Friday 4 September 2020

सुरता-गोरसी के गोठ

 सुरता-गोरसी के गोठ

        डॉ. पालेश्वर शर्मा

डॉ. पालेश्वर शर्मा हर छत्तीसगढ़ के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार अउ छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य के अनन्य सेवक रहिस । उनकर पुस्तक ’तिरिया जनग झनि देय’ छत्तीसगढ़ी संस्कृति जीवन के परिचय देथे। हमर ग्रामीण संस्कृति हर असली संस्कृति आय।

डॉ. पालेश्वर शर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति अउ जीवन के प्रेमिल व्याख्याकार रहिन।उन मन छत्तीसगढ़ी शब्द कोष के रचना करे हें ।

डॉ. पालेश्वर शर्मा के प्रकासित कृति प्रबंध पाटल, सुसक मन, कुररी सुरता ले, तिरिया जनम झनि देय, छत्तीसगढ़ के इतिहास अउ परम्परा, डिडनेश्वरी दर्शन, सुरुज साखी हवे।




’’तो आगे क्या हुआ दाई ?’’

’’तो बेटा, गोटिया के कई बरछ कोई बच्चा नहीं हुआ - ’’बिसाहिन दाई सरकंडा में माटी की कुरिया में गोरसी के चारों ओर बैठे लइका . . . लोगों के सुना रही है।

हाँ, गौटिया निपूता, गौटमिन बाझ - गांव की गोटकारिन दूरियां आभा मारती, छीटा कसतीं-गौटिया बँझला है, मुंह देखने का धरम नहीं, और गौटमिन के अंतस में शूल चुभ जाता। एक भी काना खोरवा, कुछ भी तो होता, मेरा पनदेवा बेटा तोतला, तेतरा, कुच्छ भी तो हो जाता. . . कोई मुझको दाईं. . . माई कहलेता, बेचारी चारों ओर चौंक कर देखती. . . जैसे कोई पुकार रहा हो. . . दा. . . ई. . .।

पूजा, बंदना, मनौती करते-करते थक जाने पर एक बूढ़े ने सुझाया- ’’टोटगा. . . एक गाय पाल कर उसकी सेवा करो, गौ-माता  सेवा का फल देगी. . . महाराज दिलीप को ऐसे ही फल मिला था।

कपिला, कामधेनु की सेवा-टहल करते-करते लच्छन बदले। गौटनिन बैठे-बैठे. . . ओकियाती. . . वमन करने लगती, महीना चढ़ गया था. . . गौटनिन देह में रह गई थी।

गौटिया मन ही मन कुल देवी-महामाया को संकल्प चढ़ाता, जोड़ा, नारियल, बोकरा पाठिया दूंगा, मां. . . मां. . .मैं डंडा-षरन हूं। भगवान मेरी लाज रख दे।’’

देखते-देखते. . . गौटनिन के देह पियरा गई, भात दार रुचते नहीं, सोंधी माटी, चूल्हे की राख खाने का मन करता। पैर शरी, मन शरी और देह डर से शरी हो गई।

पूस की पुत्री. . . . छेरछेरा पुन्नी आई। जोड़े में थरथराती रात, चांदनी गूंगुर कीर कथरी ओढ़े-अगास में तरैया तैरते. . . उसी समय . . . के हें. . . के. हैंकां. . . कवां। सुईन दाई आइ, छेवारी हुईं . . . गौटिया के घर कन्या रत्न पैदा हो गई थी।

गोटनिन की कोख उजल गई. . . पुन्नी के चंदा समान बगबग से गोरी बिटिया. . . . . सुग्घर दुधरु कुंवर हाथ गोड़ . . . नाम धर-धर के पारा परोस के प्यार करते. . . . चंदा. . . . पुनिया . . . . अंजोरा. . . .। पंडित पोथरी पतरा लेके आये, विचार किया. . . . ’’सब लच्छन अच्छे हैं . . . . मगर एकअवगुन . . . .’’

’’क्या है महाराज ?’’

