Friday 3 December 2021

3 दिसंबर हरि ठाकुर जी के पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष:-

 



3 दिसंबर हरि ठाकुर जी के पुण्यतिथि के अवसर पर

विशेष:-


क्रांति प्रेम अउ श्रृंगार के कवि हरि ठाकुर 

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डाँ. बलदेव


             सुराज के बाद छत्तीसगढ़ के काव्य - कानन म जे कवि कोकिल मन के पहिली पहिली कंठ फूटिस उनमा पंचम सूर रहिस हरि ठाकुर के । उन्कर पहिली कविता भौं माधुरी म छपिस । फेर देस के बड़े - बड़े पतरीका म वो छपिन , इहां तक पन्नालाल पुन्नालाल बख्शी सरस्वती जइसे महत्वपूर्ण पतरीका म हरि ठाकुर ल छापिन । हरि ठाकुर गद्य - पद्य हिन्दी अउ छत्तीसगढ़ी म पाछू चालीस बरिस के ऊपर ले लिखत आत हें । वो दू बार छत्तीसगढ़ी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्छ पद ल सुसोभित कर चुके हैं । स्वतंत्रता आन्दोलन अउ गोवा मुक्ति आंदोलन में भी उन कूद परे रहिन । हरि ठाकुर छत्तीसगढ़ केशरी ठाकुर प्यारेलाल सिंह के तीसर पुत्र आय । अइसन सपूत बर कोन छत्तीसगढ़िया गरब नई करहीं ।


                            ( 1 ) 

      गीतों के शिलालेख , नये विश्वास के बादल , लोहे के नगर , पौरुष नये संदर्भ जइसन कविता किताब हिन्दी म , गीत अउ कविता , जय छत्तीसगढ़ , अउ सुरता के चंदन इकर छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह प्रकासित हो चुके हे अउ एक दरजन ले किताब विध विसय म छप चुके है । इकर कविता म एक डहर तो परेम के गुच्छा गुच्छा महकत फूल हवय त दूसर ओर करांती के मसाल । अइसने म सहृदय अउ कर्मठ पुरुस के हाथ ले नव निरमान के काम होथय ।


         छत्तीसगढ़ म घलो नई कविता अउ समकालीन कविता के जानदार कवि हांवय , फेर आलोचक मन नेंग टारे कस उन्कर चरचा करथें हरि ठाकुर हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि होय के बाद घलो अपन बोली म अपन भाखा म कविता लिखथें । अइ चाल शेषनाथ शर्मा शील अउ नारायन लाल परमार के हे । असल म जेकर मन म अपन माटी के महक होथे कसक होथे वो अपन जुबान म कविता लिखथे । महाकवि विद्यापति घलो कहे हांवय देसिल बयना सब जग मिट्ठा हरि ठाकुर वोही नीत के कवि आंय । उन्कर कविता परेम , सिंगार , विरह - वेदना , अउ अनाचारी सोसक के ऊपर गुस्सा अउ हुंकार ले भरे हे । हरि ठाकुर के मन म देस ल छत्तीसगढ़ ल नवा करम ले सिरजाय के कुलुक हे हुमक हे , साध है । उंकर सपना हे -


 टोनही अस झूपत हे बिरबिट रतिहा घलो पहा जाही   

 आही गुरुज सजे दुल्हा कस अउ दिन के मुंह ल  

                                                            उजराही 


   सुरुज के आंखी म झूलत हे सपना नवा बिहान बेरा नव निरमान के । टोनही अस झूपत हे बिरबिट रतिहा जइसन लाइन म पटन्तर के ऊपर पटन्तर हवय देखिहा रतिहा ओहू बिरबिट माने सूची भेद्य अंधेरा अ वो रात के टोनही जइसन झूपना गरीबी अउ अज्ञानता के प्रतीक आय अ सुरुज सुराज के । जेकर अंजोर छत्तीसगढ़ के देहात म पहुंच नइ पाय हे । पहुंचे के पहिलीच ले वो चोरी हो गय है । कोन चोराइस ए अंजोर ल एकर हमला गियान नइये । हम सिरिफ अपन दुख के रोना रोवत हन -


हमर झोपड़ी वाला मन के मरन हवे जी बिना मरन के भीतरे भीतर चुरत हवन जी हम चांउर जइसे अंधन के


