली चले गे।”

वेह किहिस, “हव जी, बड़ अंधियार होगे।”

मेंह केहेंव, मोर तो तबियत खराब हे आप वो सामने के मकान ले फोन कर देव। बिजली आ जही।

वो किहिस, “आ जही, जी! सबो के घर तो अंधियार हे।” वो नी गीस, मैंह दुबारा केहेंव त वोह उही जवाब दिस, “सबो के घर तो अँधियार हे।”







मोला समझ म नी आवत रिहिसे की सबके घर म अंधियार हे, त अइसन म वोकर घर म अंजोर कइसे आवत होही! फेर वोह तो सन्तोष से बइठे रिहिसे।

बरसात म आघु म पानी भर गे रिहिसे। कीचड़ जमा हो गे रिहिसे। वोह अकसर काहय, “इहां कीचड़ हो गे हे। तकलीफ होथे।”

मेंह केहेंव, “वो मेर एकाद कनिक पथरा अउ ईटा डलवा देव।”

वोह किहिस, “का करबे, जी। सबो ला तकलीफ हे।”

सबो ला तकलीफ हे, इसी एहसास ले वोह पथरा अउ ईटा नइ डरवावत रिहिसे। पांव, पनही अउ कपड़ा ला खराब करके कीचड़ ले जावय। एक झन परोसी ह उहां पथरा वगैरहा डरवइस त वहू ला सुभीत्ता होइस।

कतनो छोटे-छोटे बात हे। अजब किसम के आदमी रिहिसे। कोनो विरोध करबेच नी करे।

एक दिन बाहिर ले अइस तहान मोर करा बइठ गे। केहे ला धरिस, “मोला तो परोसी के कुकुद ह चाब देहे।”

मैंह केहेंव, “कते मेर ?”

वोह किहिस, “मैं जावत रेहेंव, रद्दा म कुकुर ह हबक दीस। पाँव म वोह मुह मारिस। गनीमत ए होइस जी ओकर दाँत ह पाँव म नी गड़िस। पैण्ट ह चिरागे। ए देख।”

मोला घुस्सा अइस। मैंह केहेंव, “वो कुकुर के बहुत षिकायत हे। आप पुलिस म रिपार्ट कर देव।”

वोह किहिस, “का रिपार्ट करबे, जी। सबो कुकुर ह चाबथे।”

मैंह केहेंव, “आपके पैण्ट चिरा गे हे। आप कुकुर के मालिक ले पैण्ट के पइसा ले लेव।”





वोह शान्ति भाव ले किहिस, “अजी, सबो ला कुकुर ह चाबथे।”

एक दिन वोकर लड़की ह संझा कन बहुत देर तक घर नी आए रिहिसे। वोकर दाई परेषान रिहिसे। वो गम्भीर रिहिसे। वोकर गोसइन ह घेरी-बोरी वाला काहय, “जा खोज-बीन कर! बहुत अंधियार हो गे हे। जमाना खराब हे।”

वोह किहिस, “जमामना तो सबो बर खराब हे।”

    थोकिन देर बाद लड़की ह आ गे। मैं गुनत रेहेंव, ये वोला खिसियाही।

    वोह किहिस, “बेबी तेंह बहुत तंग करायस।” अउ झट से जोड़िस, “सबो बेबी मन तंग करथे।”

    बात खतम।

    एक दिन मैंह केहंेव, “सुने हवं, सराकर मंहगाई भत्ता के एक किस्त नी देवत हे।”

    वोह किहिस, “हव जी, सबो ला नी देवत हे।”

    मैंह केहव, “आप मन कुछु करत नी हव ?”

    वोह किहिस, “का करन, जी ? देवइया तो सरकार ए।

हम तो लेवइया अन। जब सरकार दिही, तब ले लिंगे।”

कुछ दिन बाद हड़ताल के घोषणा होगे। मैंह ओला केहेंव, “काली ले आपके इहां हड़ताल हे। आप तो काली काम म नी जाव।”

वो किहिस, “मैं तो काम म जाहूँ।”

मैंहे केहेंव, “काबर ? आप हड़ताल नी करव ?”

“वोकर जवाब रिहिस, सबो झन तो हड़ताल करत हे, जी।

मोरे नी करे ले का बिगड़ही ?” 

मैंह केहेंव, “त का आप महंगाई-भत्ता नी लेेव ?”

वोह किहिस, “सब ला मिलही त महूं ले लेहूं।”

बड़ विचित्र आदमी रिहिस। हर स्थिति म अइसने कहिके निकल जात रिहिसे।



नजदिकी भाव वोह हर स्थिति म बना के रखे। चुनाव होवत रिहिसे। मोर करा वोकर सिवाय दू झन मनखे अऊ बइठे रिहिसे। हम्मन पार्टी मन के बारे म, उम्मीदवार मन के बारे म गोठियावत रेहेन। उंकर गुण अउ दोष मन के गोठ-बात होवत रिहिसे।

एक झन हे किहिस, “ए पइत जतना पार्टी जरूर जीतही।”

दुसरा ह किहिस, “नही, कुछु भी हो जाय कांग्रेस के जीते के जादा सम्भावना हे।”

वोह ह धीर लगा के किहिस, “देखव जी, दु झन लड़थे त एक झन तो जीतबेच करथे।”

मैं केहेंव, “फेर आप ला कोन से पार्टी पसन्द हे।”

वोह किहिस, “अपन बर तो दोनो ह बढ़िहा हे।”

मैंह पूछेवं, “तभो ले आप कोन ला वोट दुहू ?”

वोह किहिस, “मैं तो वोट देयेच बर नी जांव। 

सब झन तो वोट डारही। मोर का जरूरत हे ?”

मैंह केहेंव, “मने आप बर कोनो भी सरकार होय!”

वोह किहिस, “हव जी, सबो सरकार तो एके जइसे होथे।”

कतनो गोठ वोकर सुरता आथे। कइसन आदमी रिहिसे!

वोह आज बिहिनया मरगे। मरे के पहिली ओला थोकिन होष अइस। वोह आँखी उघार के चारो कोती देखिस अउ धीरे से किहिस, “सबो मरथे, जी!” अउ मरगे।









सोचत हवं, कइसन आदमी रिहिसे। कभू रूकावट नी करिस। कभू तन के खड़ा नी होइस। चांटी ले घलो बांच के चलिस। कभू मना नी करिस। कोनो विरोध नही। कुछु ह सहे के नइहे अइसे नी लगिस।

एक झन अइसे आदमी रिहिसे, जेकर करा जलत मषाल धर के जावे ते बुझा जय।

मैं गुनत रेहेंव ओतके बेर एक झन परोसाी संगवारी आ गे। वहू ह स्वर्गवासी के बारे म सोचत रिहिसे।

केहे लगिस, “भईया का आदमी रिहिसे!

मैं तो सोचथवं, वोह सन्त रिहिसे।”

मै कुछु नइ केहेंव।

संगवारी ह फेर पूछिस, “बता ना का रिहिसे वाहे ?”

