Saturday 4 June 2022

कहानी - ‘देस-परदेस’

 कहानी - ‘देस-परदेस’

                                                                 ‘देस-परदेस’


‘एक दू तीन ....... सत्तर ....निन्यान्बे सौ - सौ कापी, एक बंडल। एक दू तीन चार अउ ये पाँच बंडल। हरेक बंडल में सौ-सौ कापी माने पाँच सौ कापी’ - गिनती के संगे-संग संतोष बुदबुदाथे। भंडार म बइठे गिन गिन के कापी मन के बंडल बनाए म लगे हे संतोष। सौ सौ पेज वाले कापी के बंडल, दू सौ पेज के.... फेर तीन सौ पेज के। अलग-अलग पेज वाले कापी मन के अलग-अलग बंडल।  जम्मो हिसाब ल रोजनामचा म चढाके संतोष घडी कोति देखथे। घड़ी के काँटा हँ अढ़ई म डोलत रहय। सोचथे - ‘चल.... आज कुछ तो टेम मिलही।’ 


मोहनी ल दू -तीन पइत होगे काहत -‘बजार घूमे के साध लगे हे।’ संतोष समेच नइ दे पावत हे। आज बेरा ल देख वोहँ उछाह ले भरगे हे।घर जाए बर तुकतुकाए लगे हे।


‘घर जाके पहिली अराम से खाना खाना हे। खाके किराना दूकान चले जाहूँ। का का समान नइहे तेकर लिस्ट तो मोहनी बनइ डारे होही। दूकान ले आहूँ ताहेन ......बस !’ अतके म संतोष के आगू म ‘झम्म ले’ मोहनी के मोहनी मूरत हँ मुस्कावत खड़ा होगे।


पूछे लगिस -‘मोर बर का लेबे ?’


‘तैं जऊन कहि दे।’


‘पक्का !’


‘एकदम ! तैं बोल के तो देख।’


‘बस, बस, मैं बोल डारेवँ, तैं ले डारे। मैं अतके म खुश हौं जी’- काहत  ‘झम्म ले’ मोहनी संतोष के खाँध म झूलगे।


संतोष मोहनी मया के धार म मोहाए बोहाए लगिस। 


‘सबो कापी गिनागे संतोष ?’ 


बोहावत झोरी म ‘भद्द -ले’ माटी के लोंदा गिरे ले धार टूट जथे तइसे सेठ के गुर्राए ले बिचारा संतोष के बिचार के तार हँ टूट जथे।


वोहँ झकनका जथे। कहिथे- ‘अँ.....! हौ सेठ गिनागे।’ 


सेठजी एक ठन बिंडल कोति इशारा करत पूछथे-‘ये बंडल म के कापी हे ?’ 


‘सौ ठन’- काहत संतोष मने मन कोसे लगथे -‘सौ सौ के बंडल बनथे, ओतको ल नइ जानत होबे।’


हरेक बंडल म संतोष रंग म लिख तको देहे-‘अतका पेज, अतका नग।’ तभो सेठ पूछथे-‘कतेक पेज वाले हे ?’ 


‘दू सौ पेज वाले।’ - अब संतोष के धीरज धसके लगे हे। 


‘येदे बंडल ल खोलके गिन तो, कम लागत हे।’ 


बिगर कुछू देरी करे संतोष मसीन कस काम करे लगिस। बंडल खुलगे। ‘एक दू तीन....चार ...दस ... - सतोष गिनते गिनत मने मन गारी दे लगिस - ‘स्साले कुकुर ! तुम तो अंगरेज के बाप निकलगेव। न कोनो ल चैन से खात पीयत देख सकव, न कोनो ल चैन से जीयत देख सकव....निनानबे।’ 


‘अरे !’ संतोष के माथा झन्नागे। 


‘पहिली गिने रहेवँ तब तो सौ रिहिस हे। पहिली गलत गिन पारे रहेवँ के अभीन ’- वोहँ सकपकाए सोचे लगिस। 


सेठ घलो कम घाघ नइहे, पूछथे - ‘कतेक हे ?’ 


