Monday 6 June 2022

लक्ष्मण मस्तुरिया : कवि, गीतकार और गायक ही नहीं, सशक्त गद्यकार भी"


 

"लक्ष्मण मस्तुरिया : कवि, गीतकार और गायक ही नहीं, सशक्त गद्यकार भी"


छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि लक्ष्मण मस्तुरिया को समूचा छत्तीसगढ़ कवि, गीतकार और गायक के रूप में जानता है किन्तु शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि वे एक सशक्त गद्यकार भी थे। उनका प्रथम गद्य संग्रह "माटी कहे कुम्हार से" सन् 2008 में प्रकाशित हुआ था जिसमें इकसठ लेख एवं निबंधों का संकलन है। लक्ष्मण मस्तुरिया की गद्य रचनाओं में शोषण की पीड़ा और शोषकों के प्रति विद्रोह स्पष्ट दिखाई देता है। ऐसा महसूस होता है कि उनका शब्द-शब्द क्रांति का बिगुल फूँक रहा है। उनकी कलम में छत्तीसगढ़ बोलता है, सिसकता है, कराहता है तो हुंकार भी भरता है। उनके गद्य में उनकी कविताओं की तरह ही रसानुभूति भी देखने को मिलती है। इस संग्रह की विशेषता यह है कि किसी न किसी मुहावरे या लोकोक्ति को प्रत्येक रचना का शीर्षक बनाया गया है। 


"माटी कहे कुम्हार से" किताब में संकलित रचनाओं के शीर्षक देखिए - 


घर में अँजोर नहीं घोड़सार बर दिया, आँखी के अँधरा-नाम के नयनसुख, साझो के सुई सांगा म जाय, सोन म खोट हे तब सोनार के का दोष, बिनत रहिस सीला हपट पड़िस बीड़ा, तोड़ा न पैरी फुदक नाचै भैरी, तहूँ रानी महूँ रानी कोन देवै पानी, बोकरा के जीव जाय खवइया अलोवन, पेट के नाम जगजीता संझा खाये बिहिनिया रीता, सहर म दे दे बुलउवा राधे को, सहराय बहू डोम घर जाए, कथरी ओढ़ के घी खाय, खेलाय के नाम नहीं गिराय के गोहार, चेरी छोड़ न होवब रानी, राँड़ी दुख्हाई के झगरा गाँव के विनास, गुड़ खाय गुलगुला संग परहेज, बात के धनी करम के कँगला, आये नाग पूजे नहीं भिंभोरा पूजे जाय, खाय मुर्रा बताय बतासा, सिखायपूत दरबार नइ चढ़े, गली गली म साधू रेंज संत फुँकाओ कान चोला तरे के झन तरे नरियर धोती ले काम, अपने रतन गँवा के माँगत फिरे भीख, जनम के मुरहा करम के हीन जइसे तइसे काटे दिन, तेल न तेलइ बरा बरा नरियइ, सौ मत वाले हालै झूले बहुमत परे उदानी एक मत के कोलिहा बिचारा डगरे डहर परानी, फूँक फूँक के पाँव धरे अपने घर म बूड़ मरे, एक हाथ ले ताली नइ बाजय, जतके ओनहा ततके जाड़, नाँगर के न बक्खर के दौरी बर बजरंगा, जउन थारी म खाना उही म छेद करना, बिलाई ताके मुसवा छानी म सपट के, बोए बर बम्भरी आम खाये के साध रेंगइया बर का धूप का छाँव, जइसे खाये अन्न तइसे बने मन, कमाय निगोटी वाले खाय टोपी वाले, जर न ताप कीचक मरे आपेआप, घर म बल बताय खोर म पाँव परे, ओले आइन पोले गइन, निहानी के चोरी सुई के दान, कुकुर भूँके हजार हाथी चले बजार, पाँव बिन पनही के का मोल मनखे नइ रइहीं त लछमी ल कोन पूछही, टठिया न लोटिया फोकट के गौंटिया, बदना बदे नरियर फोर चढ़ावे बेल, मन के लड्डू खाय म पेट नइ भरै, जुच्छा गर ले घोंघी नीक, तिहार के ततेरा उजर गे बसेरा, एक ठन लइका गाँव भर टोनही, नौ हाथ लुगरा पहिरे तभो ले देह उघरा, बीमार हे बिलइया मुसवा टेंवे कान, अपन बोली अपन रुवाब पाँव म राख के मूड़ म खाप, मर मरे बरदवा बाँधे खाये तुरंग, नकटा के नाक कटे चार आँगुर बाढ़े, जरूरत ऊपर जुगति जुगाड़, मही माँगे जाय अउ ठेकवा लुकाय, बिच्छी के मंतर नइ जाने साँप के बिल म हाथ डारे, दहरा म मछरी भांठा म मोल, लागे भैंस के चस्का देहे न भावै गाय, रहे बर नांदगाँव बखाने बर बिरकोनी, कभू काल के खाइस पान दाँत निपोरिस गइस परान।