            अंधन के चाँउर जइसे चूरना माने दुख सहना अउ चुप रहना । कवि के सोंच अउ संसो एही ठउर ले सुरू होथे - कवि ए चुप्पी ल टोरना चाहथे । वो दुख म ओघात आदमी ल जगा के कुदारी अउ रांपा ल धरे के मंतर बताथे , काबर एकरेच देखे टोनही कांपथे । हरि ठाकुर सोसित जनता के नेता के रूप म हमर सामने आथे । उंकर पृथक छत्तीसगढ़ के आंदोलन सुरू करे के पाछू एही कारन रहिस हे अउ मोर हिसाब ले आजो हे | हरि ठाकुर के सलाह हे -- 


कन्हिया कसके बढ़े चलो खुद भाग अपन तुम गढ़े      

                                                             चलो 

सोसन अन्याय गरीबी के सब जुरमिल अब लड़े 

                                                            चलो ।


               मनखे अपन भाग के गढ़इया खुदे आय । छत्तीसगढ़ के किसान के बीच वो जयप्रकाशनरायन जइसे समाजवादी के दरसन रखथे । उंकर कहना हे जेखर जांगर ओकर नांगर , जेकर नांकर ओकरे भुइंया । कवि श्रम के प्रतिस्ठा करथे । ओकर हिसाब म सुराज तुलसी के बिरवा आय मुंड़ म नरियर चढ़ा चढ़ा के ओकर रक्छा करना है । हरि ठाकुर बर छत्तीसगढ़ के माटी ओकर माथा के चंदन आय । महानदी के पानी दूध के धार आय जे पोटरीयान म चढ़के सोनहा बाली बन जाथे । धान के अइ मंजरी म छत्तीसगढ़ी महतारी के सिंगार होथय । जय छत्तीसगढ़ गीत के दू ठन डांड़ देखा -


     दूध असन छलकत जावत हे महानदी के धार    

     छत्तीसगढ़ के माटी ओखरे सेती करे सिगार 


                     हरि ठाकुर के खून म विद्रोह अउ प्रेम हर टहलत रथे । जेतका बेर जेकर ओसरी आ जाए । हिन्दी के अवसर हर छोटकन होके ओसरी बन जाथे । हरि ठाकुर ल रोनाही सूरत नीक नइ लागय उंकर गीत मा नवजवानी के रंग हे उमंग हे रस ऊउ गंध है । देखा-


              सुन सुन रसिया 

              तोर आंखी के काजर लागय हंसिया 

              चंदा ल रोकेव सूरज ल रोकेव 

              रोकेव कइसे उमर ल 

              चुरुवा भर - भर पियेंव ससन भर 

              गुरतुर तोर नजर ल ।


          लोकधुन म बंधे ए गीत म लिंग भेंद नइये , ए छत्तीसगढ़ी के विसेसता आय । एला दुरा - टुरी दूनों गा सकत हैं । अइसन मउका म हरि ठाकुर के गीत पर्दा म घलो फिल्माय जाथे - 


      गोंदा फूलगे मोर राजा गोंदा फूलगे मोर बैरी

      छाती म लागय बान ..... 


                   फेर ए बोली ठोली म का मजा , असली मजा तो घर गिरस्ती म हे फूल के बाद फरे म सुख हे । दूज के चंदा उए हे । दही बरोबर अंजोर बगरे हे । नवा बहुरिया तुलसी के चौरा म दिया बारत हे घर आंगन पट पर हो जात हे । कविता संस्कृति म कइसे रुपान्तरित होथे ए बात ल एकदम लकठा ल देखा-


 न बहुरिया के भारी पांव । दिया धरे अंचरा के छांव । एक जोत मुह म लहराय । कोख म दूसर जोत लुकाय । 

       पांव भारी बड़ सुघ्घर मुहावरा आय दिया के जोत बहुरिया के मुँह म लहरात हे दूसर कोख म लुकात हे । कइसन सुघ्घर बिम्ब अ कइसन सुघ्घर भाव । अइसन जोत बाहिर - भीतर जलत रतीस त न ? फेर ए हर छिन भर के उजियाला आय , जुग जुगान्तर के अधियार तो छिटके हे । गरीब मनखे के आधू वो कभू सूर्पनखा जइसे खड़े हे त , कभू रक्सा कस बंढ़त हे त कभू टोनही कस झूपत हे देवारी म गरीबी के करलई देखा -