में वोलेंव नही। गुनत रेहेंव।

संगवारी किहिस,  “बोल ना, का रिहिसे वोह ?”

ठउका वोतके बेर मोर पांव ला कोनो गुजगुजहा ची ह छुइस।

मैं जोर से पांव ला झटकारेंव। गंगेरवा दुरिहा जा के गिरिस।

संगवारी ह पुछिस, “का रिहिसे ?”

मैंह जोर से केहंेव, “गंगेरबा रिहिसे।”










जइसे ओकर दिन बहुरिस

(जैसे उनके दिन फिरे)

    एक झन राजा रिहिस। राजा के चार झन टूरा रिहिसे। रानी मन ? रानी मन तो अनगीतन रिहिन हे, महल म एक ठन ‘पषुषाला’ (पिंजरापोल) भर खुले रिहिसे। फेर बड़े रानी ह बाकी रानी मन के बेटा ला जहर दे के मार डरे रिहिसे। अउ ए बात ले राजा साहब ह बहुत खुष होय रिहिसे, काबर वोह नीतिवान रिहिसे अउ जानत रिहिसे की चाणक्य के आदेष हे, “राजा अपन बेटा मन ला भेड़िया समझे।” बड़े रानी के चारो बेटा मन जल्दी राजगद्दी म बइठना चाहत रिहिसे, तिही पाय के राजा साहब ला डोकरा होय बर परिस।

एक दिन राजा साहब ह चारो बेटा मन ला बला के किहिस, “बेटा हो, मोर चौथा अवस्था आ गे हे। छारथ ह कान के तीर के चूंदी पाकते मार राजगद्दी ला छोड़ दे रिहिये। मोर चूंदी ह करिया अउ पक्का मिल के खिचरी कस दिखथे, भले जब करिया रंग(खिजाब, केषकल्प) हे घोवा जथे तब पूरा सिर ह सफेद हो जथे। मैं सन्यास लुहूं, तपस्या करहूं। वो लोक ला सुधारना हे ताकि तैंह जब उहां आबे त तोर बर मैं राजगद्दी तैयार रख सकवं। आज मैंह तुमन ला ए बताए बर बनाए हवं की गद्दी म चार झन बइठे के लइक जघा नइहे। वहू कइसनो करके चारो झन समा भी गेव, त एक दुसर सन धक्का-मुक्की होही तहान सबो झन गिरहू। फेर मैं दषर हा सरीख गलती घलो नही करवं की चोरा झन म काकरो सन पक्षपात करवं। मैं तंुहर परीक्षा लुहूं। तुमन चारो झन आजे राज्य ले बाहिर







चल देव। ठीक एक बच्छर बाद इही फागुन म पून्नी के दिन चारो झन दरबार म हाजिर होहू। मैं दूखहूं की एक साल म कोन कुतना धन कमाय हे अउ का विषेष योग्यता पाय हे। तब मैं मंत्री के सलाह ले, जेला सबले योग्य समझहूं, राजगद्दी दे देहूं। ”

“जो आज्ञा” कहिके चारो झन राजा साहब के बिना भक्ति के पांव परिन अउ राज्य के बाहिर चल दिन। परोसी राज्य म पहंुच के चारो राजकुमार मन अलग-अलग चार रद्दा ला धरिन ताहन अपन पुरूषार्थ अउ किस्मत ल अजमाए बर चल दिन।

ठीक एक बच्छर बाद-

फागुन म पुन्नी के दिन राज-सभा म चारो लड़का मन हाजिर होइन। राज सिंहासन म राजा साहब बिराजमान रिहिसे, ओकर तिरेच म थोकिन खाल्हे के आसन म प्रधानमंत्री बइठे रिहिसे। आगु डाहर माह, विदूषक अउ चाहूकार शोभा पावत रिहिन हे।

राजा ह किहिस, “बेटा हो! आज एक साल पूरा हो गे अउ इहां हाजिर घलो होगे हव। मोला उम्मीद रिहिस की ए एक बच्छर म चारो में से तीन झन बीमारी के षिकार हो जहू नी ने एक झन हा बांचे तीन झन ला मार डरही तहान मोर समरूया हा हो जही। फेर तुमन चारो झन ए मेर खड़े हव। खैर, तुम चारो में से एक-एक करके मोला बताव की कोन हे ए एक बच्छर म का बूता करे हे, कतना धन कमाय हे अउ राजा बर जरूरी कोन से योग्यता पाय हे ?”









अइसे कहिके राजा साहब ह बड़े बेटा डाहर देखिस।

बड़े बेटा हाथ जोड़ के किहिस, “पिता जी, मैं जब दुसर राज्य म पहंुचेव, त मैंह विचार करेंव की राजा बर ईमानदारी अउ परिश्रम बहुत आवष्यक गुन आय। इही पाय के एक झन व्यापारी के इहां गेंव अउ उंकर इहां बोरा मन ला डोहारे के बूता करें ला धर लेंव। पीठ म मैंह एक साल ले बोरा डोराहे हवं, मेहनत करे हवं। ईमानदारी ले धन कमाए हवं। मजदूरी ले बचाय गे ये दे सौ ठन सोना के सिक्का मोर करा हे। मोला भरोसा हे की ईमानदारी अउ मेहनत ह राजा बर सबले जादा जरूरी हे अउ मोर म ये हे, इही पाय के राजगद्दी के अधिकारी मैं हवं।”

वोह मौन होगे। राज-सभा म सन्नाटा छा गे।

राजा ह दुसरा बेटा ला इषारा करिस। वोह किहिस, “पिताजी, मैंह राज्य ले निकले के बाद सोचंेव मैं राजकुमार अवं, क्षत्रिय अवं-क्षत्रिय बाहुबल उपर भरोसा करथे। इही पाए हे मैंह परोसी राज्य म जाके डाकु मन के एक ठन गिरोह जोड़ेंव तहान लूटमार करे ला धर लेंव। धीरे-धीरे मोला परोसी राज्य के कर्मचारी मन के सहयोग मिले ला धरिस तहान मोर बूता ह बहुत बढ़िया चले ला धर लीस। बड़े भइया जिंकर इहां काम करत रिहिसे, उंकर इहां मैंह दु घांव चोरी करे रेहेंव। ए एक बच्छर म कमई के पांच लाख सोना के सिक्का मोर करा हे। मोर भरोसा हे की राजा ला साहसी अउ लुटेरा होना चाही, तभे वोह राज्य के विस्तार कर सकथे। ए दुनो गुन मोर म हे, इी पाए के मिहिच्च ह राजगद्दी के अधिकारी हव।”









