Saturday 25 June 2022

कहानी - देवारी(धर्मेंद्र निर्मल)

 कहानी - देवारी(धर्मेंद्र निर्मल)

                                         देवारी


मोटर हँ दमदमावत आके सड़क के पाई म खड़ा होगे। चकरा सेठ अपन दूकान ले बइठे- बइठे देखत हे। खचाखच सवारी भरे हे। उतरे बर अपन- अपन ले कोलो -कोलो करत हे। 


चैमासा पानी के बरसत ले नरवा- झोरी जइसे उबुक- चुबुक होवत खलबल -खलबल बोहाथे। बरसा थमिस ताहेन भईगे, सुक्खा के सुक्खा। सुक्खा नरवा खल बहुराई। आए केे बेरा जम्मो हाँसत गोठियावत आइन। उतर के तैं कोन, मैं कोन। मोटर ठकठक ले खलिया गे।


सवारी मन ल उतरत देखके पसरा वाले, ठेला वाले दुकानदार सबो जोसियागे। कोनो फटाफट माखुर ल मारके दबाइन। कोनो पीयत बीड़ी ल फेंक के नरेटी भर- भर के चिल्लाए लगिन। झुनझुना, पोंगरी वाले मन बजा- बजा के लइका मन ल मोहाए म लगगे। दुकानदार मन दूकान के आगू म निकलके कहत हे - 


‘आ भाई, का लेबे ? का देववँ दीदी, बड़ सस्ता हे वो। ले ले।’ 


चकरा सेठ जस के तस फसकराय अपन दूकान म बइठे हे। अइसन - वइसन धंधा नई करय चकरा सेठ हँ। घर बइठे बारा घाट के पानी पीये हे। गिराहिक के नारी ल टमर डारथे। 


जम्मो सवारी बाजार म समागे।


वो मोटर ले उतर के अकर- जकर ल चकचकाए देखत हे। जानो मानो सोचत हे - ‘कती जाना चाही ?’ 


मन के बात गड़रिया जानय। चकरा सेठ के नजर ओकर हाव भाव ऊपर हे। उदुप ले ओकर नजर चकरा सेठ ऊपर परिस। चकरा सेठ बड़ प्यार से मुचमुचावत पुचकारे असन हाथ के इशारा म ओला बलाइस। वोह दूकान म घुसरे बर कनुवावत रिहिस हे। चप्पल ल दुवार म निकालते रिहिसे, सेठ टोकत कहिथे- ‘आजा, अइसने आजा, नई लागय गा चप्पल -उप्पल उतारे बर।’


कुछु कहे के पहिली - ’भारी भीड़ हे गा’ - सेठ बात म ओकर पीठ ल सहिला दिस।  


’काला कहिबे तिहरहा ताय सब’- ओह हाथ ल लमावत कहिस।


ओकर मुँह का उलिस, सेठ ल पाँव राखे बर ठऊर मिलगे। का पूछथस ताहने। बइठन दे त पीसन दे। सुर धरके मुड़ ल हलावत सेठ लमाईस -


’हौ भई, छिन म पूरा मोटर खाली होगे गा।’ 


ओला हाँ म हाँ मिलावत देखके सेठ तुरते फेर पासा फेंकिस - ’आ बइठ। पानी पियाववँ।’


सींका के टूटती बिलई के झपटती होगे। ओकरो मन कोंवरागे।


‘जम्मो तुँहरे गाँव के सवारी आय’- लकड़ी के बेंत लगे कपड़ा के झारा म ‘फट -फट’ कपड़ा मन के धूर्रा ल झर्रावत सेठ कहिस । 


‘वा ....! जम्मो खपरी केे ये ............. अऊ देखबे, जाए के बेरा इहाँ ले भरा के जाही, उहाँ फेर खाली। कहाँ गए कहूँ नहीं, का लाने कुछु नही’ - वोह हँ एके साँस म सबो बात ल झर्रा डारिस। 


चकरा सेठ ल चकराए बर जगा मिलगे - ‘अरे तोर बरेठ खपरी के चारो मुड़ा शोर उड़े हे भाई, दुरूग ले बइठ चाहे रइपुर ले, खपरी कहे ते फट्टे टिकिस कटा जथे।’ 


‘हहो सिरतोन काहत हस।’


‘मारका टेशन होगे हे गा, तुँहर गाँव हँ।’ -सेठ गोटारन कस बड़े -बड़े आँखी ल नटेरत कहिथे।


‘कंडेक्टर-डरावल मन तको गाँव के मनखे मन ल चीन्ह डारे हे।’- वोह हँ हाथ ल लमा -लमा के थूक छीटकारत-गिजगिजावत कहिस।


‘झन कहा, चीन्हत होही।’ सेठ अब धीर लगाके गेयर बदलिस- ‘तैं जादा बजार -उजार नई आवस का ?’  