  कइसे बारव दिया बतावव , नइय तेल अउ बाती    

  सांस के आरी जिनगी चीरथे गुगवावत हे छाती


       गुंगवाना माने भंग ले नइ बरै , कुहरात कुहरात अपन - अपन अनि ल सिरा देना , खतम कर देना । अइसने मठका म लइका फटक्का मांग देही त कउन मेहतारी के छाती हर नइ फाट जाही । छत्तीसगढ़ी गीत अउ कविता म एही रकम के अब्बड़ चित्र भरे हैं । 


                               (2 )


         छत्तीसगढ़ी काव्य - भाखा के प्रस्न ल लेके हरि ठाकुर के बहाना म कई उन सारथक बातचीत करे जा सकते हे । कारन उंकार लेखनी मज चुके है , अउ विचार म प्रउढ़ता आ चुके हैं ।


                   अपन कमजोरी ल जे कौम हर छिपाथे , कमजोरी ल अपन सक्ति समझथे , ते हर खुद भटकथे अउ आन कोनो ल भटकाये । भाखा के अपेक्षा बोली म अभिव्यंजना के बड़ सक्ति होथे । बात - बात में लक्षणा अठ व्यंजना के दरसन होथे । फेर ओकर परयोग म सावचेती के जरूरत हे , नहीं त अर्थ के अनर्थ हो जाही । कोनो नवा साहित्यकार ल लेके ए बात करिहौ तौ अही हर छत्तीसगढ़ी के असली दुस्मन आय समझही । राजनीतिक दाव - पेंच म भाषा के आंदोलन कमजोर हो जाथय । एकरे बर हरि ठाकुर ल सामने रख के करे हौं । काबर उन अपन ल खुद ठोक ठठा के तियार कर हे . छत्तीसगढ़ी भाखा के विकास म बड़ सावचेत हें , ऐतके , नहीं उन वो कसौटी के मतलब समझथें , ओकर ताप म निखर के चमके के सामरथ रखथे । मोला विस्वास हे उन न तो मोम असन टघल के निराकार हो जाही अउ न टीन असन जल के खोइला बन जाहीं उंकर रच रचाव हर।

             सुरता के चंदन हरि ठाकुर के कविता के ही नहीं छत्तीसगढ़ी कविता के महत्वपूर्ण संग्रह आय हरि ठाकुर के कल्पना सक्ति अउ सब्द स्फीति क्षमता अउ अक्षमता , सबलता अउ सिथिलता सब्बेच के दरसन . सुरता के चंदन म मिल जाथे ।

                   आदमी सक भर , ताकत भर अन्याय ले सोसन ले , समाज अ अपन आप ले लड़थे , फेर एक समे अइसन आये के ओकर सांस भर जाथे , वो थक जाथे । जब जिनगी ले बड़े जिनगी के दुख हो जाथे , त वो थिराय चाहथे , छहहां खोजथे , अउ ओहर मिलथे प्रकृति के सौंदर्य म , नारी के परेम म , ओकर सुरता म वोकर ले ओला प्रेरना मिलथे सक्ति मिलथे । सुरता जे चन्दन कस सीतल अउ सुगंधित हे , जेकर भीतर बिरहा के आगी हे । ए दाह अउ वो सीतलता के कन ल कवि बीनत हे पछोरत हे , मन कलेचुप मुड़मिसनी माटी कस घुरत हे , सरीर टूटत हे । अइसन बीत म जिनगानी पहार हो गए हे गिनती के सांस बचे हे , एला कवि ओही ल बहोरत हे , जे हर पीरा ल देहे हे । आदमी जब निरास अउ असहाय हो जाथे , जिनगी ले जब बिट्टा जाथे , तम्भेच बहोरे , लौटाय या वापिस करे के बात उठथे । वो कउन आंय जे एतेक बड़ पीरा के थाथी सौंप के कवि ल अकेल्ला छोड़ के लुका गए हैं , भुला गय हैं । कवि के जीवन म घटिस के नइ घटिस हमला एकर सोर नइये , फेर कविता म जउन घटत हे वोहर घटे ले कम नोहय । कवि के रचना - संसार म कहूं - कहूं वो अपन रूप ल देखा देथे ओकर रूप रवनिया , माने अगहन पूस के धूप असन हे आंखीं भेद भरे हे , गाल म मया के गेरू रचे हे , होठ बिहनिया कस , कपार के टिकली सरग दुवार के चंदा कस मांग नंदिया के कछार कस दीखत हे । रूप - रवनिया शीर्षक कविता म बड़ सुघ्घर लय हे । कविता के तीसर अउ चौथा डांड़ मन म रवनिया , गुनिया , बिहनिया , नंदिया जइसन सब्द आय हे , एही सुर म अइसनो प्रयोग हे- गुरतुर बोली , आरुग हांसी हर हरमुनिया असन लगत हे । ए उपमा म कउन से परभाव- साम्य हे , रूप के गुन में समझ नई आवत हे । मोर विचार ले हंसी के मधुरता व्यक्त करे बर हरमुनिया सब्द हर वो बिम्ब नइ उपजात हे , जउन कवि के इष्टं आय । कवि अपन पिरोहिल के तुलसी के चंवरा , खोपा के मोंगरा आँखी के काजर मांग के सेंदुर इहां तक उजराय पिंवराय बर अंग के हरदी बन जाय के सउख करत हे , फेर ए डांड़ हर कउन सौंदर्य ल व्यक्त करत हे , अर्थ ल कतेक वैचित्र्य प्रदान करत हे ए सोचे के बात आय-