‘पांच लाख’ सुनते भार दरबारी मन के आँखी म टकट की छागे।

श्राजा के इषारा म तीसर बेटा किहिस, “देव, मैंह वो राज्य म जा के व्यापार करेंव। राजधानी म मोर बहुत बड़े दुकान रिहिसे। मैं घीव मूंगफली के तेल अउ शक्कर म रेती मिला के बेचत रेहेंव। मैंह राजा से बनिहार तक सब झन ला घी-षक्कर खवायेंव। राज-कर्मचारी मोला पकड़त नी रिहिसे, काबर की उमन ला मैं फायदा में से हिस्सा देखत रेहेंव। एक पांव खुदे राजा हा मोला पुछिस की शक्कर म ए रेती जइसे का मिले रथे ? मैंह जवाब देंव की करूणा निधान, ए हा विषेष किसम के उच्च कोटी के खदान ले मिले शक्कर आय, जउन ला सिर्फ राजा-महाराज मन बर मैह विदेष ले मंगाथवं। राजा एला सुन के बहुत खुष होइस। बड़े भइया ह जउन सेठ के घर बोरा डोहारत रिहिसे वोह मोरे मिलावटी माल खावत रिहिसे। अउ मंझला लूटेरा भइया ला घलो मूंगफल्ली के तेल-मिले घी अउ रेती मिले शक्कर मैंह खवायेंव हवं। मोला भरोसा हे की राजा ला बेईमान अउ धूर्त होना चाही तभे ओकर राज टिक सकथे। सीधवा राजा ला कोनो एक दिन घलो नी टिकन दे। मोर म राजा के लइक दुनो गुण हे, तिही पाय के गद्दी के अधिकारी मैं हवं। मोर एक साल के कमई दस लाख सोना के सिक्का मोर करा हे।”

‘दस लाख’ सुन के दरबारी मन के आँखी म अउ टकटकी आगे।

राजा ह एकर बाद सबसे छोटे राजकुमार डाहर ला देखिस। छोटे बेटा के पहिरावा-ओढ़ाना अउ चेहरा-मोहरा तीनो ले अलग रिहिसे। वोह तनु म चकचक ले सफेद अउ मोट्ठा कपड़ा पहिरे रिहिऐ। पांव अउ मुड़ी ह खुल्ला रिहिसे।








ओकर चेहरा म बड़ सीधवा पन अउ आँखी म बड़ करूणा रिहिसे।

वोह किहिसे, “देव मैं जब दुसर राज्य म पहुंचेंव त मोला तो पहिली कुछु सुझबे नी करिस की मैं करवं का ? कतको दिन ले मैं लांघन-भूखन भटकत रेहेंव। रंेगत-रेंगत एक दिन मैं एक ठन महल के आघु म पहुंचेंव। ओमा लिखाय रिहिसे ‘सेवा आश्रम’। मैं भीतरी म गेंव त उहां के चका चौंध ला देख के दंग रहि गेंव। अइसन तड़क-भड़क तो राज-भवन म घलो नइ हे। उहां तीन चार झन मनखे मन ढेर के ढेर सोना के सिक्का मन ला गिनत रिहिन हे। मैंह उमन ला पुछेंव, “सज्जन हो, तुंहर धन्धा का ए ?”

ओमे से एक झन किहिस, ‘त्याग अउ सेवा।’ मैंह केहेंव, ‘सज्जन हो, त्याग अउ सेवा तो धर्म आय। येह धन्धा कइसे होइस ?’ वो मनखे ह चिढ़ के किहिस, ‘तोर समझ म ए बात नी आय। जा, अपन रद्दा म।’ 

सोना उपर मोर ललचाए नजर गड़े रिहिसे। मेंह पुछेंव, ‘सज्जन हो, तुमन अतना सोना कसइे पायेव ?’

“उही आदमी किहिस, ‘धन्धा ले।’ मैंह पुछेंव, ‘कोन से धन्धा ?’

“वोह खिसिया के किहिस, अभी बतायेंव न! सेवा अउ त्याग! तें का भैरा हस ?”

“ओमे ले एक झन ला मोर दषा देख के दया आगे। वोह पुछिस, तें का चाहथस ?”

“मैंह केहेंव, “महुं ह आपके धन्धा ला सीखना चाहत हवं। महुं ह अब्बड़ अकन सोना कमाना चाहत हवं।”

“वो दयालु आदमी ह किहिस, ‘त तैं हमर विद्यालय म भरती हो जा। हम एक सप्ताह म तोला सेना अउ त्याग





के धन्धा म पांरगत कर दिंगें। शुल्क एको कनी नी मांगे जाय फेर जब तोर धन्धा चल जही, तब श्रद्धा के मुताबिक गुरूदक्षिणा दे देबे।’

‘पिताजी, मैं सेवा आश्रम म पढ़े बर धर लेंव। मैं उहां राजसी ठाट ले राहत रेहेंव, सुन्दर कपड़ा पहिरत रेहेंव, सुघ्घर स्वाद वाले भोजन करत रेहेंव, सुन्दरी मन पंखा झेले, सेवक मन हाथ जोड़े आघु म खड़े राहय। आखिरी दिन मोला आश्रम के प्रधान ह बलवइस अउ किहिस, ’बेटा, ते सबो कला ला सीख गेस। भगवान के नाम ले के बूता के सुरूआत कर दे।’ वोह मोला मोट्ठा सस्ता कपड़ा दिस अउ किहिस, ‘बाहिर म एला पहिरबे। कर्ण के कवच कुण्डल कस ये हा बदनामी ले तोर रक्षा करही। जब तक तोर महल नी बन जही, तैं इही भवन म रहि सकथस, जा भगवान तोला सफलता दे।’

“बस, मैंह उही दिन, ”मानव-सेवा-संघ’ खोल देेंव। सोर उड़ा देंव की मानव-मात्र के सेवा करे के बीड़ा हम्मन उठाए हन। हम्मन ला समाज के उन्नति करना हे, देष ला आगु बढ़ाना हे। गरीब, लांघन-भूखन मरइया, अपाहिज मन के हम्मन ला सहायता करना हे। सब मनखे ए पुण्य काम म साथ बंटावव, हम्मन ला मानव सेवा खातिर चन्दा देवव। पिताजी, वो देष के निवासी मन बड़ भोला-भाला हे। अइसन केहे ले उमन चन्दा देय ला धर लिन। मँझला भइया ले घलो मैंह चँदा ले रेहेंव, बड़े भइया के सेठ ह घलो दिस अउ बड़े भइया ह घलो पेट काट के दु ठन सिक्का दिस। लुटेरा भाई ह घलो मोर चेला मन ला एक हजार मुद्रा दिस। काबर एक घांव राजा के सैनिक जब ओला धरे बर अइस, त ओला आश्रम म मोर चेला मन लुका ले रिहिन हे। पिताजी, राज्य के आधार धन आय। राजा ला प्रजा के धन वसूल करे के विद्या






आना चाही। प्रजा ले खुषी-खुषी धन सकेल लेना, राजा के आवष्यक गुण आय। ओला बिना बेधे खून निकाले बर आना चाही। मोर म ए गुण हे, इही पाय के मिहिच ह राजगद्दी के अधिकारी हवं। मैं ह ए एक बच्छर म चन्दा ले। बीस लाख सोना के सिक्का कमायेंव जउन मोर करा हे।”

‘बीस लाख’ सुनते भार दरबारी मन के आँखी अतेक तना गे के कोर डाहर ले लहू टपके ला धर लिस!