वो कहिस - ‘मैं गाँवे म नई राहवँ न।’


‘अच्छा - अच्छा- अच्छा। तभे तो सोंचत रेहेंव, जादा दीखस नहीं कहिके।’ 


सेठ के गोठ खतम नई होए पाए रिहिस हे। 


वोहँ चार आँगुर आगू ले लमादिस - ‘मैं नागपुर म रहिथौं, गजब दिन होगे। भइगे तिहार -बार म आथवँ -जाथवँ। 


सेठ के मुड़ ल हुँकारू संग डोलावत देख, एकर मुँह उले के उले रहिगे। टेटका कस मुड़ ल हलावत कहे लगिस - ‘हमी भर मन दुई के दुआ रोजी मजूरी करथन उहाँ। लोग लइका मन गाँवे म रहिथे दाई -ददा तीर।’ 


जगहा मिलते साथ सेठ हँ मछरी बर मुँह मारत कोकड़ा कस टप ले जमाइस - ‘तुँहर इहाँ सियनहा के का नाम हे ?......... देख भुलावत हौं, मुँहेच ऊपर हे .......’ .अउ देखौटी अंगरी म अपन माथा ल ‘टुक-टुक’ मारत, जुवाब के अगोरा म ओकर मुँह ल देखे लगिस।


वोहँ तो मोहागे राहय। सेठ ल थोरको अगोरे बर नइ लागिस। बाँचा माने सुआ कस फट्ट ले अपन सियनहा के नाम ल बता दिस - 


‘अलेनी।’ 


हाँ, हाँ !! ठउँका कहे।’- सेठ अब मुड़हेरी साँप कस वोला लपेटा म ले डारिस - ‘मैं तोर चेहरा- मुँहरन ल देख के जान डारे रहेवँ। ओकरेच लइका आवस कहिके।’ 


वोह अब रतियाके बइठगे। 


सेठ अब टाप गेर म आगे -‘तोर का नाम हे ?’


वोहँ अपन नाम ‘लाला’ बताइस। अब सेठ के मन के मनसूभा अंटियावत खड़ा होगे। दूनो हंथेरी ल रगरत पूछथे - ‘ले का देखाववँ लाला ! पहिली लइका मन बर, के सियान मन बर ?’ 


पाके बीही के लाल -लाल गुदा कस मसूरा ल उघार के हाँसत लाला कहिस - ‘लइके मन बर पहिली देखा न भई, उंकरेच मन के तो तिहार ये।’ 


सेठ के मन अब गोठबात ले उचट गे । ओकर धियान धंधा म धँसगे हे। एके भाखा कहिस - ‘हौ।’ अउ ओसरी-पारी कपड़ा देखाए म लगगे।


लाला देख परख के परिवार के जम्मो झिन बर कपड़ा -लत्ता छाँट डारिस। कपड़ा देखाए के बेरा सेठ कीमत ल नई बतावय। लाला एक दू घाँव पूछिस-‘एकर का भाव हे सेठ !’ त सेठ कहि देवय - ‘ले न ते काबर फिकर करथस, तोर ले जादा थोरे ले लेहूँ।‘


‘तभो’ ।


‘घर के लइका होके तहूँ कइसे गोठियाथस लाला !’


मया के भूखाय अऊ मया के मराय मनखे के एके गत होथे।


लाला के मुँह बँधागे। वोला अकबकासी लगे लगिस। अइसे तो वोह कपड़ा के रंग ढंग ल देख के मने मन म कीमत के आकब कर डारे रहय। 


‘भइगे सेठ अब अतके ले जाना हे।’ - लाला कहिस। 


सेठ जानबूझ के ओकर गोठ ल अनसुना कर दीस। चुकचुक ले चमकदार लाल कमीज ल फरिहावत दाँव मारिस - ‘वा, सब झन नवा कपड़ा पहिरही अऊ तैं जुन्ने ल पहिरबे गा ? बारा महीना म एक पइत आए बर, जीयत रहिथे तेकर तिहार।’ 


‘नहीं, नहीं मैं पाछू लेहूँ। अभी तो नवा -नवा सिलवाए हववँ, महीना भर नई होय हे।’ -अपन आगू म रखाए कपड़ा मन ल सेठ कोति सरकाइस - ‘ले बता, येमन कतेक के होइस ?’ 