    कभू नयन काजर छाती म चंद्रकलस धंवरा बन    

                                                        जातेव । 


            कहूं इहां चंद्रकलस के आसय सूता या सूतवां ( हार - बिसेस ) ले हे त कलस के जगा कला होना चाही अउ कलस हे त उन्कर मतलब उरोज ले हे , त वोकर उजराई संस्कृत काव्य म फैले हुए हैं , उपमा फीट हे फेर चंद्रमा के संग धंवरा अतकिहा परयोग आए । चंद्रमा तो उज्जरे रइही , दूसर धंवरा पुरुष ध्वनि युक्त हावय , वोकर उजराई परगट कम होवत हे । धंवरा पेड़ , धंवरा बइला उपयुक्त परयोग आय , धंवरा बादर , धंवरा आदमी , धंवरा कपड़ा , धंवरा चंद्रकलस मोर विचार म वो प्रभाव ग्रहन नइ करत हे , जउन कवि के आंखी - आंखी म झूलते हे । अब उजरईच के बात करना हे- डार  पात म किरन उतरगै , जुगर जुगर जोगनी बरत हे । नंदिया पिया मिलन बर दउरे , दूध असन , चांदनी बगरगे , खोखमा फूले हवै गगन म , फूलकांस के चरू जइसन गीत डांड़ मन म जगा जगा जल थल अउ आगास म उजियारी फरिआय हे , फेर ढिलागे मन - बछरू जइसन डांड़ म क्रिया के कठोर ध्वनि हर मन के कोमलता के बड़ हानि करत हे । वोइसने नदिया के पंवतरिया बइठे परवत उंकरू म कवि के आसय हनुमान बैठकी ले हे , जे हर उंकरू जइसन सब्द के सेती आन के तान चित्र खड़ा कर देथे बोइसने सरग निसेनी ओरमाय म ओरमाय हर उतारू भाव व्यक्त करथे । जइसे मुंह ओरमाना ए मेर लमाय सब्द हर जादा उपयुक्त आय अउ प्रेमानुभूति हर मरम ल छुए बिना नइ रहय । एक दू डांड़ देखा -