तब राजा ह मन्त्री ले पुछिस, “मन्त्रिवरं, आपके का राय हे ? चारो म कोन कुमार (बेटा) ह राजा बने के लइक हे ?”

मन्त्रिवर किहिस, “महाराज, एला सबो राजसभा समझत हे की सबले नान्हे (छोटे) कुमार ही सबले योग्य हे। वोह एक बच्छर म बीस लाख सिक्का सकेले हे। ओमा अपन गुण के सिवा बाकि तीनो राजकुमार मन के गुण घलो हे -बड़े जइसे परिश्रम ओकर करा हे, दुसर कुमार कस वोह साहसी अउ लुटेरा घलो हे। तीसर कस बेईमान अउ घूर्त घलो हे। इही पाय के उही ला राजगद्दी दे जाय।”

मन्त्री के गोठ सुन के राज सभा ह ताली बजइस।

दुसर दिन छोटे राजकुमार के राजतिलक होगे। तीसर दिन परोसी राज्य के गुणवती राज कन्या ले ओकर बिहाव घलो होगे। चौथा दिन मुनि के दया ले ओला पुत्ररत्न मिलगे, अउ वोह बड़ सुख ले राज करे लगिस।

कहानी रिहिस वोह तो सिरागे। जइसे ओकर दिन बहुरिस, ओसइने सबके बहुरे। 








मन्नू भइया के बरात

(मन्नु भैया की बारात)

कका ह जेब कतरे के अभ्यास करत रिहिसे।

वोह हम्मन ला जुन्ना कपड़ा पहिरा के जेब म पइसा राख देवत रिहिसे अउ बड़ सफाई ले पाकिट मारे के कोषिष करय। बहुत जल्दी वोह अतना कुषल होगे की दिन म दु-तीन घांव हमर जेब ला कतर लेवय अउ हम्मन ला पता नी लगे।

मोला बड़ उटपटांग लगे। अपनेच कका ह पाकिट मारे, त परेषानी होथे फेर मैं हैरान रेहेंव की येह अइसन काबर करत हे।

एक दिन मैंह काकी ला पूछेवं, “काकी कका हे पाकिट मारे बर काबर सीखत हे ? का ओला नौकरी ले बरखास्त करइया हे ?”

काकी ह किहिस, “नही रे, वो तो बारात के तैयारी करत हे। अवइया महीना मन्नू के बिहाव हे न। तहान चुन्नू के होही अउ ओकर बाद धुन्नू के। विद्या आय, अभी सीख लिही, ते आगु घलो काम आही।”

तभो ले बात ह मोर समझ म नी आइस। मैंह केहेंव, “फेर काकी, बिहाव खातिर पाकिट मारे बर सीखे के का जरूरत हे ?”

काकी हांसीस। किहिस, “ते नादान हस। कभू बरात म नी गे हस न! अब मन्नू के बरात म जाबे, तहान सब समझ जबे।”









बिहाव के तैयारी बहुत जोरदार होवत रिहिसे।

बरात जाय बर अब तीन-चार दिन बांचे हे, तब एक दिन कका अउ ममा सलाह करत रिहिन हे की बरात म कोन-कोन जाही।

कका ह किहिस, “कुछ मनखे मन ला ले जाना जरूरी होथे, जइसे हम्मन ला तीन चार बढ़िया पेषेवर जेब कतरा चाही। तैं स्टेषन जाके तीन-चार सन जेब-कतरा मन ला तय कर लेबे।”

ममा हा किहिस, “जब आप खुदे जेब काटे बर बढ़िया सीख ले हस, त उपराहा जब कतरा काबर लेगत हस ? भगवान के दे घर म सब चीज तो हे।”

कका हे किहिस, “भाई, मैं अवं नवा आदमी। सबो बूता ह मोर ले नी सम्हले। इही पाय के तीन-चार झन जेब कतरा अपन संग होना ही चाही। बाद म जगहँसाई होय, एकर ले का फायदा।”

ममा ह काकज म नोट कर लिस। फेर पूछिस, “हाँ अऊ ?”

कका ह किहिस, “अऊ दु चोर अउ दु झन डाकू घलो चाही। मैंह अपन संगवारी दरोगा श्यामसिंह ले कहि दे हवं। वोह बेवस्था कर दिही।”

    ममा ह लिख लिस। किहिस, “हमला एक दु झन पगला मन ला तो घलो ले जाए बर परही।”

    कका ह किहिस, “एक दु नही, कम से कम पाँच। फेर बड़ कोषिष करे के बाद दुए झन पगला मिले हे। कम-से-कम तीन अऊ चाही।”






 



    दुनो झन थोकिन कलेचुप बइठे रिहिन। फेर एकाएक ममा के चेहरा म चमक आ-गे। ओला कोनो बात सूझ-गे। वोह चुटकी बजा के किहिस, “समस्या सुलझ गे। अइसे करथन, तीन झन समाजवादी मन ला लेगथन। यहू मन घलो बढिया करिष्मा देखाथे। दु उमन अउ तीन एमन, कुल पाँच हो जही।”

    कका ला सुझाव पसन्द आ-गे। वोह किहिस, “ठीक हे। तैं आजे उंकर पार्टी कार्यालय जा के आदमी पक्का कर ले। अइसन ढंग ले तेरह-चौदह झन तो ये काम के आदमी हो जही। अब पन्द्रह-बीस निकम्मा आदमी लेगे ला ही परहां जउन शरीफ कहाथे। तैं अपन बहिनी संग बइठ-के एकर लिस्ट बना ले।”

    बरात तैयार हो-के स्टेषन पहुंच गे। हम्मन ला देखिस तहान यात्री मन म खलबली मच-गे। उमन डर के मारे एती-ओती भागे ला धर लीस। मनखे मन अपन समान अउ लइका मन ला सम्हालिस। पुलिस माईलोगन मन ला अपन संरक्षण म ले लीस।

    टिकट घर के तीर म एक ठन सूचना चिपके रिहिसे।?

