बदरहा घाम- दिलीप कुमार वर्मा
झुनिया के रद्दा ल जोहत झँगलु भूख प्यास के मारे तिलमिलवत राहय।बिहिनिया के निकले दोपहरी के बेरा म ये सुरुज घलो हर मुड़ी म चमकत राहय। बदरहा घाम के का कहना।आसमान म न धुर्रा न धुँआ।सुरुज के ताप हर तीर मारे कस सीधा देह म परथे।अउ ये उही घाम हरे जेन हर शरीर ल घोड़ा करैत कस चितकबरा कर देथे। देह हर चप-चप करत रहिथे।बदरहा घाम के ताप हर गर्मी के दिन ले ज्यादा जनाथे।
पछीना ले तरबतर झँगलु बिचारा सुसताये बर पेंड़ के छाँव खोजय, फेर खार म एक्को ठन पेंड़ नइ राहय।सब अपन-अपन सुवारथ पूरा करे बर जम्मो पेंड़ ल काट डरे राहय। जिहाँ एक ठन पेंड़ नइ राहय उहाँ चिरई चिरगुन कहाँ रइही।
बीते बछर झँगलु के खेत म अबड़ पेंड़ रहिस, फेर का दुख ल कहिबे।ये दे एसो के गर्मी म भाई-भाई बंटवारा होइस, त ददा के कुछ कर्जा ल चुकाये खातिर, जम्मो पेंड़ के सौदा कर दिस। तेखरे सेती जम्मो पेंड़ हर कटा गे राहय।
नानकन ठुड्गा हर एसो के पहिली पानी पाय के दू चार ठन ठाँगा फेंके राहय, ओखरे खाल्हे खेत म झँगलु हर थक हार के बइठ गे।
झँगलु बिचारा,अंग्गाकर रोटी के चार टुकड़ा कर एक टुकड़ा ल खा के, बिहिनिया ले नाँगर बइला धरे जून के महीना मा खेत जोते बर आये राहय। बाँगा भर पानी तको हर सिरा गे राहय। दू पाही के जोंतत चिलचिलावत बदरहा घाम के देखे झँगलु के तरवा सूखा गे।
मनेमन मा अपन बाई बर झुझलावत झँगलु धरे लौठी ल भुइयाँ म फटरस-फटरस मारत राहय। उही मेंड़ म केकरा हर बिला बनावत, भीतर ले माटी ल डाढ़ा म दबाए बाहिर निकल राहय।जइसे ही फटरस ले सुनिस त झकनका के येती ओती ल देखिस। एक झन मनखे बड़का लाठी धरे गुस्सा के मारे धरती ल पीटत राहय। केकरा बिचारा कुछ सोंच पातिस ओखर पहिली एक लाठी अउ फटरस ले परिस। मारे डर के केकरा बपुरा बिला म लकरधकर खुसर गे। फिर बाहिर नइ निकलिस।
येती झँगलु भूख पियास म ब्याकुल रहय अउ ओती एक ठन बइला हर चारा के लालच म दूसर खेत कोती जात राहय। झँगलु जइसे देखिस मारे गुस्सा के धरे लौठी तंगतिंग-तंगतिंग दउड़त बइला तिर पहुँच गे।धरिस काँसड़ा ल अउ अन्ते के गुस्सा ल अन्ते उतार दिस, बपुरा बइला ल टेम्पा म चार पाँच टेम्पा मार दिस। बइला घलो हर बक खाय रहिगे। अपन सँगवारी के मुँह ल देखत रहिगे। कुछ देर तक दूनो बइला चारा चरइ ल छोंड़ पगुराय घलो ल छोड़ दिस। दूनो ल कुछु समझ नइ आइस।
झँगलु फेर उही मेंड़ कोती आवत राहय त देखिस ओखर बाई झुनिया हर मुड़ मा झउहाँ बोहे आवत राहय। झँगलु के जी अउ तिलमिला गे। जोर से आवाज लगाके कहिस! "अरे जल्दी आना ओ, भूख प्यास म मोर जीव छूटत हे अउ तँय हर धीरे-धीरे आवत हस।थोरिक जल्दी चल नहीं ते मोर जीव छूट जही"।काहत-काहत लाठी ल उबाये राहय। झुनिया देखिस त ओखर हालत खराब होगे। "ये दई कतेक देरी होगे, लाठी ल उबाये बहुत चिल्लावत हे। आज लगथे मोर जीव नइ बाँचय"। गुनत-गुनत अउ डर्रावत-डर्रावत झुनिया हर झँगलु तीर म आइस।
" ले जल्दी निकाल भूँख म मोर जीव छूटत हे", झँगलु कड़क के कहिस।
झुनिया लकर-धकर गमछा ल हटा के गरम-गरम भात अउ कढ़ी साग परोस दिस। झँगलु न हाथ धोइस न मुँह हबर-हबर खाये ल धर लिस त खात-खात अटक गे। झुनिया हर जल्दी से लोटा के पानी ल दिस अउ झँगलु के मुड़ी ल ठोकिस। मुँह ले कुछु नइ कहिस अउ मने मन म सोंचे लागिस।"आज अतेक कइसे खँखाय हे" त सुरता आइस की काली बटकी भर बासी खा के आये रहिस अउ आज नान कुन रोटी बस खाये हे, तेकरे सेती जल्दी भूँखा गे हवय। तहाँ ले झुनिया हर गमछा ल हला-हला के झँगलु ल हवा दे ल धर लिस।
झँगलु अउ झुनिया के मया ल देखत सुरुज घलो हर खड़ा होगे।ये बात दुरिहा म खड़े बादर ल अच्छा नइ लागिस। "कखरो मया ल अइसन निटोरत देख के नजर लगाना अच्छा बात नोहय"। करिया बादर हर लकर-धकर तीर म आइस अउ झँगलु अउ झुनिया के ऊपर म छागे। सुरुज तको हर झुंझला के रहिगे।
बादर ल छावत देख हवा तको हर धीरे-धीरे चले लागिस। अइसन पुरवाही पा के झँगलु जमीन म सूत गे।
कुछ देर म उठ के झँगलु बइला करा गिस अउ ओखर पीठ ल सहलाइस। अइसे लागिस जइसे गलती के छमा माँगत हे।
नाँगर फाँद के झँगलु तीसरा हरियर धरे ददरिया तान छेड़े का काहत हे।
कारी बदरिया, छाइगे आसी..मा……..न
पुरवाही ह चलथे सँगवारी
तँय सुनादे कोनो तान ओ चले आबे।
झुनिया हर झउहाँ ल धरे काँटा खूंटी बीनत झँगलु के सुर म सुर मिलावत काहत हे।
काली के बेरा, मँय आजो आये... हँव
तोर गुस्सा म भुलागेंव सँगवारी
बिरोपान मँय लाये हँव गा आना खाले।
अम्मटहा कढ़ी, मोर मन ला भाई….गे
तोर मया म खवाये सँगवारी
गुस्सा हर उड़ागे ओ चले आबे।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
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