सेठ अब कापी कलम उठालिस। जोड़ घटा के बताइस - ‘एक्कइस सौ तीन रूपिया।’  


लाला धरम संकट म परगे। कुल एक्कइस सौ रूपिया तो खुदे धरके आए रिहिस हे। दू हजार कपड़ा - लत्ता अउ सौ रूपिया, मोटर -गाड़ी, साग-भाजी, बजरहा खरचा हिसाब के। 


सियनहा के कपड़ा ल अलगियावत कहिथे - ‘एला राहन दे, आन दिन ले जाहूँ।’ 


सेठ जान डारिस। सोचिस -‘लेवना हँ ससलत हे। सकेल के एकथई करे बर परही।’ 


बेचाय माल हँ वापस झन होए पावय, येहँ चकरा सेठ के गुपचुप, भीतरौंधा अउ अनकहा, अनछपा शर्त आवय। 


‘कतेक असन कम परत हे ?’ - सेठ ओकर आँखी म आँखी डारके तिखारिस। 


सब बात ल फोर -फरिहा के बता दिस लाला हँ। 


लाला के पीठ ल सहिलावत सेठ भुलवारथे - ‘बस ! अतके बात हे ?’


अब सेठ मालिस -पालिस वाले जात म उतर गे -‘अइसन लजाए- सकुचाए वाले काम झन करे कर भई ! मोला अच्छा नई लागत हे।’ - कहिते काहत कपड़ा ल झिल्ली म भर डारिस। लाला लजाए असन मुड़ी नवाए खड़ेच हे । सेठ ओला झोला ल बरपेली धरावत कहिस - ‘ले धर ! अभी दूए हजार ल दे दे, बाकी ल पाछू दे देबे, बस ! कहूँ भागे जावत हस गा ?’


सौ रूपट्टी के करजा हँ लाला के आखा- बाखा ल हुदरत -कोचकत रात भर खटिया तीर म खडे रहिगेे। वोहँ अलथी -कलथी मार -मार के रात ल आँखी म पहाइस हे। होवत बिहनिया पहिली गाड़ी म फेर खम्हरिया पहुँचगे। 


बलाइस -‘आ लाला आ।’ 


लाला ल उरमाल के अंटी ले पइसा निकालत देख सेठ के बाँछा खिलगे। घर कोति चाहा बर हूत कराइस। 


लाला मना करिस - ‘अहाँ.. अहाँ ! मैं चाहा -वाहा नइ पीयवँ।’


अभी तो लाला म अउ रसा बाँचें हे। सेठ के पियास तको नइ बुझाए हे।


पूछिस--‘त का मँगाववँ ?’


‘कुच्छु नई लागय कहि देवँ।’ 


सेठ कहिस - ‘तोर बर कमीज देखाववँ।’ 


लाला टोक दिस - ‘कमीज-उमीज ल मार गोली ददा ! ए तोर बाँचत पइसा ल धर अउ मोर हिसाब ल नक्की कर। करजा बोहई नई पोसावय, भारी बियापथे। न उधो के लेना, न माधो के देना बने लगथे मोला।’ अउ एक सौ दस रूपिया ल सेठ के हाथ म धरा दिस। 


बनिया बेटा जब हिसाब करे बर बइठथे त ओकर आँखी म रिश्ता -नता, सगा -संबंधी, चीन्ह-पहिचान नई दीखय, सिरिफ पइसा नजर आथे। 


‘अऊ गाँव -घर म सब बने बने लाला !’- हिसाब के बाँचे सात रूपिया ल लहुटावत सेठ पूछथे। 


लाला जुवाब दिस - ‘सब बढि़या हे सेठ ! अपन अपन करम किस्मत के हिसाब से सबो कमावत खावत हे।’ 


सेठ के तिकड़मी दिमाग ले छीनी हथौड़ी निकल के मुँह म आ गे । 


‘तुँहर गाँव म तुहीं भर मन ल देखथवँ लाला, सोला आना ईमानदार !’ 