     “यात्री मन ला चेतावनी दे जाथे की गाड़ी म बरात जावत हे। उमन लोग-लइका मन के संग म सफर झन करय। अपन समान ला सम्हाल के रखव। काकरो जान-माल क जिम्मेदारी रेल्वे उपर नी आय।”

    नोटिस ला पढ़-पढ़ के बहुत झन यात्री मन घर लहुटे ला धर लीन।

    हम्मन रेल के डब्बा म जा-के बइठ गेन। हमर डब्बा के तीर कोनो मनखे नी रिहिसे। खोमचेवाला मन घलो दुरिहा ले लहूट जावत रिहिन हे। हम्मन ला ए अच्छा








नी लागत रिहिसे। हमर संग के एक झन पगला किहिस, “एक तो हमर अपमान ए। जब हम्मन टिकिट ले हन, त हमर करा खोमचावाले मन ला आना चाही।”

    अइसे कहिके वोह डब्बा ले कूद दीस अउ दु-तीन खोमचा ला पलट के आ-गे। एकर बाद दूनो डाकू पहुँचिन अउ खाए के जिनीस ला झपट के अइन। हम्मन खुष होयेन। कका ह ममा ला किहिस, “बराती मन के चुनाव अच्छा होय हे अइसे लागत हे।”

    ममा ह, किहिस, “हव, लक्षण तो बढ़िया हे। बाकि उहंे देखिंगे।”

    हमर डब्बा के तीर ले दु झन मनखे निकलिन। वो मनखे मन नोटिस नी पढ़े होही। उमन ला देखते भार तुरते हमर पगला मन झपटिन अउ उमन ला चाब दीन।

    रेल्वे कर्मचारी मन म हलचल मच गे। उमन हमर मन के सेती चिन्ता म रिहिसे। घेरी-बेरी डब्बा करा आ के हम्मन ला देखे अउ लहुट जय। आखिर एक झन कर्मचारी ह हाथ म एक ठन तख्ती घर के अइस अउ वोह ओला हम्मर डब्बा म लगा दीस।

    ओमा बड़े अक्षर म लिखाय रिहिसे-‘कुकुर मन ले सावधान!’

    हमर गाड़ी आगु बढ़िस। एक स्टेषन के बाद दुसरा स्टेषन, दुसरा के बाद तीसर स्टेषन आवय स्टेषन उपर स्टेषन जइसने गाड़ी खड़ा होय, हम्मन जोर-जोर से बिक्कट चिल्लावन, जेला सुन के यात्री मन भागे तहान कुकुर मन भूँके ला धर ले। 

    एक झन पगला ह जंजीर ला तीर के बीचे म गाड़ी ला रोक दीस। गार्ड ह तुरते हमर डब्बा म अइस अउ पूछिस, “कोन ए जंजीर खींचे हे ?”

    पगला ह किहिस, “मैंह।”







    गार्ड ह पूछिस, “काबर ? का बात ए ?”

    हम्मन एक संघरा केहेन, “हम्मन गाड़ी ला मुड़ी म उठा के ले जइंगें।”

    गार्ड ह किहिस, “बने बात ए, उठा के लेग जव।”

    हम्मन बहुत जोर लगायेन फेर गाड़ी ला उठा के नी लेग सकेन। आखिर गार्ड ह ड्राइवर ला गाड़ी बढ़ाय बर इषारा करिस।

    कका उदास होगे। किहिस, “अब बरात कमजोर होय ला धर लेहे। पहिली के बात अलग रिहिसे। बड़े भइया के बिहाव म हम्मन गाड़ी ला मुड़ी म उठा ले रेहेन।”

    हम्मन लजा गेन।

    कई घंटा के सफर के बाद हम्मन लड़की वाले के शहर पहुंच गेन। उहां हम्मन ला एक ठन सुघ्घर सजे जेनवास म ठहरा दीस। हम्मन मुँह-हाथ धो-के बढ़िया सुन्दर कपड़ा पहिरेन।

    थोकिन देर बाद बाजा गाजा के संग बरात दुल्हिन के पहुंचिस।

    उहां बराती अउ घराती गला मिली के मिला होइन।

    लड़की के बाप ह कका संग गला मिलिस। दुना एक दुसर संग लिपट गे।

    कका ह मौका देख के बड़ सफाई ले लड़की के बाप के जेब ला कतर लीस।

    बाकी पेषेवर पाकिटमार मन ए इषारा पा के वधू पक्ष के कई झन के जेब काट लीन।










    जेनवास म लहूटेन, त कका ह बिक्कट खुष रिहिसे। किहिस, “श्रीगणेष बढ़िया होइस। मन्नू के लगन शुभ हे।”

    वोह वो जेब कतरा मन ला बधाई दीस। उमन लजा गे। किहिन, “बड़ई तो हम्मन ला आपके करना चाही। हम्मन पच्चीसो बरात म गे हन, फेर जउन सफाई ले आप लड़की के बाप के जेब कतरे हव, ओइसन हम्मन कोनो दूल्हा के बाप म नी देखे हन।”

    कका ह मुसकरा के किहिस, “अच्छा ...... अच्छा, दुसर मनखे मन अपन काम करय।”

    दुसर मनखे मन घलो अपना काम करे बर प्रण कर लीन।

    लड़की वाले मन नाष्ता धर के जब अइन त पगला मन प्लेट ला सूँघ के फेक दीन अउ किहिन, “एला कुकुर ला खवा देव। सरहा घी के कतेक बदबू आवत हे।”

    हम्मन पगला मन के अनुसरण करेन अउ अपन-अपन प्लेट मन ला फेंक देन।

    तीसरइया घांव जउन नाष्ता अइस, ओला पगला मन खाय ला धर लीन। हमु मन ओइसने करेन।

    नाष्ता करे के बाद पगला मन गिलास अउ बल्ब फोरे ला धर लीन। ए काम ले निपट के उमन एकादकनिक कुर्सी मन ला टोरिन।

    बीच-बीच म एक झन पगला ह लड़की के घर के आघु म खड़ा होके चिल्लाय-‘हम्मन बरात वापिस ले जइगें।’ एला सुन के बाप ह दउड़त आवय अउ कका के पांव म अपन मुड़ी रख देवय।








    वोती समाजवादी मन घलो काम म लग-गे रिहिन हे। उमन ब्लेड ले गद्दा ला चिरत रिहिन हे।

    मैंह केहेंव, “अच्छा, तुमन गद्दा ला चिरत हव!”

    उमन किहिन, “गद्दा ला नी चिरत हन, आन्दोलन करत हन।”

    मैंह केहेंव, “अइसे कोन से आन्दोलन ?”

    वोह मोला समझइस, “देखो, ये गद्दा ला वोह कोनो सेठ करा ले मांग के लाने होही। हम्मन सेठ के गद्दा चिर के पूंजीवाद के नाष करत हन।”

    मैंह ह केहेंव, “वो तो ठीक हे, फेर वो सेठ लड़की के बाप ले तो लड़ही।”

    वोह किहिस, “हव, तभे तो वर्ग संघर्ष के भूमिका तैयार होही!”