               काबर सुरता हर आ आके

               हिरदय ल मोर निचोरत हे

               कौन फूल फूले हे कोन गंध मोहत हे     

               मुरझावत बिरवा ल कोन ह उल्होवत हे -


     सुरता के बंसी बजथे त कवि बिआकुल वृन्दावन बन जायें ए मन ल छूने वाला गीत आय भजन आय सुरता के चंदन म प्रकृति सौंदर्य अ प्रेम एक दूसर के पूरक आय प्रकृति म ओ पिरीहिल के रूप हर सब्बेच जगा देखाऊ देथे । सीत रीतु के बरनन म कवि के कलम के कमाल है । अनजाने म उन्कर कविता म उज्जवल रस बरस परे हे । देखा फरियात हे गगन अउ धरती नहात हे , उत्ती के दिसा पंग - पंगावत हे , बारत हे दिया कतकहिन मन तरिया म अंजोर ओरियात हे । फूलत हे कोन कोती गोंदा मंजरी अस् सपना मउरावत हे । फरियाना माने निरमल होना , स्वच्छ होना , पंग पंगावत माने उजेला होना जइसन क्रिया अउ गोंदा तथा मंजरी जइसन संज्ञा म जउन पिंवराई हे , ओ सुरता के चंदन म बाहिर - भीतर झलकत सब्द म अउ अरथ म श्रीमद् भागतव के दसम स्कंध के रास - प्रसंग अउ गीत गोविंद म जगा जगा उज्जवल रस के गंध बगरे हे । छत्तीसगढ़ी म घलो संस्कृत भाखा जइसन अर्थ व्यक्ति या पारदर्सिता हावय तभे तो अइसन डांड़ लिखे जा सकत हे-


      छावत हे मोर भीतर कोन गंध 

      चंदन अस सांस महमहावत हे


    महामहावत हर महमह करना क्रिया के छत्तीसगढ़ी रूप आए । वोइसे संज्ञा ल क्रिया के रूप देहे म हरि ठाकुर ( हिन्दी अउ छत्तीसगढ़ी म घलो ) माहिर है , अरुण ले अरुनावत , प्रवाह ले प्रवाहित , मधुर ले मधुराथे , उंकरे बिसेस परयोग आय । ए बात के प्रसंसा पं . मुकुटधर पांडेय घलो करे हैं । सुरता के चंदन म जगा - जगा सपना हे मिलन अउ बिछुड़न के ए समे सुरुज ओला चिलके अउ चंदा अगियाय लागथे वो रेसामही सपना ल घरिया चाहत है । आंसू भरे दर्दा म सपना कांछ कस फूटत हे , तभ्भो ले कवि जिनगी ले निरास नइ होवै , सपना म जउन रूप फूल बनके मन ल उजरात हे , मन भितरी जे भोर बनके उतरते हे , वो सुरता के कामधेनु आय। ये पीरा ल कवि हीरा बनाके हमर सामने पेस करथे ।


                              ( 3 ) 

         गांव गंवई म जड़कल्ला के अलग सेवाद हावय - गोरसी ( जेमा गोरस अऊंटाय जाथे ) तापे घलो म हाथ - गोड़ कांपत हे,रूख राई ठिठुरत हे, दांत कुटरत हे , पानी करा जइसन लागत हे , एकर बीच म देखा कतका सुघ्घर उपमा दिए गए हे , सीत अऊर धसत हे बरछी कस , जाड़ परत हे , फरसा कस , बेल असन लटके हे सुरुज हर ताड़ म जड़कल्ला म सुरुज के सपटना , घाम के पेड़ म अरझना , चिरई चुरगुन के घाम म पांखी ल सेकना छत्तीसगढ़ी काव्य - भाखा के सक्ति - मत्ता ल व्यक्त करत हे , फेर कोनो कोनो जगा तत्सम तद्भव अभिजात्य अउ ग्राम्य परयोग के साना घाटा म सुघ्घर चित्र घलो प्रभावहीन हो गय हे , देखा-


        ताम - कलस अस बाल सुरुज हर 

        क्षितिज ऊपर मड़ियात हे

        फरिका मन जम्हावत हे

        बरू मन रम्भावत हे । 


                  ऊपर के दू डांड़ म तो आधा शब्द अउ बिम्ब संस्कृत के आय अउ आधा ठेठ छत्तीसगढ़ी के। मड़ियात माने माड़ी के भार बइठे के कोसिस करना , एमा असमर्थता , अस्सख होय के भाव व्यक्त होथे , जइसे बइला मड़ियावत हे । अउ जदि मड़ियावत सब्द के परयोग होय होही त ओकर मतलब आनंदअउ उन्माद म उछलना - कूदना - भागना जइसे भैंसा मड़ियावत हे । दूनों भाव सुरुज बर ठीक नई होवत हे । बोइसने बछरू के रम्भाना चिन्त्य प्रयोग आय । गाय रम्भाथे अउ बछरू नरियाथे । अइसन हम सुने हावन । कहूं अंचल बिसेस म अइसन परयोग होवत होही त एक प्रस्न के उत्तर अपने - आप निकल जाही , प्रस्न आय परिनिष्ठित छत्तीसगढ़ी के । छत्तीसगढ़ में हलबी , भरती , खैरागढ़ी , रतनपुरी , जसपुरी ( सादरी ) अउ सरगुजिया छत्तीसगढ़ीच के रूप आय , अउ अंचल बिसेस के मिठास अम्मट म बदल जाही , सेवाद बिगसा जाही , कहूं हम बर पेली परिनिस्ठित छत्तीसगढ़ी के परयोग म परबो त , दूसर , भासा के विकास म बड़ रुकावट आ जाही ।