लाला के छाती हँ बीता भर ले फूलके डेढ़ हाथ होगे। जना मना कुछु उपलक्ष्य म ओला मानद उपाधि मिलगे। ले दे के उपाधि ल संभालत अहम के हाँसी ल मुसकान म बदल लिस। मुँह ले एक भाखा नइ उलिस।


‘बाकी मन नइहे, सब के सब बइमान हे।’-सेठ आगू कहिस।


लाला दूनो हाथ ल झर्रावत कहिथे - ‘तुमन जानहू सेठ, लेन देन के गोठ बात ल। हम का जानिन।’ 


सेठ, लाला के मुँह ल पढ़ डरिस। हाथ ल हलावत आगू कहिथे - ‘तुँहर गाँव वाले मन अइसे हे ! खाये बर चूना माखुर के डबिया दे देबे, त खाथे कम ओंंिटयाथे जादा।’


लाला मुँह बाँधे चुप रहिगे। सेठ नराज झन हो जावय। जे मन ले बँधुवा हो जथे ओला तन ले बँधुआ होवत देरी नइ लागय। बाहिर जाके इही तो सीखिस हे छत्तिसगढि़या मन। हुसियार मनखे मंघार ल नई मारके मगज ल मारथे। मगज मरे मनखे घुरवा के कचरा बरोबर होथे। 


मुड़ ल हला भर दिस लाला हँ। दूकान ले निकल के बजार कोति रेंग दिस। ओकर कान म सेठ के गोठ गूँजे लगिस। लाला के नजर ले गाँव वाले मन गिरे -बिछले परत हे। अपन जनमें, खेले -खाए भूइँया ऊपर लाला के मन म घिन समागे।


बजार म किंजरत एक जगा ओकर पाँव ठिठक गे। 


‘अई हाय ! गजब दिन म दीखेस परलोखिया नइतो !’ 


लाला झकनका के देखथे - ‘पसरा म बइठे रमौतिन काकी भाजी बेचत हे। लाला ओकर तीर चल दिस। रमौतीन पाँव परत पूछथे - ‘सब बने बने बाबू ?’ 


लाला कहिस - ‘हहो ! का करबे काकी, पेट बिकाली म कुछु न कुछू उदीम करबे तभे तो बनथे।’


रमौतीन हूँकारू भरिस। 


खपरी तीर करमू गाँव हे। जिहाँ के रहइया ये रमौतीन मरारीन। रमौतीन बड़े बिहिनिया मुड़ म डलिया बोहे भाजी तरकारी बेचे बर खपरी पहुँच जावय । वोहँ भाजी बेचत तीर -तखार के सबो गाँव म मँुहाचाही नता जोर डारे रहय। ओकरे भर बात नइहे, जम्मो मनखे एक- दूसर ले अइसेनेहे नता म जुरे रहिथे। गाँव-आन गाँव वाले सबो संग हिल मिल के जिनगी पहाथे। 


मन मिले मनखे जिहाँ मिलथे उहाँ कतको बड़े दुख के बेरा घलो बिलम जथे। गोठ बात म घंटा भर कइसे बुलक गे, पतेच नइ चलिस। 


एमन गोठ बात म भूलाएच हे। ओतके बेरा दूनो के कान म भकरस ले भाखा सुनइस  - 


‘बजार होगे लाला !’ 


चकरा सेठ नारा वाले बड़े जनिक झोला ल हलावत आगू म खड़े हे। रमौतीन हड़बडा गे। काला खाववँ, काला बचाववँ कस किस्सा हो गे। चकरा सेठ के नजर हरियर -हरियर पाला अउ चैंलई म हे। रमौतिन मने मन गारी दे लगिस - ‘ए भड़ुवा कीच्चक कहाँ ले आगे। चाल म कीरा परे हे। हाथ ले पइसा छूटय नही सेठ कहावत हे रोगहा हँ।’ 


सेठ मुसकियावत बइठत पूछिस - ‘का भाव हे भाजी .........?’ 


रमौतीन बीचे म फट्ट ले बात ल काट दिस- ‘बेचागे हे ! जम्मो भाजी बेचागे हे।’ रमौतीन हड़बड़ाए लगिस। फेर का सोचिस- ‘ले न गा तहूँ हँ मोल भाव करके भाजी ल खुल्ला मड़ा दे हवस, बजरहा मन ल भोरहा हो जथे ’-काहत जम्मो भाजी ल सकेलत लाला के झोला म भरे लगिस । लाला ना -नुकुर करे बर धरते रिहिस हे, के रमौतीन मिलखिया दिस। 


लाला कुछू समझतिस तेकर पहिली सेठ कहिथे - ‘लाला हँ सबो भाजी ल थोरे लेही, खाएच के पूरति ल तो लेही, कइसे लाला ?’