    मैं ओकर तर्क ले निरूत्तर हो गेंव। उमन गद्दा ला चिरे-फाड़े ला धर लीन।

    रात आधा हो गे रिहिसे। कका ह चोरहा मन ला बला के किहिस, “अब तुंहर मन के काम करे के बेरा आ गे हे। लड़की वाले के घर खुसर के जउन भी माल भत्ता होही, चोरा के ला लेव।”

    चोर मन चोरी करे बर चल दीन। चौथा पहर के उमन बहुत अकन समान चोरा के ल अइन। कका ह देखिस अउ किहिस, “काम तो ठीक होय हे, फेर सोना अउ रूपिया कम आय हे। खैर, जाओ सुत जव।”











    बिहनिया कका ह डाकू मन ला किहिस, “रात में चोर मन सोना अउ नगदी कम लाय हे। डर्रा गीन होही। चोर मन थोकिन डरपोकना होथे। अब तुमन जा के सोना अउ नगदी लूट के लाहू।”

    डाकू मन मूंछ म ताव देवत चल दीन। एके घन्टा म उमन बहुत अकन सोना अउ नगदी लूट के अइन। कका ह उंकर पीठ ला थपथपइस। मंझनिया कन खबर अइस की वधू के ददा ह बेहोष हो-गे-हे।

    कका खुष होइस। किहिस “एकर मतलब ए होइस की बरात कमजोर नइ हे। लड़की के बाप घलो भागमानी ए। वोह विदेह हो गे।”

    मैंह केहेंव, “कका, विदेह तो जनक ला काहत रिहिन हे।”

    कका ह किहिस, “हव, फेर विदेह नाम कब परिस ?”

    जब ओकर घर राम के बरात पहुंचीस, त वोह घबरा के बेहोष हो गे, सुध-बुध खो डरिस। लोगन मन किहिन की जनक तो ‘विदेह’ हो-गे। तभे ले ओकर ‘विदेह’ नाम घलो चल परिस। मन्नू के ससुर ह घलो विदेह हो-गे। हमर मन्नू ह बड़ भागमानी ए।”

    उही दिन संझा कन स्त्री मन ला छोड़े के कार्यक्रम बनिस। कका ह मोला किहिस, “तहूं जा। छेड़व, तंग करव।”

    मैंह केहेंव, “मोला ए ह बने नी लागे।”

    कका ह किहिस, “एमा बने-गिनहा लगे के बात नइ हे। एक ह तो एक कर्तवय आय। देष के हित म ए ह जरूरी हे।”








मैंह केहेंव, “स्त्री मन ला छोड़े ले देष के का हित होही ?”

कका ह समझइस, “देखो, लड़की वाले के घर बहुत अकन स्त्री मन बढ़िया-बढ़िया कपड़ा पहिन के आ-हे। उमन ला कहूं बराती नी छेड़ही त हजारो गज कपड़ा बेकार सिद्ध हो जही। ताहन बढ़िया कपड़ा बेचाही नही। येकर ले वस्त्र उद्योग उपर संकट आ जही। तुमन तो जानते हव की चीनी हमला के सेती देष एक समय नाजुक दौर ले गुजरत हे। अइसन म कहूं कोनो उद्योग उपर संकट आ जाय, त देष कमजोर होही। इही पाय के राष्ट्र-हित ला देखत स्त्री मन ला छेड़ना जरूरी हे।”

कका के तर्क ले मैं बहुत प्रभावित होयेंव। अउ छेड़-छाड़ मे संघर गेंव। तीन दिन हम्मन उहां बड़ मजा ले बितायेन। चौथा दिन बरात बिदा होइस।

हम्मन स्टेषन आयेन। गाड़ी म बइठे के बाद हम्मन ला खबर मिलिस की वधू के पिता के मृत्यु हो गे। 

कका बहुत खुष होइस। वोह हाथ जोड़ के आकाष डाहर ला देखत किहिस, “सब भगवान के कृपा ए। मोर घर म येह पहिली बिहाव आय। ईष्वर के कृपा ले ए बिहाव ह ए हद तक सफल होइस। मन्नू के ग्रह बढ़िया पड़े हे। भगवान चाहही, ते चुन्नू अउ धुन्नू के बिहाव एकर ले बढ़िया होही।”











भेड़ा अउ भेड़िया (हुड़रा)

एक घांव एक जंगल के जानवर मन ला अइसे लागिस की उमन सभ्यता के वो स्तर म पहुंच गे हे, जिंहा उमन ला बढ़िया शासन-व्यवस्था अपनाना चाही। 

अउ, एक मत ले ए तय होगे की वन-प्रदेष म प्रजातन्त्र के स्थापना हो। तुरते एक समिति बइठिस, तुरते विधान सभा बन गे अउ तुरते एक ठन पंचायत बनाय के घोषणा घलो हो गे जेमा वन के तमाम पशु मन डाहर ले चुने प्रतिनिधि हो अउ जउन मन वन-प्रदेष बर कानून बनाय अउ राज करे।

जउन वन प्रदेष म हमर कहानी के चरण पड़े हे, भेड़ा के संख्या जादा रिहिसे-निहायत नेक, ईमानदार, कोमल, विनयी, दयालु, निर्दोष पशु जऊन घास तक ला फूँक-फूँक के खाथे।

    भेड़ा मन सोचिन की अब हमर डर ह भाग जही। हम्मन अपन प्रतिनिधि ले कानून बनवइगें जेकर ले कोई जीवधारी कोनो ला सताय झन, मारे झन। सब जीये अउ जीवन दे। शान्ति, स्नेह, बन्धुत्व अउ सहयोग ले आधारित समाज हो।

    अउ, एती हुड़रा मन सोचिन की हमर अब संकट काल आ गे। भेड़ा मन के संख्या अतेक जादा हे की पंचायत म उंकरे बहुमत होही। अउ कहूं उमन कानून बना दिही की कोनो पशु कोनो ला झन मारे, त हम्मन खाबोन काला ? का हम्मन ला घास चबाए बर परही ? 

    जइसे-जइसे चुनाव तिरियात गीस, भेड़ा मन के उछाह बाढ़त गिस।

    एक दिन बुढ़वा कोलिहा ह हुड़रा ला किहिस - मालिक, आजकल आप बड़ उदास रहिथव। हर हुड़रा के तीर तार म दु चार कोनिहा रहिथेस।






जब हुड़रा अपना षिकार खा लेथे, ताहन ये कोलिहा मन हाड़ा म लगे मास ला कतर-कतर के खाथे अउ हाड़ा ला चुहकत रहिथे। इमन छुड़रा के तीर-तार पूछी हलावत चलथे अउ मौका-बेमौका म ‘हुआं-हुआ’ चिल्ला के उंकर जय बोलथे।

    बुढ़वा कोलिहा ह बड़ गंभीर हो के पुछिस्-महाराज, आपके चेहरा म चिन्ता-फिकर के बादर छाय हे ? वो कोलिहा ह एकाद-कनिक कविता करे बर घलो जानव होही नही ते शायद दुसर के रचना ला अपन बना के काहत रिहिस होही।

    खैर, हुड़रा ह किहिस-तोला का मालूम नइ-हे की वन-प्रदेष म नवा सरकार बनइया हे ? हमर राज तो अउ चलही।

    कोलिहा हा दाँत निपोर के किहिस- हम का जानन महाराज! हमर बर तो आपे ‘भाई-बाप’ अव। हम्मन तो कोनो अऊ सराकर ला नइ जानन। आपके दे खाथन, आप के गुन गाथन।

हुड़रा ह किहिस - मगर अब समय अइसे आवत हे की सुक्खा हाड़ा घलो चाबे बर नइ मिलही।

कोलिहा सब जानत रिहिसे फेर जान के अनजान बने के नाटक करे बर नी आतिस, त कोलिहा ह शेर नी बन जय रहितीस!