        बसन्त रितु म हरि ठाकुर के गीत गंध अउ पराग म सने हे नसा करे अस लागत हावय ये धुर्रा भरे हवा फागुन के , होल्ले बकइया भंवरा के संगत करत हे हवा । कभू रस्ता छेंकत हे , त कभू गम्मत करत हे अउ कभू • फुगड़ी खेलत हे । सब्बेच जगा फगुनाहट म हवा के बरचस्व हवय । आमा के संग मन घलो मउरत हावय । खेत खार - दइहन - खोर सब फागुन म माते हैं । तरिया म मोटियारी मन हांसत - गोठियात हें बोली- ठोली मारत हें- गदरावत हे नवा लिमउवा | विज्ञानिक जुग म लिमठवा कभू गदरा सकत हे , फेर गेदराना म दू ठन भाव छिपे हे पहिली तो पिंवराना दूसर गुदा वाला फर म रस भरना । जाम ( बीही ) के गेदराना , आमा म मउर आना , चिरईजाम के करियाना अउ लिमउ के डोहर होना , या रस ढरना परसिद्ध आय , चढ़त जेवानी के अरथ घलो गेदराय म विस्तार पाथे ।

    

      हरि भइय्या अपन छत्तीसगढ़ी कविता म धड़ाधड़ संस्कृत के सब्द मन के परयोग करथे का एकर ले उंकर काव्य - भाखा जादा पारदर्सी होथय ? मोर विचार ले उन्कर चिंता छत्तीसगढ़ी भाखा के सब्द भंडार के बढ़ोत्तरी कती हावै । अइसन नइ होतिस त वो छांट - छांट के नंदात छत्तीसगढ़ी सब्द मन ल कविता म फीट नइ करतीन एमा उंकर तियाग अउ तपस्या के भाव व्यक्त होवत है , अपन आप ल मिटा के अपन प्रतिभा ल कला के बलदा भाखा के संबर्धन अउ संरक्षण म लगा देना जादा महत्व के बात आय । ' फागुन बैरी ' जइसन एकेच उन गीत म सुरभि , हृदय , कुसुमायुध , चांदनी , मलय - पवन , मनसिज गगन , नयन जइसे सब्द आय है , वोइसने फागुन के मस्त पवन के मानवीकरन म उंकर कल्पना के कारयित्री प्रतिभा के सक्ति ल देखा फागुन कइसे अप्पत होगे अप्पत बिना पत के या निर्लज्ज ले जादा भाव हठ या जिद्दीपन के व्यक्त करत हे चार डांड़ अउ देखा है -


  मोर उप्पर गुलाल छींटय , मोर उप्पर डारय रंग ल

  मुह लु चुचवात हे महुवा , छोड़ते नइये मोरे संग ल


         एहर बिहारी के ए पंक्ति के टक्टर के कविता है यहाँ से -

     रनित भृंग घंटावली झरत दान मधु नीर 

     मंथर गति आवत चल्योकुं जर कुंज समीर


     उन्कर दार्सनिक भाव के एक ठन अउ डांड़ देखा-


   जुन्ना पाना झरय , उल्होवै नावा पाना सनन सनन


               ए डांड ल पढ़त समे टेनीसन अउ पन्त के सुरता आ जाथे द्रुत झरो जगत के जीर्ण - पत्र माने छत्तीसगढ़ी घलो म वोही ताकत हे अभिव्यंजना के जउन अंगरेजी या हिन्दी म हे फेर अइसन चटक रंग अउ तीखा गंध अभिजात्य भाखा मन म बहुत कम हे , देखा -