" माटी कहे कुम्हार से" के हर लेख और निबन्ध  में छत्तीसगढ़िया के स्वाभिमान को जगाने का प्रयास किया गया है। एक बानगी देखिए - 


देस के कोना कोना म सुराजी जागरन होत हे, अपन हक अउ अपन अधिकार बर हर आदमी जागे हें तब छत्तीसगढ़ म अँधियार काबर घोपत जात हे? कहाँ गुरु घासीदास के सतनाम के झंडा उठइया मन परे हें? कहाँ हे सुन्दरलाल शर्मा के जगाय बिरवा मन? कहाँ मेर सपटे परे हें ठाकुर छेदीलाल अउ प्यारेलाल के आसीस मन? बीर बघेल के अनुयायी मन, सब जतर खतर होगे हें। एकता के धागा म कब जुरहीं? कब इंकर लहू म उबाल आही? उही दिन के ये माटी ल इंतजार हे।

(माटी कहे कुम्हार से - मर मरे बरदवा बाँधे खाये तुरंग)


पुलिस प्रश्न की चाक-चौबन्द व्यवस्था होने के बावजूद अपराधों की संख्या में निरंतर हो रही वृद्धि पर चिंता करते हुए वे लिखते हैं - 


हजारों हजार साल ले अपराधी ल सुधारे के काम पुलुस के ऊपर लाद दे गेहे। तभो ले कोनो जुग म अपराध म कमी नइ होत हे। जेल थाना पुलुस के तादात बाढ़ते जात हे। न अन्याय जुल्म करइया कम होय बल्कि जेल म जाके छोटे चोर; बड़े चोर अउ अपराधी होके लहुट आथे। अतके ले अंदाज मिल जाथे के पुलुस सिपाही ले अउ कुछु फायदा समाज ल जरूर मिलत होही फेर अपराध करइया कम नइ होत हें।

(माटी कहे कुम्हार से - बदना बदे नरियर फोर चढ़ावे बेल)


सन् 2015 में लक्ष्मण मस्तुरिया जी का द्वितीय गद्य संग्रह "गुनान गोठ"  प्रकाशित हुआ जिसमें चौंतीस लेख व निबंधों का संकलन है। "माटी कहे कुम्हार से" की ही भाँति इस किताब की रचनाओं में भी छत्तीसगढ़ तथा देश की आम जनता की पीड़ा को स्वर दिया गया है। लोगों को गुनने के लिए विचार रखे गए हैं-


विदेसी अन्न खा-खा के भारती मनखे के मन विदेसिया होगे। विदेसी संस्कृति,देसी संस्कृति ऊपर चढ़ बइठिस। अब रोये-गाये ले का होही? मन ल सुधारे बर अन्न ल सुधारे बर परही।

(गुनान गोठ - खानपान के असर)


धरम हमर देस म सिरिफ मंदिर मस्जिद अउ गुरुद्वारा म दिखथे। मनखे के आचरन म कब दिखही, राम जाने।

(गुनान गोठ - बिना आचरन के धरम)


राजनीति में स्वार्थ साधने के लिए जिस तरह से धार्मिक व साम्प्रदायिक भावनाएँ भड़कायी जा रही हैं उस पर मस्तुरिया जी लिखते हैं - 