लाला के मुँह न लीलत बनय न उलगत तइसे होगे। रमौतीन कउव्वा के कहिस - ‘पाँच रूपिया के दूए जूरी हे, ले बर हे ते ले।’ 


‘वा..हा...! सब जगा चार -चार जूरी देवत हे तेन हँ’ -काहत सेठ हँ चार जूरी भाजी ल झोला म डार लिस। 


‘जेन देवत हे तेकर तीरन जा के ले ले, मोला नइ पोसावय माने नइ पोसावय’ - रमौतीन हटकार दिस। 


लाला नान्हेपन के देखत आवत हे रमौतिन ल। मने मन मुसकाइस -‘ये रोगही ! काकी हँ अब ले जस के तस हे।’ सोचे लगिस -‘ पहिली तको अइसनेच काहय अउ मूठा भर भाजी ल झर्रावत बगरा देवय। नइ पूरावय, नइ पोसावय कहिते राहय, अउ सूपा ल भर डारय।’


तभे तो गाँव म कोनो रमौतीन मरारीन के छोड़ काकरो तीरन भाजी तरकारी नइ लेवय । ओमेर के चार ठन गाँव एकरे गॅँवई रिहिस हे । समे ढरक गे। गाँव -गाँव म बजार लगे लगिस। गाँव वाले मन खम्हरिया के बजार करे लगिन । जब मन होइस मोटर म चढ़के ‘भूर्र ले’ आ जथे अउ ‘फुर्र ले’ लहुट जथे। रमौतिन के गँवई खियागे। गँवई का खियातीस उमर के खसले ले सबो खिया जथे। अब काकी बइठाँगुर हो गे। दस बज्जी गाड़ी म आथे अउ संझौती बेच भाँज के बजार करत गाँव लहुट जथे। 


सेठ हँ पाँचे रूपट्टी ल धरावत राहय। रमौतीन बगियागे - ‘दस रूपिया होही ।’


सेठ कुटुर मुटुर करे लगिस। वो हँ अभीन अभी सरीफी अउ ईमानदारी के तमगा जेन ल पहिराए रहय उही लाला आगू म बइठे हे। हाथ म गुमेटेे धरे पइसा ल फरियाइस। दू घाँव अँगरी म सरका- टरका, टमर -मरोर के देख- परख लिस तेकर पीछू दस के नोट ल दिस। पइसा ल देके - ‘ले अब एक जूरी तो उपरहा देबे’ काहत रखाए भाजी ल धरे लगिस। 


रमौतीन टप ले सेठ के मुरूवा ल धर लिस - ‘जब देख तब अइसनेच करथस। तोर पइसा कमई के पइसा ये, हमर मिहनत फोकट के आए हे.. नहीं।’ सेठ अकबका गे। 


रमौतीन आगू कहिस- ‘ले तो मैं तोला काहत हौं, एक रूपिया उपरहा दे। तैं देबे का ?’ 


ओतका म लाला कहिथे- ‘बने तो काहत हे सेठ ! बपुरी अतेक घाम पियास म तन के लहू ल अँऊटावत- चुरोवत बइठे हे । 


लाला के पलौंदी पा रमौतीन के बल बाढ़गे-‘घर -दुवार, लोग- लइका ल छोड़ के चार पइसा कमाए बर चार कोस ले रेंग के आए हवन, फोकट हो जही का ? तुमन तो एकक ठन पइसा के हिसाब करथौ । ले न हमार मिहनत अउ पसीना के हिसाब लगा ।’ 


सेठ के आँखी चिपचापागे । मुँह पचपचाए लगिस। ओकर हाथ ले भाजी छूटके ‘भद्द ले’ गिर गे। ‘ले भई’ काहत सेठ उठगे। कुला झर्रावत सुटुर- सुटुर रेंगते बनिस।


रमौतीन पसरा सकेले लगिस। सरीफी अउ ईमानदारी के मुकुट ल पहिरे शान से लाला हँ सेठ ल जावत देखत हे। 


लाला अब काली ससन भर तिहार मनाही। आज वोहँ दानव ल मारके अजोध्या प्रवेश करइया हे। 


सुरूज अब तब करिया खुमरी ओढ़ ढलगइया हे। साँझ के पाहरा लग गे हे । गाँव म सुरहुत्ती के दीया जगमगाय बर धर लेहे । काली देवारी तिहार हे। 


लाला अउ रमौतीन मोटर चढ़े बर टेशन कोति जावत हे।


धर्मेन्द्र निर्मल 


9406096346

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