आखिर हुड़रा हा वन-प्रदेष के पंचायत के चुनाव के बात ला बुढ़वा कोलिहा ला समझइस अउ बड़ उदास हो-के किहिस-चुनाव अब लकठावत हे। अब इहां ले भागे के सिवा कोनो चारा नइ हे। फेर जावन कहां ?

    कोलिहा किहिस-मालिक, सरकस म भरती हो जव।








    हुड़रा ह किहिस-अरे, उहां घलो शेर अउ रीछ मन ला घलो संघेर लेथन, फेर हम्मन अतना बदनाम हन की हम्मन ला उहां घलो कोनो नी पूछय।

    ‘त’ कोलिहा ह खूब सोच विचार के किहिस- अजायब घर (चिड़ियाघर) म चले जाव।

    हुड़रा ह किहिस-अरे, उहां घलो जघा नइ हे। सुने हवं उहां तो मनखे मन ला रखे जात हे।

    बुढ़वा कोलिहा अब ध्यान मग्न होगे। वोह एक ठन आँखी ला मूंद लीस, खाल्हे के हाँढ ला ऊपर के दाँत ले दबइस अउ एक टक आकाष डाहर देखे ला धरिस जानो मानो विष्वात्मा ले कनेक्षन जोड़त हे। तहान बोलिस बस सब समझ आगे। मालिक, अगर पंचायत म आपके भेड़िया-जाति के बहुमत हो जाय त ? 

    हुड़रा खिसिया के किहिस - कहां के आसमानी बात करथस ? अरे, हमर जाति कुल दस प्रतिषत हे ओ डाहर भेड़ा अउ दुसर छोटे पशु नब्बे प्रतिषत। भला उमन हम्मन ला काबर चुनही ? कहूं जिन्दगी अपन आप ला मौत के हाथ सौप सकथे ? मगर हाँ मगर अइसन हो सकतिस त का बात रिहिसे।

    बुढ़वा कोलिहा किहिस-आप खिन्न झन होवत सरकार, एक दिन के समय देख। काली तक कोनो न कोना योजना बना ले जाही। मगर एक बात हे। आप ला मोर मुताबिक काम करे बर परही!

    मुसिबत म फंसे हुड़रा हा कोलिहा ला गुरू मानिस अउ आज्ञा पालन के किरिया खइस।

    बिहान दिन बुढ़वा कोलिहा ह अपन संग तीन झन कोलिहा मन ला धर के अइस। ओमा एक झन






ला पीयर रंग म रंग दे रिहिसे, दुसरा ला नीला रंग अउ तीसरा ला हरा रंग म।

    हुड़रा ह देखिस अउ पूछिस-अरे,इमन कोन ए ?

    बुढ़वा सियार किहिस-यहु मन कोलिहा ए, सरकार रंगे को लिहा आय। आपके सेवा करही। आप के चुनाव के प्रचार कर ही।

    हुड़रा ला सक होइस-फेर इंकर बात ला मानही कोन ? इमन तो अइसने छल-कपट बर बदनाम हे।

    कोलिहा हा हुड़रा के हाथ ला चूम के किहिस-निच्चट सिधवा हव आप, सरकार! अरे मालिक रूप - रंग बदल दे ले तोसुने हवं मनखे घलो बदल जथे। फेर इमन तो कोलिहा ए।

    ओकर बाद, नाहन बुढ़वा कोलिहा हा हुड़रा के रूप ला बदल दीस। माथ म तिलक लगइस, गला म कण्ठी पहिर इस अउ मुँह म कांदी (घास) ला खांेच दीस। किहिस अब आप पूरा सन्त हो गेव। अब भेड़ मन के सभा म चलबो। फेर तीन बात के सुरता रखबे-अपन हिंसक आँखी ला उपर झन उठाबे, हमेषा भुइया डाहर देखबे। अउ कुछु गोठियाबे झन, नही ते सब पोल खुल जही। उहां अऊ बहुत अकन भेड़ मन आही, सुन्दर-सुन्दर, मुलायम-मुलायम। ते उहां कोनो ला झपट के खाबे झन।

    हुड़रा ह पुछिस-फेर ए रंगे कोलिहा मन का करही ? का काम आही ?

    बुढ़वा कोलिहा ह किहिस-इमन बड़ा काम के आय। आपके सबो प्रचार ला तो इही मन करही। इंकरे मन के बदौलत तो आप चुनाव लड़हू। ए पींयर रंग वाले ह बड़ विद्वान हे, विचारक हे, कवि घलो हे, लेखक घलो। ए नीला रंग








के कोलिहा ह नेता अउ पत्रकार ए। अउ एक हरियर रंग के कोलिहा ह धर्मगुरू एं बस अब चलव।

    थोकिन रूक तो। हुड़रा ह बुढ़वा कोलिहा ला रोकिस-रंग किस-कवि, लेखक, नेता, विचारक-ये लां तो सुने हवं बड़ अच्छा मनखे होथे। अउ ए तीनो.............

    बात ला काट के कोलिहा किहिस-ए तीनो झन सिरतोन के नोहे, इमन रंगे हे महराज! अब चलव देरी झन करव।

    त्हान उमन चलिन। सबले आगू म बूढ़वा कोलिहा रिहिस, ओकर पीछू रंगे कोलिहा मन के म हुड़रा चलत रिहिसे-माथ म तिलक, गला म कण्ठी, मुख म कांदी के तिनका। निच्चट धीरे-धीरे रेंगत रिहिसे, एकदम गम्भीर मुद्दा म, मुड़ी ला नवाए बिनती के मूर्ति।

    ओती एक जघा म हजारो भेड़ा मन सकला गे रिहिन हे, ओ सन्त के दर्षन खातिर जेकर सोर ला बुढ़वा कोलिहा हा उड़ा दे रिहिसे।

    चारो कोलिहा हुड़रा के जय बोलावत भेड़ा मन के झुण्ड करा अइन।

    बुढ़वा कोलिहा ह एक घांव जोर से सन्त हुड़रा के जय बोलवइस। भेड़ा मन के बीच म इहां-उहां बइठे कोलिहा मन घलो जय बोलिन।

    भेड़ा मन देख के किहिन-अरे भागो, ए तो हुड़रा ए।

    तुरते बुढ़वा कोलिहा उमन ला रोक के किहिस-भाई अउ बहिनी मन। अब डर्राव बिल्कुल छोड़ दे हे। ओकर ‘हृदय परिवर्तन’ हो-गे-हे। वोह आज सात दिन ले कांदी