’’इसके ब्याह में थोड़ी अड़चन है, झंझट है कि लड़की मंगली है।’’

’’दाई-ददा जनम देते हैं, करम नई देते। ’’ गौटिया नोहर छोहर की बिटिया को लाड़-दुलार से पालने लगा. . . . इधर नानचुक नोनी, केंवची खीरा सी बेटी बरसात की घास के समान बढ़ने लगी . . . . और बेटे . . . वो तो नीबू के रुख के समान चीमड़ होते हैं।

गांव के बाहर कोठार में दौरी चल रही थी। सुकवा उगता, भिन-सार होती, तब रास मुढ़ा कर, नरियर फोड़कर खुरहरी बांटकर सियान कमिया सय मांगने लगा- और बरेठ का श्ुरुवा बेटा. . . . चमकता दूध नाग समान भूरा दूबर-पातर मूछ की रेख आई है. .. . . गुन रहा है. . . .’’सय दे, सय दे, बारा पांड़े, बारा सै, बारा गांव बारा कोठार, चोर चिहांट, मुसुवा छुछुवा ले जाय ले जुई, चिरई चुरगुन, फाफा, फिलगा, खाय खूंदे पवन देवता, मेघ सजा, परऊ बैगा, ठाकुर साहेब, हरचंद देवेता, लाल साहेब, स. . . ब स. . .य लावा हो . . .  सय. . . . लावा।’’

चतुर श्ुरुवा, उमर के संग बुध श्ी बढ़ता, खरवन  झोककर पंडित के घर की ओर जा रहा था। खोल दुआरी में रटपटा कर रपटा तो अंजोरा खड़ी। . . . . भेंट हुई आंखे मिलीं. . . अंजोरा और भुरुवा. . .। वक. . . . इस जनम में भेंट हो गई।

इतने में काकातुआ की काकली फूट पड़ी, मुसकियाकर भुरुवा कहता है - ’’ऐसे गिरे भकरस ले, ठेकवा फूटा ठकरस ले, जी हर करिस हकरस ले।’’

अंजोरा की हंसी फूट पड़ी. . . . घर भी तर घुसने लगी. . . . और कह उठी -

’’तोला बोलत लाज नई लागे।

अभी ले कइसे कलयुग खरागै।।’’

दिन जाते देर नहीं लगती। नदी में पानी सूखता हैं, फिर चौमास में टिपटिप से नदियां भर जाती है। इस संसार की सीधा न्याय है. . . . जो कुमुद कंवल खिलते हैं, वे झर जाते हैं, जो जनम देता है, करम धरम करके हाथ पसारे चला जाता है -

’’ठूठी जोंगी रे पियत श्र ले ।

लाहो ले ले रे जियत श्र ले।।’’

भुरुवा सोचता है, नींद उड़ गई है. . .  अंजोरा का सुरता, उसकी याद - ’’का कारे डारेंव, काकर बुध म।

अब पानी नई सुहावै, टूरी के सुध म।।’’

इधर अंजोरा सपनाती है. . . . झकना कर उठ जाती है अंजोरा।

’’ए. . . .दाई . . . . जैसे भुरुवा मुरसरिया में खड़ा है. . . . अंजोरा मन में गुनगुनाती - ’’छाता के बलदा छितौरी देजा।

लाली लुगरा के बलदा पिछौरी दे जा।’’

बछर वत्सर पार होते . . . समय बीतता-भुरुवा के मन में कुछ उपाय सूझता नहीं। गांव में, गली में, गुड़ी में, खोल खलिहान में दोनों की चर्चा . . .. बात फैलती जाती। दोनों की जात अलग, गोत गतियार अलग. . . ब्याह खप नहीं सकता. . . . तब भा मंगली नोनी का विवाह गौटिया सोच में पड़ा है -

’’घर में बाढ़े बिटिया, डोंगा म बाढ़े पानी।

चभरंग ले बूड़जाथे, होथे फेर बदनामी।।’’

चेलिक मोटियारी की बात, लिगरी लाई बगरती जाती. . . भुरुवा को बता लगा-अंजोरा मंगली है, पंडती मंगली लड़का चाहते हैं . . . उसका मन नहीं मानता गांव गवई में टोटका टामन जादा मानते हैं। जो मंगली नहीं मानते, क्या उनकी शादी नहीं होती ? संसार में सब किसिम के आदमी है। क्या मंगली के साथ बिहाव करने पर बर मर जाता है ? ये सब मन का भरम है।

मैं देवी-दाई के माथा का सिंदूर लाकर मांग भर दूंगा। भगवान सब मंगल करते हैं। बिल्ली रास्ता काटती है तो क्या काम सफल नहीं होता ? भरम के जोर का कोई ठिकाना है।

भुरुवा के नैन में नींद नहीं-उधर अंजोरा रतिया दीप बुझाते कह उठी. . . ’’नांग जागे, नांगिन जागे, तेकर पाछू मोर बंड़वा भाई जागै’’ और अंचरा में दीया बूता दिया।

रात भर भुरुवा एकटक निहारते निटोरते रहा, भिनसारे जब कौआ कां-कां कर उठे, चिरई चहकी. . . तो भुरुवा ने देवी के प्रसाद . . . माथा का सेंदुर लाने का संकल्प कर लिया।

