तइहा के सुरता-शीला बिनई
कभू पाँव म चप्पल, त कभू बिन चप्पल के झिल्ली नही ते झोला धरे स्कूल जाय के पहली अउ स्कूल ले आय के बाद, संगी संगवारी मन संग मतंग होके, ये खेत ले वो खेत म भाग भाग के शीला बिनन। मेड़ पार ल कूदत फाँदत, बिना काँटा खूंटी ले डरे, धान लुवई भर जम्मो धनहा खेत म भारा उठे के बाद, छूटे छाटे धान के बाली ल टप टप बिनत झोला ल भरन। शीला केहेन त धान के लुवत, भारा बाँधत अउ डोहारत बेरा म गिरे या छूटे धान के कंसी आय। शीला बीने बर लइकापन म,एक जबरदस्त जोश अउ उमंग रहय, बिनत बेरा भूख प्यास, कम जादा, तोर मोर ये सब नही, बल्कि एके बूता रहय, गिरे छूटे धान ल संकेलना। शीला उही खेत म बिनन, जेमा के धान उठ जाय रहय,कतको खेत के धान लुवाये घलो नइ रहय,न डोहराय। तभो मन म भुलाके घलो लालच नइ आइस। वो खेत म जावत घलो नइ रेहेन। फेर कोन जन आजकल के लइका मन का करतिस ते?
हप्ता दस दिन धान लुवई भर शीला बिनई चले, ज्यादातर बड़े भाई बहिनी मन धान ल डोहारे के बूता करे अउ छोटे मन गिरे धान ल बीने के। संगी संगवारी मन सँग शीला बिनत बेरा काँटा गड़े के दरद तो नइ जनावत रिहिस, फेर घर आय के बाद बबा के चिमटा पिन म काँटा निकालत बेरा के पीरा बड़ बियापे। हाँ, फेर शीला बिनई नइ छूटे, चाहे कतको काँटा खूंटी गड़े। एक दू का? कोनो कोनो संगवारी मन के गोड़ म, आठ दस काँटा घलो गड़ जावय, तभो कोनो फरक नइ पड़े। रोज रोज शीला बीने म, छोट मंझोलन चुंगड़ी भर घलो शीला सँकला जाये। जेला खुदे कुचर के दाना ल फुनफान के अलगावन। जेन उत्साह अउ उमंग म शीला बिनन, उही उत्साह ले वोला घर म लाके सिधोवन, अउ सब चीज होय के बाद नापे म जे आनंद मिले, ओखर बरनन नइ कर सकँव। कभू कभू ददा दाई मन पइसा देके शीला के धान ल रख लेवय त कभू दुकान म बेच देवन, त कभू हप्ता हप्ता धान के बदली मुर्रा लाडू लेवन। का दिन रिहिस, कतका पइसा -धान सँलाइस ते मायने नइ रखत रिहिस, पर बढ़िया ये लगे कि शीला बिने के पइसा या धान मिले। शीला के पइसा ल मंडई हाट बर घलो गठियाके रखन।
शीला बिनइया संगवारी मन म बनिहार घर के लइका संग गौटिया घर के लइका घलो रहय, पहलीच केहेंव पइसा कौड़ी धान पान मायने नइ रखत रिहिस, बल्कि धान फोकटे झन पड़े रहे अउ जुन्ना समय ले चलत आवत हे, कहिके सब मिलजुल शीला बिनन। फेर आज ये बूता जोर शोर म नइ दिखे, न पहली कस शीला बीने के माहौल हे, आजकल खेत म ही मिंजई हो जावत हे। थ्रेसर के मिंजई म कंसी(बाली) नही, दाना गिर जाथे, उहू बहुत ज्यादा, ओतना तो चार पाँच खेत ल किंजरे म मिले। ये सब देख के दुख होथे, फेर का करबे नवा जमाना के ये बदले रूप रंग ल बोकबाय सब देखते हन। काम बूता नवा तकनीक ले भले तुरते ताही हो जावत हे, फेर मनखे, बचे बेरा के बने उपयोग नइ कर पावत हे, येमा न लइका लगे न सियान।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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