Friday 8 October 2021

व्यंग्य-हरिशंकर गजानंद देवांगन , छुरा

व्यंग्य-हरिशंकर गजानंद देवांगन , छुरा

 कलम 

                    दू झिन संगवारी रिहीन । अब्बड़ पढ़हे लिखे रिहीन । अलग अलग शहर म रहय फेर एके प्रकार के बूता करय । दूनों संगवारी एक ले बड़के एक कहिनी कंथली व्यंग्य कबिता लिखय , कतको प्रकार के अखबार अऊ पत्रिका म छपय । हरेक मंच म जावय । फेर दूनों के रहन सहन म , धीरे धीरे अंतर बाढ़त रिहीस । एक झिन अबड़ प्रसिद्ध पइसा वाला होगिस , ओकर करा गाड़ी बंगला अऊ सरकारी पद होगे । दूसर ल प्रसिद्धि मिलना तो दूर …. अभू घला गोदरी ओढ़इया , चटनी बासी खवइया अऊ फूटहा खपरा के घर ल टपर टपर के रहवइया रिहिस । ताना मार मार के , ओकर घरवाली हा , ओकर देहें ला अधिया डरे रहय । लइकामन अपन ददा के कमजोरी के तलाश करे लगिन । 

                    अमीर संगवारी के गुन के पता लगईन । पता चलिस के ओहा कलम के दुकान चलाथे , तभे अतेक अमीरी के सुख भोगथे । लइकामन पूरा बात ल समझिन निही । बैंक ले करजा लेके  , कलम के दुकान खोल डरिन । करजा के ब्याज अऊ दुकान के किराया पटाये के लइक कमा नइ सकिन । भट्ठा बइठगे , करजा म टोंटा बुड़गे । कका बतइस के , फकत कलम के दुकान खोले ले कोनो अमीर नइ बन सकय जी .......। कतको चिन पहिचान बनाये बर परथे ......। जगा जगा प्रचार प्रसार करे बर लागथे । लइकामन बिगन बात समझे , फेर वापिस लहुँटगे । ये दारी चिन पहिचान बनाये बर गाँव गाँव म प्रचार प्रसार के उदिम करे लगिन । थोर बहुत बाँचे खुँचे पइसा घला सिरागे । धीरे धीरे ओकर घर के समान बेचाये लगिस । कतको दिन नहाकगे , फेर वाह रे गरीबी ....... ओकर घर ला मंगर कस लीलत रहय । ये पइत ददा असकटागे , लइकामन उपर पुलिसवाला कस खिसियागे ।   

                    भगवान तिर गोहनाये के सिवाय अऊ कोनो चारा नइ बाँचिस । भगवान किथे – अरे मुरूख मनखे , कलम के अइसने दुकान म अमीर बने के सोंचे हाबव रे तूमन ..... ? अभू तक कोनो सरस्वती पुत्र अमीर होये हे , कोनो होये होही त मोला बतावव ? जेला अमीर बनना हे ते , सरस्वती के कोख ले जनम जरूर धरव , फेर खेलव लछमी के कोरा म । घर म सरस्वती के फोटू रखव , फेर पूजा लछमी के करव । ददा किथे - भगवान , हमन तोर ये घुमाये फिराये वाला बात ल समझत नइ हन , थोकिन फोर के बतातेव । भगवान किथे - तुँहर कलम ल बेचव , तभे तुँहर किस्मत बदलही , तुँहर जम्मो दुख दूरिहा जही । ददा किथे – वा , कलम बेंचे के अतेक बड़ दुकान खोले रेहेन भगवान , जनम भर के कमाये पूंजी सिरागे , तैं फेर खोल कथस ...? भगवान किथे – कलम के अइसन दुकान खोलव जेमा , बेंचे बर तुमन ला , उदिम झिन करे लागय , बिसइया खुदे , उदिम करके तुँहर तिर आवय ।   

                     ददा सोंचत हे - कोनेच बिसाही मोर जुन्ना पुराना कलम ला । नावा दुकान खोल डरिस । कोनो नइ अइन बिसाये बर ... माछी खेदत बइठे असकटाये लगिस । सपना म भगवान तिर गोहनावत पहुँचगे । भगवान किथे ‌- अरे मुरूख , तोर अइसन कलम ला कोनेच हा बिसाही । पहिली कलम के हुलिया बदल , फेर बेंच .....  देख रातों रात तोर किस्मत के पिटारा कइसे खुलही । वो मनखे पूछिस - मोर कलम मा तो कहींच खराबी नइये भगवान , एकर कायेच हुलिया बंदलँव ..... । भगवान किथे - तैं एक बेर बने कोशिस तो कर , जेला तोर कलम ले कोनो सरोकार नइये तहू मन ... तोर कलम ला बिसा लिही । वो मनखे फेर पूछिस - एक बात मोर समझ नइ आवत हे भगवान .... मोर कलम म काये खामी हे तेमा ..... ओहा चलथे , फेर कोनो ला , काबर चलत नइ दिखय । मोर कलम जियत हे , धारदार हे , फेर काबर नइ पुजावय । भगवान किथे – भले मानुस , तोर कलम म ईमानदारी के स्याही ला भर के राखबे त कोन ओला पूजही अऊ कोन ओकर तनि देखही । तैं ओकर हुलिया तो बलद , नइ बेंचाही त कहिबे । 

                     ददा ले दे के अब समझिस । बिहिनिया उठतेच साठ , कलम के हुलिया बलद डरिस । अभू अपन कलम के सच के पैजामा ला उतार के धूरिहा म फटिक दिस अऊ ईमानदारी के पोंकत स्याही ला उलदके … ओला ढोंग के कपड़ा पहिराके ... तरी म टिपटिप ले बेईमानी के स्याही भर डरिस । मिठलबरा जीभ अऊ लफरहा नीब के मटकत रेंगना ला .... देखे बर दूसर दिन ... कतको उमड़ गिन । कपट के ढक्कन म तोपाये कलम ला बिसाये बर , रेम लगे रहय । अब ओकर कलम , जगा जगा बेंचाये लगिस । ओकर किस्मत चमकगे । शहर के बड़ नामी मनखे बनगे । ओकर नाव अऊ फोटू बिगन , कोनो बड़े आयोजन नइ होवय अब ...... । बड़े जिनीस पुरस्कार , पद पदवी के भागी बनगे ........... ।  

  हरिशंकर गजानंद देवांगन , छुरा

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