संतोष सोच म परगे- ‘का जुवाब देना चाही।’


सेठ बमक गे-‘अरे सुरूतभूल ! नवा नवा बाई लाने हस, होश- हवास ल घर म छोडके आथस का रे। ठीक ठाक गिनती घलो नई कर सकस।’


सेठ बड़बड़ाए लगिस- ‘सेठ के पइसा तो फोकट म आये हे। दू ठन कापी कम होही तेकर भुगतान कोन करही ? तैं तो अपन चुकारा लेके अँटियावत चलते बनबे। टोटा हॅँ तो मोेर अरहझही। 


सुनके संतोष के मन म आगी धधकगे। अंतस ले गुँगुवाके धुंगिया उठे लगिस। मुँह करूवागे। मुँह के करूवाहट ल संतोष न लील सकय, न थूक सकय। हाथ चपकागे सील तरी। उठावत तो बनय नहीं, तीरबे त छोलाही। का करय बिचारा हँ। फेेर गिनिस। ये पइत मन लगाके गिनिस । हिसाब बरोबर मिलगे।


सेठ हँ ओसरी- पारी सबो बंडल ल खोलवा लिस । दू -दू तीन -तीन घँव गिनवाइस। सेठो अपन बाप के औलाद ये, तीन बजाई लिस। महिना के आखरी ये। आजे हप्ता बजार के दिन परे हे। संतोष चुकारा ले बर खडे हे। सेठ एलम -ठेलम करके दस मिनट लेइ लिस, तेकर पीछू चुकारा करिस । 


पइसा ल हाथ म लेके संतोष गिनके कहिथे- ‘ए तो एके हजार हे सेठ।’


‘हो तो गे तोर हिसाब, अऊ का ?’


’पाँच सौ अऊ आही।’


‘कहाँ के पाँच सौ अऊ आही ? वो दिन तोला डेढ हजार दे रहेवँ न ?


‘नहीं तो, एके हजार देे रेहे सेठ।’


सेठ कहिथे -‘मोला सुरता हे, पाँच पाँच सौ के तीन ठन नोट दे रहेवँ तोला।’ 


संतोष ‘फट ले’ कहिस -‘नहीं सेठ ! एके हजार दे रेहेस।’


अतका म सेठ चिल्लाए लगिस - त का मैं लबारी मारत हौं ?


‘मैं कसम खा जहूँ सेठ’-संतोष के जी रोवासी होगे। 


सेठ कहिथे -‘लान न बछिया ल, मैं पूछी धर लेथवँ, कहँू झूठ बोलत होहँू त। 


संतोष कट खाए रहिगे। कथरी ओढ़े ले जाड़ नइ लगय तइसे बेइमानी ओढ़इया मन ल पाप लागय। एक मुक्का जिनावर के पूछी के पाछू मनखे हँ सरग -नरक ल गढ़ लेथे। अपन भाग के बिधाता अपने बन जथे।


रस्ता भर मन के संतोष हँ संतोष के संग नइ रेंगिस । साइकिल के हेंडिल म टिफिन संग असंतोष ओरमे रहिगे। थोथना ल ओरमाए संतोष सोचे लगिस। ओला सब समझ म आगे । 


‘बिचारा खीरमोहन ! दसे हजार ले रिहिस हे। नीयतखोर सेठ इस्टाम म लिखवा के रख लिस -बारा महिना म पइसा नइ पटा पाहूँ त खेत तोर। छए महीना म खीरमोहन पइसा पटा दिस, तभो बइमान कहिदिस -


‘तोर खेत तो मोर नाम लिखागे हे खीरमोहन।’


थानखम्हरिया ले दू पइडिल के दूरिहा खपरी हँ आज घंटा भर बेरा ल बाखा म दबा लिस। 


रात कन मोहनी संतोष ल हुदरे लगिस -‘तहँू वोइसने हस।’


‘त मैं का करतेवँ, तहीं बता ?’


‘सेठ का लील डरतिस । चटकन के का उधार, तहँ कहिते पसीना के पइसा ये सेठ फोकट के नोहय।’


‘वो बइमान ल बात-बानी लगतिस त काबर ?’


‘चल, मैं कहिहवँ।


अतका ल सुनके संतोष के नस-बल जुड़ागे।  


नारी हँ ताकत अउ अहार सबो म नर ले भारी होथे। फेेर समाज हँ ओकर हाथ म चुरी, माथ म सिंदूर अउ पाँव म पइरी के बेडी बाँध दे हे । कहाँ ले नारी हँ दुर्गा बनय। 


होवत बिहिनिया रामसुख ल दुवारी म ठाढ़े देखके सेठ पेपर पढ़ई ल भूलागे। पेपर बँचई ल छोड़के ओकर मुँह ल बाँचत पूछथे-‘का बात ये रामसुख ? आज संतोष नइ आवत हे का़ ? 