  ' धुर्रा दऊरत हे गरेर कस पिंउराये धरती कनेर कस     

    बैरागी मन म होवत हे , ए कईसन अनुराग हवन


        हरि ठाकुर के काव्य - भासा म अप्रचिलत सब्द घलो हर असली अरथ ल परगट कर देथे गर्रा ( धूंकर ) के रूप आय। अइसने दू ठन अउ अप्रचलित सब्द के कमाल देखा-


         चिमट चिमट के हवा पराथे 

         सुख के दिन खरहा अस सपटे हे

         कोरा म पाले अउ भुरिया दे 


          इहां पराथे माने भागना आय , परा हर पला के बदले रूप आय , र अउ ल दूनों के जनम स्थान एके आय । मुहावरा हे पला तान के भागना , भुरिया दे माने सहला दे होही । अप्रस्तुत विधान म कवि जइसन चित्र खींचना चाहत हे वोइसने खीचाथे । बसंते जइसन ग्रीस्म रितु घलो के परभावसाली चित्र सुरता के चंदन म मिलथे उंकर ग्रीष्म बरनन हर कवि सेनपति के एक डांड़ के सुरता करा देथे वृष को तरनि तेज सहसा किरन करि , ज्वालन के ज्वाल बरसत हे - देखा - सुरूज बिहनहे , ले आगी उछरत हे , उछरन माने उल्टी करना । वो धरती ल आवा कस उसनत है । ढक्कन बंद करके उबालना हर उफने के भाव ल व्यक्त कर सकत है । गाय गरु , कोला बारी म सपटे , सलिहा के पिला टुकुर - टुकुर देखत हे । अइ मेर बिरहा के आगी कवि ल सुन्ना पाके बियाकुल करथे । वो ओकर ले मुक्ति चाहत हे-


     बिरहा के चिता रचे बइठे हे जीव मोर 

    आ जावे चढ़ के तैं बादर के डोला म 


           चउमासा के बरनन म हरि ठाकुर के कल्पना , उपमा कालिदासस्य जइसन कहावत ल साकार करत लागथे , देखा - बादर गंजागे रूई के पहार कस , अब्बड़ डकारत हे संकर के सांड असन , बादर म परगे हे आगी के डांड़ असन , झड़ी लागिस चासनी के तार असन पानी के टिपिर टिपिर , रद रद रद रद , टिप - टिप टिप - टिप म असाढ़ , सावन - भादो अउ कुंवार के बरसा अलग अलग स्पस्ट हो जात हे । चउमासा म गांव के सुघ्घर चित्र हे - पानी गिरत हे , लइका मेछरात हे , कउंवा गिदगिद ले फिले हे , घर सिग सिग ले दीखत है । मोटियारी झूला झूलत हे , रेमटा टूरा मन वोमन ल बिजरात हे । बिजराना माने चिढ़ाना किसान संस्कृति के चित्रन बरतो हरि ठाकुर मास्टरआय धरती नयन उधारिस अउ माटी गाभिन हो गय , ए टू वाक्य म छत्तीसगढ़ के संस्कृति व्यक्त हो जात हे , गागर म सागर भरना अइला कथे । छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के रूप हर , रंग हर , गंध हर ए कविता म तो संपूरन रूप ले उतर आय हे- आखरी डांड़ देखा  


          भौजी के कोरा म नानुक 

          निक नोनी कस पुलकत हे

          सघन मेघ मा सेंध फोर के 

          किरन सुजी अस बुलकत हे 


     अइ हर कवि हरि ठाकुर के अराधना आय , जे एक महीन जाल बुनके जीवन के आसा , उछाह अउ बिस्वास ल बिसेस अरथ देतहे । एकर ले हरि ठाकुर भर के नहीं छत्तीसगढ़ी भासा के सक्ति अउ संभावना के पता चलथे । हरि भइय्या बैसठ बसंत पार कर गय हैं , उन अपन काव्य कानन के सीतल छांव म नवा पीढ़ी ल बईठा के कुहके बर , मसाल जइसे जले बर प्रेरना देवै , भगवान ले एही प्रार्थना हाबय । 


                       ( मयारू माटी साल। अंक 10-11)


प्रस्तुति :- बसन्त राघव, पंचवटी नगर ,बोईरदादर,

रायगढ़, छत्तीसगढ़, मो.नं.8319939396

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