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*पान अउ ढेला*
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*(छत्तीसगढ़ी लोककथा)*
-रामनाथ साहू
ये जगह म ,आज खेत नइये। बहुत पहिली...बहुत- बहुत पहिली,येकरा एक ठन खेत रहिस।येकर संग म अउ बहुत अकन ,खेत रहिन ।
खेत रहिन, तब रुख- राई मन रहिन ,एकदम गझिन...सघन वन ..अइसन । अउ जब रुख राई मन रहिन ,तब पान-पतइ मन गिरबे करें । खेत म माटी के एकठन ढेला रहिस ।वोकरे तीर म एक ठन चौड़ा थारी असन पान हर आ गिरीस। दुनों के दुनों ,एक दूसर ल पसन्द करे लॉगिन । अउ आपस म सुख-दुख गोठियाय लॉगिन । धीरे- धीरे वोमन के मित्रता हर परवान चढ़े लागिस,अउ वोमन आपस मितान घलव बद डारिन ।मितान बनिन।संग म जिये मरे के कसम खाईन ।
एक दिन बड़ जोर से बड़ौरा आइस,अउ पान हर उड़ियाय कस करिस। तब ...मोर रहत ले तुंहला कुछु नइ होय मितान...कहत ढेला,पान उप्पर चढ़ के बोला लदक दिस । पान उड़ियाय ले बांच गय । पान वोला हृदय कमल ले आभार दिस ।
अइसनहेच एक दिन रटा -तोड़,मूसलाधार वर्षा होइस । ढेला के मूड म एक बूंदी गिरीस के,पान हर तुरतेच वोकर उप्पर म चढ़ गिस ।ढेला हर घूरे ले बांच गइस ।
अइसन सुख -दुख म एक दूसर के काम आवत,वोमन बड़ दिन ल हाँसी -खुशी रहिन । फेर एक दिन,विधाता के लीला...!गर्रा-धुंका, आंधी-तूफान...बरसात...सकल पदारथ एके संग म आइन। ढेला हर कूद के पान उप्पर चढ़ गय।फेर पानी के मोठ... मोठ बूंदी ले वोकर अङ्ग -भङ्ग होय लागिस।वोहर गले के शुरू हो गय रहिस । मितान...!मोर रहत ल तुंहला कुछु नइ होय, कहत पान, वोकर उप्पर चढ़ गय।तभे जोर से गर्रा वोला,उड़ियाय लागिस।मितान... मोर रहत ल तुंहला कुछु नइ होय ।ढेला ललकारिस अउ पान उप्पर फेर चढ़ गय। कभु पानी...कभु ....गर्रा -धुंका।कभु पान तरी,ढेला उपर त कभु ,त कभु पान उप्पर म ढेला ल बचावत । पान चिथात गिस, अउ ढेला घुरत...!फेर जीवन अउ मृत्यु के ये जंग ल दुनो मिल के बहादुरी के साथ लड़त, छेवर म पान चिथा-पुदका के उड़ गय, अउ अपन मित्र ल बचाते -बचात ढेला घूर गय ।
अउ ये कत्था हर पुर गय ।
*छत्तीसगढ़ के लोकप्रसिद्ध लोककथा*
*प्रस्तुति - रामनाथ साहू*
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