Saturday 17 July 2021

कला के बरगद अउ नवा कलाकार के आस* अश्वनी कोशरे

*कला के बरगद अउ नवा कलाकार के आस* अश्वनी कोशरे


प्रकृति हर सबो जीव ल जनमाय हे | नैसर्गिक आनंद के देवइया अउ कला के मूल स्त्रोत घलो हें|

प्रकृति सर्वगुण सम्पन्न हे| सबले  पहली अऊ सबले बुधियार कला के बिजहा ल अंकुरित करत, सेवत , विशाल बिरछा के रूप म घलो उही सिरजाय हे | आदी रूप म सबो प्रकार के कलाबरगद मन के जननी प्रकृति हरे | जउन ,हर परिस्थति म सबले बड़े कला उत्सव के आयोजन और प्रयोजन करथे| 


 *मैं हर कण हर पात में,* 

 *मैं हय पल हर छिन|* 

 *फिर भी मैं ना मैं हूँ* 

 *ब्रम्ह गुरु के बिन* 

 ए पंक्ति मन जिनगी म बड़े बड़े दर्शन ल दू चार करा देथें| विशाल प्रकृति ल समझना मानवीय चेतन बर अगम विषय वस्तु आए | अपन परिवेश ले संजोय मनसा म जतिक समा सके हे धरे सइँथे अउ सकेले हवन| फेर ऐमा भी पहिली हक पव इया के हवय|

बादर, पानी,अगास, पुरवई, धरती कखरो ले भेद नइ करे हें| इही मन प्रकृति के प्रतिरुप आएँ| इँखरे कला ह निखरे हे|

         इँखर कला साधक मन पुरा सिद्दस्त हें| उंखर सुर, ताल, लय, टेक, रिदम, उठाव, पटक , झनकार, खनक, तान ,ठहराव के जोड़ म सबो फिका हें| उंखर नाद ,वितत हर पल झनकृत करत रहिथे| दशो दिशा म गुंजन करत रहिथे| जब वोकर चित शांत रहिथे तव पवन-पुरवइ नामक कला साधक हर बाँसुरी कस सुमधुर, सुरमयी तान छेड़ देथे, उंकर सबले सुकोमल और प्रियवर कला साधिका अपन प्राण पियारे ल मिले बर जउन हर आस लगाये अगोरा म जलतरंगिनी मन संग राग मेघ मलहार गावत हे| मनमोहनी,सरलग बोहावत , छल- छल छलकत ,कल-कल नाद करथे अउ मिल जाथे पिय के हिय मा|

         | तव कभु भँवरा बन के कलियन म  फूल - पाना म मँडरावत रहिथे ,कोयल पपिहा मैना बनके गीत गावत रहिथे|

ऊँचाई ले अपन यौवन बिखेरत झरना मन के झरझर गरजना अऊ उज्जर निर्मल सौंदर्य ले सबो परिचित हें|उकर साज- सिंगार दुध बरोबर धवँरा धार हर घलो मन ला मोह लेथे | 

घनघोर जटा सजाय, कभु कपासी, श्याम कभु सुघ्घर चित्त हिय ल झकोरत अगास म हवन के अग्नि कुंड म होम करत| बादर बिजुरी मन अठखेली करत रहिथें| तव उल्लास ले भरे मृगी मन कस 

तेज अ उ कभु मंथिर पाँव धरे रहिथे| सबो तो अद्भूत हे | 

 *ता आगे मै पीछे* 

 *गुरु सदाऊपर चेला नीचे* 

 *चेला का हाँथ पकड़ि* 

 *गुरु सदा ही खींचे* 


        एकझिन  एखर उपजाय सबो जीव म जंतु म सबले बड़का कलावंत , गुनवंता बने कई  पीढ़ी ले इतरावत हे|ए प्रजाति मनखे हरे, जउन हर मेधावान तो हवय | फेर कभू ए गुनझरहा हर अपन पालक के कला ले कुछ नइ सीख सकिस| केवल मैं बडका अउ तँय नान्हे के फेर म, तीन लाख चौरासी हजार भावँर घूमत हे |का कभू सोंचे हें, के इँखरो ले बड़े कोनो ललितकला,गीत- संगीत ,मुर्ति कला, साहित्य चित्रकला नृत्य कला म पारंगत हवँय| कोनौ चौमासी हे , कौनो छमासी तव कोनो बरमसिया हें| एला केवल अकारत जिनगी खुवार करइ कहि सकथन|काबर का ले के आए हन अउ  का ले जाबोन| सब तो इँहें ले अर्जित हे|तव जतका दिन बर पारी बँधाय हे|पलिया म पानी रिकोवत रहि| जेन पौधा ल बढ़ना हे तव निश्चित हे वोकर  बढ़वार होही|