मुड़ ल गडि़याए रामसुख कहिथे-‘संतोष खाए कमाए बर परदेस जावत हे सेठ।’ 


सेठ के तरूवा सुखागे। अतेक ईमानदार अउ कमइया संग छोडत हे। 


सेठ कहिथे - ‘इहाँ का बात के दुख होगे, मोला बतावय न। बढिया परिवार बरोबर हवन। जतका बेरा पइसा -कौड़ी के जरुरत परत हे तेकर देवइया हम बइठे हन। उहाँ कोन का चीज बर पूछइया होथे ? बाहिर म मेहनत करबे तभो पेट नइ भरय रामसुख, धन जोरई तो गजब दूर के बात हे।’ 


रामसुख मन म कहिथे - ‘तैं का फोकट म पेट भर देबे दोगला। चार बछर ले देखत तो आवत हन। पाँव भर बने राहय पनही के दूकाल नइये। हमर जाँगरे हमर मितान ये।’ 


कहिस -‘हमन तो गजब समझा डरेन सेठ, एको नइ चलिस।’


‘मोर तीरन भेजबे, जऊन कमी-बेसी होही, मैं दे बर तियार हौं।’ 


रामसुख मन के बोझा ल मने म बोहे रेंग दिस। 


संतोष अउ मोहनी आँसू ल भीतरे - भीतर पीके रहिगे। पहली घँव उन घर ले बाहिर जाए बर पाँव उसालिन हे। 


अपन आँखी के पुतरी ल फुलबाई अउ रामसुख हँ कभू दूरिहा नइ भेजे रिहिस हे। छाती म पथरा लदक के रेहे बर परगे। पापी पेट हँ का का नइ करावय। तेकरे सेति कहिथे - पीठ ल मार लेवय फेर पेट म लात झन मारय। 


‘अपन रस्ता म आहू अपन रस्ता म जाहू। बने कमाहू खाहू बेटा’ - काहत फूलबाई फफकी मार के रो डरिस। 


परदेस म गाँव ले अउ गये मनखे मन संग संतोष अउ मोहनी कमाए लगिन। उन्कर कमई-धमई अउ बोली-बतरस के ठिहा भर म चर्चा राहय। ठेकादार तको खुश होगे रिहिसे। 


चारेच दिन होए रिहिस हे गये अउ काम धरे। संझा के बेरा जम्मो गँवईहा मन संघरा काम ले लहुटत रिहिसे। आगू कोति ले चार झन मुस्टण्डा परदेसिया टूरा मन मस्तियावत आवत राहय। उन मन ल देखके माईलोगन मन भर नहीं, भलकुन जम्मो टूरा पीला मन तको दूरिहाके रेंगे लगिन। ओतके म एक झन टूरा हँ मोहनी के अँचरा ल धरके तीर दिस। ओकर के खाँध ले खँधेला गिरगे। जम्मो गँवइहा-कमइया एक-दूसर के मुँह ल बोकबाय देखे लगिन। संतोष के आँखी म आगी गुँगवातेे रहिगे। मोहनी आव देखिस न ताव परदेसिया टूरा के मुरूवा ल धर लिस। 


खींच-खींचके चटकन गिनत कहिस -‘तोर मुड़ म कीरा परय रोगहा ! तुँहार घर म बहिनी माई नइहे का रे ? तुँहर दाई ददा इही सिखोए हे तुमन ल ?’ 


परदेसिया टूरा पसीना म थर-थर नहागे। संग संगवारी मन मोहनी के हाथ ल धर-धरके तीरे लगिन -‘चल ! परदेस के कारोबार ये, बिन अक्कल के मन हँ बइहागे हावय। 


मोहनी ललकारके कहिस -‘परदेस म आये हन, तेकर मतलब का इज्जत बंेचे बर आये हन। ले तो अपन बहिनी के हाथ ल अइसने धरके देखावय, तब जानहूँ पीए- खाए हे कहिके।’


परदेसिया टूरा मन एकक करके खिसके लगिन। मोहनी ल ले देके समझावत गाँव वाले मन झोपड़ी कोति लेगिन।


होवत बिहिनिया मोहनी अपन गाँव वाले ठेकादार पूनाराम घर धमक दिस।  कहिथे- ‘चल कका, हमन ल गाडी चढ़ा दे ।’ 


‘त मोर ओतेक ओतेक के ठेका........।’ 


ठेकादार के बात ल बीचे म काटके मोहनी कहिस- ‘परदेस के सोन उगलत खदान ले गाँव के माटी बने हे। जाँगर रहिही त कोनो मेरन जी खा लेबोन। इज्जत के बासी ल खाए अउ पचोए बर सीखव कका ! खीर के सुवाद पीछू झन दँऊडव। इमान अउ मेहनत के पसीना जेन मेरन गिरही, धरती ल उही जगा सोन उगले बर परही।’


धर्मेन्द्र निर्मल


9406096346

No comments:

Post a Comment