खावत हे। रात-दिन भगवान के भजन अउ परापेकार म लगे रहिये। वोह अपन जीवन ला जीव मात्र के सेवा बर सोपरित कर दे हे। अब वोह काकरो दिल ला नी दुखाय, काकरो, रूआ तक ला नी छुवय। भेड़़ा मन ले ओला खास प्रेम हे। ए जात के मन जउन पीरा सहे हे, उंकर सुरता करके अमीन घलो हुड़रा सन्त के आँखी म आँसू आ जथे। उंकर अपन हुड़रा जात के मन जउन अत्याचार आप मन उपर करे हे आंकर सेती हुड़रा सन्त के माथा ह लाज के मारे नव गे हे, तब ले नवे हे। फेर अब वोह बाकी जीवन आप मन के सेवा म लगा के जम्मो पाप के प्रायष्चित करही। आज बिहनियच के बात आय-एक झन मासूत भेड़ के लइका के पांव म कांटा गड़ गे, त सन्त हुड़रा ह ओला दाँत ले निकालिस; दाँत ले! फेर जब ओ बिचारा ह पीरा के मारे परान तियाग दीस, त हुड़रा सन्त ह बड़ आदर सम्मान ले ओकर अन्तिम संस्कार करसि। ओकर घर के आघु म जउन हाड़ा मन कुड़ही माड़े हे, ओकर दान के घोषणा वोह आजे बिहनिया करे हे। अब तो वाहे सब्बो ला त्याग डरे हे। अब आप ओकर ले डर्राव झन ओला अपन भाई समझो। बोलो सब मिल के - सन्त हुड़रा ही जय!

    हुड़रा अब तक ले ओइसने मुड़ी ला नवा के बिनती के मूर्ति बने बइठे रिहिसे। बीच म कभू-कभू आघु डाहर सकलाए भेड़ा मन ला देख लेवय अउ टपकत लार ला गुटक ले।

    बुढ़वा कोलिहा फेर किहिस-भाई अउ बहिनी मन, मैं हुड़रा सन्त ले अपन भुखार बिन्द ले आप मन ला प्रेम अउ दया के सन्देष दे बर बिनती करतेंव फेर मया के मारे ओकर हृदय भर आ हे, वोह गदगद हो-गे-हे, अउ भावना म बुड़े के सेती ओकर गला ह बइठ गे हे। वोह






गोठिया नी सकय। अब आप ए तीनो रंगीन प्राणी मन ला देखव। आप इमन ला नइ चिन्ह पाय होहू। चिन्हू घलो कइसे ? इमन ए लोक के जीव तो आय नही। इमन तो स्वर्ग के देवता आय जउन मन हमला उपदेष दे बर धरती म उतरथे। एक पींयर रंग के ह विचारक आय, कवि हे, लेखक हे, नीला रंग के ह नेता एक अउ स्वर्ग के पत्रकार आय। अउ हरियर रंग के ह धर्मगुरू ए। अब कविराज आप मन ला स्वर्ग संगीत सुनाही। सुनाव कवि जी.......

पींयर कोलिहा ला ‘हुआ-हुआ केहे के सिवा कुछ अउ तो नी आवत रिहिसे, ‘हुआ-हुआ’ चिल्ला दीस, बाकि कोलिहा मन घलो ‘हुआ-हुआ’ कही दीन। बुढ़वा कोलिहा ह आँखी के इषारा ले बांकि कोलिहा मन ला मना करिस अउ बड़ चतुराई ले बात ला ए कहिके सम्हालिस-भई कवि जी ह तो कोरस म गीत गाथे। फेर कुछु समझेव आप मन ? कइसे समझ सकथव ? अरे , कवि के बात ह सबके समझ म आ जही न फेर ओ कवि काहे के , ओकर कविता ले शाष्वत के स्वर फूटत हे। वोह काहत हे जइसे स्वर्ग म परमात्मा, ओइसने भुइंया म हुड़रा। हे हुड़रा जी हे महान। आप सर्वत्र व्याप्त हव, सर्वषक्तिमान अव। बिहनिया अउ संझा ह आपके माथ म तिलक लगाथे, संझा के किरण ह आपके मुख ला चूमथे, पवन आपके अग्नि म पंखा झेलथे अउ राज म आपके ज्योति ह अलग-अलग खण्ड होके आकाष म तारा बन के चमकथे। हे विराट! आपके चरण म एक क्षुद्र के प्रणाम हे।’

    ओकर बाद नीला रंग के कोलिहा हा किहिस-निर्बल मन के रक्ष बलवान ही कर सकथे। भेड़ा मन कोमल हे, निर्बल हे,








अपन रक्षा खुदे नी कर सकय। हुड़रा बलवान हे, इही पाय के ओकर हाथ म अपन हित ला सौंप के निष्चिन्त हो जव। वहू तुंहर भाई आय। आप मन एके जात के अव। तुमन भेड़ा उमन भेड़िया (हुड़रा)। कतना कम अन्तर हे! अउ बिचारा हुड़रा ला फोकट के बदनाम कर दे गे हे की वोह भेड़ा मन ला खाथे। अरे, खाथे दुसर मन, अउ हाड़ा ला उंकर मुहाटी म फेंक देथे। इमन फोकट के बदनाम होथे। तुमन तो पंचायत म बोल घलो नी पाहू। हुड़रा बलवान हे। कहूं तुंहर मन उपर अन्याय होही, त डट के लड़ही। इही पाय के अपन हित रक्षा खातिर हुड़रा मन ला चुन के पंचायत म 

भेजो। सब झन बोलो भेड़िया की जय!

    तहान हरियर रंग के धर्मगुरू ह अपदेष दीस-जउन इहा त्याग करही, वोह ओला ओ लोक म पाही। जउन अहां दुःख भोगही, वोह उहां सुख पाही। जउन इहां राजा बनही, वोह उहां राजा बनही। जउन इहां वोट दीही वोह उहां ‘वोट’ पाही। इही पाय के सब झन मिल के हुड़रा ला वोट दो। वोह दानी ए, परोपकारी ए, सन्त ए। मैं ओला प्रणाम करत हवं।

    एह एक हुड़रा के कथा नोहे, एक सब हुड़रा मन के कथा आय। सबो जघा अइसन ढंग ले प्रचार-प्रसार हो-गे अउ भेड़ मन ला भरोसा हो-गे की हुड़रा ले बड़े उंकर बर अउ कोनो हित-चिन्तक अउ हित-रक्षक नइ हंे।

    अउ अब पंचायत के चुनाव होइस त भेड़ा मन अपन हित-रक्षा खातिर हुड़रा मन ला चुनिन।

    अउ पंचायत म भेड़ा मन के हित के रक्षा खातिर हुड़रा मन प्रतिनिधि बन के गीस।

    ओकर बाद पंचायत म हुड़रा मन भेड़ा मन के रक्षा खातिर सबले पहिली ए कानून बनइन-

हर हुड़रा ला बिहनिया के नाष्ता म भेड़ा के एक मुलायम बच्चा दे जाय, मंझनिया के भोजन म सइघो भेड़ा अउ संझा कन स्वास्थ्य के ख्याल करत कम खना चाही, इही पाय के आधा भेड़ा दे जाय।



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