हिन्दू-मुसलमान के भेदभाव ल एही समे अउ जोर-सोर ले उठाये जात हे। राम-रहीम के भेद गरीब जनता म न कभू रहे हे, न रही। फेर हमर देस के दुरमतिहा नेता मन अइसने अकारथ वाले बात ल बगराथें अउ अपन गद्दी म पहुँचे के रस्दा ल साफ करथें।

(गुनान गोठ - करे आन, भरे आन)


देश मे हर क्षेत्र में समान पढ़ाई की कल्पना करते हुए मस्तुरिया जी उपाय भी बता रहे हैं -


गाँव देहात म घलो अंगरेजी स्कूल पहुँच गे हे। मजबूर बेबस मनखे आज सिरिफ सरकारी स्कूल के भरोसा म हें। देस समाज ल सुधारना हे तव एक समान पढ़ाई के व्यवस्था काबर नइ करे जाथे? मंत्री साहेब मन के लइका मन जब सरकारी स्कूल म पढ़हीं, तब सरकार के विसवास बाढ़ही।

(गुनान गोठ - परचार)


मातृभाषा में बुनियादी प्राम्भिक पढ़ाई के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है -


संसार भर म बुनियादी सुरुवाती पढ़ाई,पहिली पाँत(कक्षा)ले सुरु होथे। पहिली कक्षा के पढ़ाई अपन माईभासा ले पढ़ाये के हमर देस म नियम हे। अपन माईभासा म प्राथमिक सिच्छा पाए के हर लइका-बाला मन के मूल अधिकार हे। जे मन ल अपन माईभासा म पढ़े लिखे के अवसर नइ मिलै वोमनके अकलब्ध, प्रतिभा, ज्ञान, कला कमजोर होथे। आन के भासा म जानकारी के डबरा ल भरे जा सकथे फेर आत्मज्ञान के ओगरा के कुँआ अपने माईभासा ले भरे जाथे।सकेले हर सुखा जाथे, स्रोत(ओगरे) हर मनखे मन ल सरस बनाथे।

(गुनान गोठ - मिटत न हिय को सूल)


सच्चा कवि व साहित्यकार भविष्य को देख सकता है। अतः उन्होंने भविष्य को देखकर सही समय में चेतावनी भी दी है - 


जनता के अधिकार के दुरुपयोग करइया नेता मंत्री मन अब सावधान होवै। अपन गलत काम अउ लोभ-लालच ल तियाग के जनता के दुख पीरा ल हरे के उपाय करै नइ तो समे के सूरज ह सबके गरियार ज्ञान बुद्धि ल जरो देही। अकाल दुकाल म अपन जीव बचाये बर मनखे जिनगी के आखरी लड़ाई म मरे-मारे बर उतर जाही तब जनता के उमड़े भीड़ ल कोनो फौज सिपाही नइ संभाल पाही। (गुनान गोठ - बंद हे गरीब के फाइल)


इन दोनों ही किताबों में ललित निबन्ध, विचारात्मक निबन्ध के साथ ही व्यंग्य की तीखी धार भी समाहित है। छत्तीसगढ़ी भाषा का ठेठ माधुर्य देखते ही बनता है। सत्य सदैव कटु प्रतीत होता है किंतु सत्य कहना भी जनहित में आवश्यक होता है। निर्भीक कलमकार ही सत्य को लिख पाता है। आजकल सत्य में ही व्यंग्य के दर्शन हो जाते हैं। लक्ष्मण मस्तुरिया जी ने शालीनता के साथ सत्य को उजागर किया है। वे केवल राज्य की सीमा में ही बँध कर नहीं रहे बल्कि उन्होंने सम्पूर्ण देश के लिए चिंतन किया है। समस्याओं को रेखांकित करने के साथ-साथ समाधान के विकल्प भी सुझाये हैं। उनका लेखन हर युग में प्रासंगिक रहेगा। आज लक्ष्मण मस्तुरिया जी की तिहत्तरवीं जयंती पर उनकी चमत्कारी कलम को शत शत नमन। 


अरुण कुमार निगम

आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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