शशि साहू: *हमर जमाना मा*
सुरता के दस्तावेजीकरण बहुत सुग्घर नाम दे हवव। फेर येला लिखत समय मे मै अउ मोर के सम्भावना बड़ जाही। जेखर कोती चिटिक ध्यान झन देहू। मन ल वर्तमान ले जादा भूतकाल ह भाथे। तभे तो वो अक्सर कहिथे हमर जमाना कतका अच्छा रिहिस। ननपन ले आज तक के बेरा बखत उपर नजर डारन त जुन्ना दिन सबले अच्छा लगथे अउ आज के समय घलो अच्छा हे।
फेर हमर जमाना (ननपन मा) मा मनखे के मन मा जौन सरलता रिहिस,जिनगी मा सादगी,दया मया,सरेखा के भाव रिहिस। वोइसन मनखे नँदावत जात हे लगथे।फेर
बने गिनहा अउ कृष्ण कंस तो हर जुग म होथे। तब
मनोरंजन के नाम म किताब रहे। चाहे वो धार्मिक पुस्तक हो या माँग के लाये या बिसाये साहित्य रहे। मिल बाँट के पढे़ के आनंद।मनोरंजन के कोई कमी नही रहे गाँव मा। साल म आधा दर्जन तिहार आय।मड़ई होय,नाचा होय। हमर गाँव म गोविंद नवयुवक समिति रिहिस जेन मन साल भर मा कई ठन कार्यक्रम कराय।नोनी बाबू सब ल भाग ले के मौका मिले। पुराना साफ़-सुथरा धार्मिक या सामाजिक सिनेमा, सर्कस मीना बजार ये तीन चीज ल देखे बर दुरूग शहर जाय ल पड़े।
आज जब पहिली अउ दूसरी के लइका मन मोबाइल ले आन लाइन पढा़ई करत हे।भले ये समय के माँग ये, फेर सुरता आथे पट्टी पेन्सिल के।घेरी बेरी लिखना अउ मेटाना।
याद के याद हो जाय अउ अक्षर घलो सुग्घर बने। तब ब्रम्हा बरोबर कर्तब्यनिष्ठ अउ ईमानदार गुरूजी मन के
पाहरो रिहिस।
वो समय नशा के आज सरी विकृत रूप देखे के कखरो आँखी लआदत नइ रिहिस।नशा अउ मांसाहार ल जमो गाँव वाले हेय नजर ले देखे।गाँव ले तीन किलोमीटर दूरिहा
तक कोनो दारू के दुकान नही रिहिस।जेन शहर जावय उही म इक्का दुक्का मन लुका चोरी पियँय।होली जइसे रंग के तिहार ल गाँव म जुरमिल के मनाय।
[10/20, 6:52 AM] शशि मैडम: आदमी -औरत लइका सियान बीच गाँव म जुरियाय।डंडा नाच चलत रहे एक कोती रंग घोराय रहे बड़े जन बर्तन म अउ एक आदमी लोटा लोटा महिला पुरूष सबके मुड़ मा रितोय। तब नशा के चलन नइ रहय त लड़ाई झगरा घलो नइ होय अउ शांति पूर्वक तिहार मना जाय।
देवारी म सुरहुति गौरी गौरा,देवारी के धजा,गोवर्धन पूजा मातर,राउत नाच सबो वो बखत बिना विध्न- बाधा के सम्पन्न हो जाय।
बड़ दुख होथे जब माँ काकी भाभी मन बताथें। अब होली म घर ले नइ निकलन।एक दूसर के घर खाये पिये ल घलो नइ जान। देवारी म का लड़ाई-झगरा ल देखे ल जाबे ।अब पहिली कस तिहार नइ रहिगे बेटी। माँ बताथे।आज गाँव के उत्तरी - बूड़ती म दारू के सरकारी दूकान खुल गे हे। देखे म उही ह मेला कस लागथे। रोज दारू तिहार मनाये जात हे। त कोन ह होरी देवारी मनाही।शहर तीर के गाव न गाँव रहे न शहर।जादा बिगड़े हुये रूप देखे म आथे।
आठवी कक्षा तक गाँव म बिजली नइ रिहिस।आठवी के परीक्षा ल कंडिल म दे हँव।दूसर साल बिजली घलो आगे गाँव घर मा। एक ठन टेबल पंखा आगे। एम ए अंतिम के बाद घर म टेलिविज़न आइस।अउ बहुत बाद म छोटे
मोबाइल।अब जिनगी इन्टरनेट के जाल मा अरझे कस लागथे। वइसे इन्टरनेट ले काम म सुभीता होथे। तभो ले "अति सर्वत्र वर्जयेत्" ।
अगर हम तुलना करथन त मन इही कहिथे,नवा जमाना म
चैन अउ सुकून ह गँवा गे। बस भागत हन। कोन जनी काय पा लेबो? अब तो हवा पानी घलो मिलावटी लागथे।
दूध दही म जहर मिले हे। दार चांउर असली ये के नकली?
कतका चीज ल गिनावँव तेल नून शक्कर सब शंका के दायरा म। अस्पताल म गोड़ मढ़ाये के जगह नइये। महामारी हर रूप अउ नाम बदल - बदल के आवत हे । न जाड़ा म जाड़ लगे न जेठ मे गर्मी। अउ बारो बारो महिना सावन भादो।
हमर जमाना म प्रकृति घलो अनुशासित रहे। अपन बेरा बखत म हाजिर हो जाय।
बीते दिन लहुट के नई आय। फेर सुरता बहुत आथे। हम दोनो जमाना के सांक्षी हन। दोनो जमाना हमर ये। जय जोहार।
शशि साहू
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