पुरखा मन कहें हे-

 *गुरु को ऐसा चाहिए,* *सब कुछ शिष्य पठोय|* 

 *शिष को ऐसा चाहिए,* *सब कुछ गुरु का होय|* |


सबो अपन धून म मगन रहइया आँए| आज तक अपन जिनगी ल गवाँ डारिन तभो कोनो सिकायत नइ हे| फेर मस्त सुघ्घर सुडोल काया तन अउ मन मस्तिष्क पाय के अभिमान म चूर होना पुरखा के अनादर आए|

नेम निमित्त सबो कलाविषय,  जिनिस के व्यापार स्वतंत्र हे फेर अड़चन स्वारथ हर लादे हे|  उपकार के उदाहरण सबो कला के उत्थान म समाहित हे| ए बेरा म कलाबरगद के अवदान बर बड़ कुँदे अउ रतन जड़े आदर्श शबद  मन  के भंडार हे|


 *मुखिया मुख सो चाहिए खान पान सो एक* 

 *पालय पोसय सकल अंग तुलसी सहीत विवेक|* 

कलाबरगद अपन विराट रुप ,विशालता के संग अपन सुदृढ़ जरवा ,जड़ और सुकोमल डारा पाना, मिठ पिकरी, और गुरतुर रसाबर घलो जाने जाथे| जेकर हरियर विकास मान गोदी म खेले बर कला साधक मन नान्हे बालपन  ,शीशु रुप के लीला करत अपन महतारी के स्तन पान करत रथें|

      तब ममताभरे महतारी के वात्सल्य ले कलाबरगद हर सहलावत साधकमन ल कलाज्ञान के जल  ले सींचत रहिथे|

और संगे संग अपन अनुभव रुपी शाखा ले बाजू चूहर जड़ जमावत खुद ला भी स्थापित करत अपन जिनगी के मिशाल देथे|

मानव सभ्यता के विकास क्रम ले लेके आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी सबो कला हर हस्तांतरित होय हे| 

रुद्र तांडव, विश्वमोहनी ,नरतकी रुप , अपसरा मन के विलक्षण भाव भंगीमा , गंधर्व मन के कला इहाँ तक चंद्रमा के सोलह कला घलो हर मनखे जोनी बर कला बरगद कस सीख आए|

लाखों देववाणी ,दिव्य मंत्र , अमर श्लोक और स्त्रोत मन मौखिक- वाचिक और अनुगामी परंपरा ले हाथों हाथ आए हें| मुख मंडल ले उद्गारित हो शास्त्र के रुप म सुगम उपलब्ध हे|देवइया देवता ,महाऋषि और कलापूरण मनीषि मन अपन योग्य और समर्थ कला साहित्य के साधकमन  ल सौंपे हवँय|उपकार करे हवँय|

सम्हारे धरे लइक सामर्थ्य पैदा करे हवँय|

तव वोतके जिम्मेदारी और साहस ले कला साहित्य के साधक मन पाँव जमाये मान राखे हें|


        सरलग चलत ए परंपरा म अब दोष काखर कारण समावत हे|

नवीनता लिए परिवेश हर ए कर बर जादा जिम्मे दार हे| झटकुन सीखे सीधोय,सिद्धिप्राप्ति के भाव हर साधक ल सतत् विचलित करत हे |

ए मा कलावान बरगद के कोनो दोष नजर मा नइ आवत हे | 

हाँ धन ऐश्वर्य के प्रचुरता और तृष्णा हर कोनो कोनो ल अँधरा जरुर कर देहे|

संयम और नीति के बात ल धता बता आज कलाबरगद ल उपहास करे के कुत्सित प्रयास जरुर होय हे|


