Saturday 10 July 2021

सुरता ममा गाँव....अजय अमृतांशु

 *सुरता ममा गाँव....अजय अमृतांशु


      मोर ममा गाँव दौरेंगा,जिहाँ शिवनाथ नदी के निर्मल धारा सुग्घर आज घलो बोहात हवय। गर्मी के छुट्टी माने ममा गाँव तो जानच रहय। ममा गाँव जाना मतलब नदिया म नहाना अउ डोंगा चढ़ना...।

      एक घटना मोला आज भी सुरता आथे, तब मैं दस गियारा बछर के रहे होंहूँ , नदिया नहाय बर चल देंव। तउँरे ल तो जानते रहेंव। घाट म दू चार झिंन लइका मन कहिथें के आज नदिया ल पार करना हवय। अब चूँकि गरमी के दिन म नदी के बहाव लगभग नहीं के बराबर रहिथें तेकर सेती तउँरे म आसानी होथे.. मैं तैयार तो होगेंव फेर थोरिक डरात रहँव।  मैं नदिया मा तउँरे तो अड़बड़ रहेंव फेर नदिया ल पार एको घँव नइ करे रहेंव। जम्मो लइका मा एक झिंन हा दिव्यांग रहिस तभो ले वोहा नदिया ल कई घँव पार करे रहय। मोला थोरिक डरात देख के जम्मो लइका ओकर उदाहरण दिस कि देख जब येहा पार कर सकथे तब तेहाँ काबर नइ कर सकस। हमन तो सँग मा हवंच। दिव्याग लइका ल देख के मोर हिम्मत बाढ़गे अउ तियार होगेंव। फेर मैं का जानव ददा उमन गाँव के रहइया आय और सबो खाँटी तउरइया। अउ मैं कभू कभार वाले..। 

      अब सबो लइका नदी ल पार करे बर कूद गेंन। उत्ता धुर्रा तउँरत नदिया के चवन्नी मा पहुँच गेन। अब थकान शुरू होइस रफ्तार थोकिन धीमा होगे। नदिया के आधा बीच म पहुँचे रहँव कि साँस भरे लागिस अउ तउँरे के शक्ति लगभग चवन्नी होगे। मँय मँझधार म बुरी तरह से फँसगे रहँव। चारो कोती अथाह जलराशि अउ मैं उबुक चुबुक करत रहँव। बाकी लइका मन अघुवा गे रहय। मैं पछुवाय रहँव। अब न तो मँय आघु बढ़ पात रहँव न पाछू काबर दूनो डहर केवल बूड़े के बदे रहय। 

अब मन मा अजीब अजीब खियाल आय बर धर लिस- कहूँ मगर आगे त मोला सोज्झे चगल देही, मोर हाड़ा गोंड़ा तक नइ मिलही । सियान बताय रहय कि नदिया मा मगर हावय। फेर सोंचव कहूँ साँप चाब दिस ता का होही..? मोर बर अइसे हो गे रहय जइसे- *"आघु कुँआ पाछू खाई,बीच म फँसगे ममा दाई"*

घेरी भेरी इही सोंचव कि कहाँ कहाँ मैं इँकर भभकनी मा आगेंव। फेर अब पछताये होत क्या...???   सब लइका मन लगभग किनारा पहुंचने वाला रहय अउ मैं मँझधार मा फँसे रहँव, फेर थोरिक साहस करेंव। तैराकी जानने वाला मन पानी म थोरिक सुस्ता घलो लेथे वो आइडिया महूँ जानत रहेंव। थोरिक सुस्तायेव लेकिन सुस्ताय मा घलो मेहनत लागथे हाथ पैर हा हिलत रहना चाही। जब तक हाथ पैर हिलही तब तक उफलाय रहिबे, हाथ पैर के हिलना बंद मतलब बूड़ना तय हे। 

मन म गोहरात रहँव मोला आज भर बचा ले भगवान तेकर बाद जब तक नदी के लंबाई के ज्ञान नइ रइही तब तक नदिया ला पार करे बर उतरबेच नइ करँव। अउ घर म बतांव घलो नहीं कि मैं नदिया ल पार करत रहेंव,काबर मैं बिना बताय तो आय रहँव । अब कइसनो कर के धीरे धीरे तउँरत आघु बढ़े बर धरेंव । सँग म आय लइका मन ल मने मन अड़बड़ गारी घलो देवत रहंव कि उमन सब के सब अघुवा गे अउ मोला छोड़ दिस। पल- पल साँस ह भरत रहय जीव हा उबुक चुबुक होत रहय। किनारा  लगभग पचास फीट बचे रहिस अइसे लगिस कि अब ये दूरी ल मँय तय नइ कर पाँव ,भइगे मोर  "राम नाम सत्य होना"  तय हे। वइसनेहे मोर एक पाँव के अँगठा ह रेती म टकराइस अउ तुरते दूसर पाँव के पंजा हा रेती मा छुवाइस। मोर जान म जान आगे। ले दे करके वो पचास फीट ल पार करके नदिया के किनारा म पहुँचेव। लस्त पस्त होके रेती म धाँय ले गिरेंव। अउ ससन के भरत ले सुरतायेव ।

आज घलो वो घटना कभू कभू सुरता आथे ता पोटा काँप जाथे।


*अजय अमृतांशु*

भाटापारा (छत्तीसगढ़ )

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