विश्व कला विरासत म भारत ल महाकलागुरु कहे गे हवय| तव महतारी छत्तीसगढ़ ल कला के माता माने जाथे | मनखे जोनी म इहाँ जनम धरे जीव मन आनंद और सुख बर कला के सबो रंग ल सिरजाये हवँय , पोठ खमिया गाड़े हवँय | उंकर अवदान ल जुग जुग ले सुमरे जाही ,भुलाय न इ भुलँय|

एमन हें  नाचा के भीष्म पितामह दाऊ राम चंद्र देशमुखजी, लकनाचा के अहम किरदार दाऊ दुलार सिंह मंदरा जी, लोक नाट्य अउ नवा थियेटर के निदेशक हबीब तनवीर जी, पंडवानी गुरु झाडू राम देवांगन जी,  पूना राम निषाद जी ,हारमोनियम के बाजा मास्टर पंचकौड़ , गोविंद राम निर्मल कर ,सतपंथी देवादास बंजारे जी,  सुरुज बाई खाण्डे जी, | 

छत्तीसगढ़ी कला संस्कृति बर बरगद- पीपर और साल -सरई के महत्तम ,आदीम परंपरा के हलबी -भतरी ,गोंडी के चर्चा करे बिना ए पाठ अधुरा रही जही|

ककसार, हुलकी ,माँदरी थापटी रीलो ,लेंजा , गेड़ी , गौर ,बार सरहुल ,करमा ददरिया मन भी एक पीढ़ी ले दुसर पीढ़ी म हस्तांतरित होय हे | ए कला विषय मन मनखे के जिनगी साधना आए|पर ए कला संस्कृति के कलावाहक अऊ कलाबरगद के पहिचान आजो ले नइ  हो पाय हे | एमन भी समृद्ध अउ पोठ परंपरा के द्योतक आएँ|

आज कला बरगद अउ कलासाधक मन ऊपर माँय -मोसी के व्यवहार नइ होना चाही| 

आजो के जुग मा आरूणी और एकलव्य कस शिष्य कला साधना बर आसलगाए घलो मिलथें| लेकिन उंकर संग अँगूठा माँग के शोषन अउ दमन के डरभर  घलो दे हें|


  हमर प्रदेश म तो विश्वयके सबले बड़े और प्राचीन नाट्य शाला हे, सीता बेंइरा, जोगी मरा ,नाटक कार भी रहीन, चित्रकार भी रहिन| सजीवता प्रदानय करव इया नायक देवदत्त और देवदासी सुतनका रहिन|

नाट्य मंचन भी होय हे||

क इ उदाहरण इतिहास म दफन हे|

अउ वर्तमान म पद्म विभूषण तीजन बाई जी हे जऊन मन गुरु शिष्य परंपरा ल ढोवत  हें| पंडवानी सीखावत हें|

एशिया के एकमात्र संगीत विश्व विद्यालय हे ,जिहाँ गायन ,वादन नृत्य, अभिनय, ललितकला साहित्य और व्यक्तित्वय विकास बरसो ले चले आवत हे| छत्तीसगढ़ी भाखा बोली के विकास और महतारी भाखा के अस्मिता ल संजोय संवारे खातिर गुरुकुल भी संचालित हे|

जिनकर साधक मन दिनोदिन निखरत हवें|

साहित्य,संगीत ,चित्र कला सबो क्षेत्र म कला साधक मन अपन  बड़ गहिर आस लगाय हें के उनला दानवीर और समर्थ कलाबरगद मिलँय| 

गुरुदेव श्री अरुण निगम जी के  कविता के एक पंक्ति समर विशेष के याद करवाथे...


 *हाँसत गावत जीयत जावौ, पालौ नहीं झमेला* 

 *छोड़ जगत के मेला ठेला ,पंछी उड़े अकेला.....* 


 *कोन इहाँ का ले के आइस, लेगिस* **कोन खजाना* 

 *जुच्छा जाना,सुक्खा आना* *का सेती इतराना*



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अश्वनी कोसरे कवर्धा कबीरधाम

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