चलते-चलते, पैर को धूल माथे तक पहुंच गई। बेवाई फट चली, मुंह से फेचकुर गिरने लगा. . . पर अंजोरा की याद कर वह चल पड़ता। कब सूरज बूड़ गया, कब चढ़ गया, सुध नहीं, चेत नहीं. . .। हाट बाजार, रास्ता, मेड़, टिकरा, डिपरा, पार करते पखरावा बीत गयातो मंदिर निकट आगया। सामने अगम गहरी नदिया. . . मगर मछरी से भरी. . . तैरने पर परान चले जायेंगे। इधर पानी सिटिर-सिटिर बरसने लगा। कभी-कभी झिमिर झिमिर तो कभू झोर-झोर झरी झकर. . .। मगर के कारण पानी कैसे पार करे अब ? बिहान, सांझ, पानी पी पीकर काट दिया। कगार में मगर को देखा तो भुरुवा की बुद्धि जागी।

’’ऐ मगर मामा, जी मामा, सुनो तो, मुझे नदी पार करा देते, तुम्हें बड़ा पुण्य मिलेगा. . . मुझे देवी का प्रसाद . . . सिंदूर लेना है. . . मामा दया करो. . . .।

मगर देवी का नाम सुनकर बटर-बटर निहारता, बुड़-बुड़ . . . .पानी में बुदबुदाता. . . ’’मामा हूं, तो कपिला भांजा को नदी पार कराना होगा. . . भांजा की मदद पुन्न हैं फिर भांजा जी मेरा भी एक काम है, मेरा काम करोगे, तो तुम्हारा भी काम हो जायेगा।’’

’’मामा जी, जल्दी बताओ, मैं तुम्हारे लिए देवी का असीम लाऊंगा।’’

’’भांजा, देवी दाईसे पूछना . . . कि मगर रात-दिन पानी में रहता है, फिर भी उसकी छाती में हमेशा आग धधकती रहती है -

’’पानी में रहते हुए भी मगर की छाती रगरगाती रहती है।

मामा मैं खचित पूछ कर आऊंगा, मुझे नदी पार करवा दो।’’

और भुरुवा मगर की पीठ पर चढ़कर नदी पार कर गया नदिया के पार पेहरी की टेकड़ी पर देवी का मंदिर . . . . सोने का कलस चमक रहा है. . . . हपटते हपटते भुरुवा देवी के दुआर पर बिनती कर रहा है -

’’सावन सरल शारदा मैया, हरियर बन चहुं ओर।

सखी भोजली पहिर महामाया, झुलै सुघर हिंडोर।।

फूलन के ककनी, फूलन बनवरिया, फूलन बहुंटा बिराजै माय।

एक बन नाहकेंव, दूसरा बन नाहकेंव आयेंव तोरे दुआर हे माय।।

और डंडा सरन गिरा पड़ा है दाई के दुआर में. . . सुन्न, सांय . . . सांय . . . न कौआ कांव करे, न चिरई चांव करै. . . एक पहर. . . दो पहर . . . तीन पहर बीते. . . दूर कहीं बनककरा बोल उठा. . . उधर देवी के माथे का सिंदूर प्रसाद के रुप में झर पड़ा। भुरुवा अउहां-झडहां पटकू के छोर में सिंदूर झोंक कर रख लिया. . . और पिछछुच्चा पांव पड़कर लौटा . . . मगर मामा के बारे में जैसे पूछा-तो उत्तर भी मिला।

भुरवा धीरे-धीरे नदी के तट पर आया।

’’कैसे भांजा ?’’

’’हाहो, मामा. . . पार पहुंचा दो, मैं बताता हूं।’’

नदिया पार कर, बताया कि ’’मामा तुम पिछले जनम पंडित थे, फिर भी अपने ज्ञान, गुन को नहीं बाटा, स्वार्थी बने रहे, इसी से तुम्हारे पेट में आग जल रही है।’’

भुरुवा गिरते पड़ते गांव पहुंच गया। उसके अंतर में आग जल रही है, उसे कौन बुझायेगा ? अंजोरा भी उसी आग में भुन रही है, चल रही है। जात-पात का झगड़ा . . . एक पहाड़. . .. बीच में है। कैसे पहाड़ हटेगा, सूरज, चंदा को मेल कैसे होगा ? इधर गौटिया के चित्त में चैन नहीं। घर में जवान बेटी और खेत में पके धान चैन नहीं लेने देते फिर ऊपर से जात-पांत गोत गोतियार का छांदा बांधा कैसे जात का बंधन तोड़ा जावे ? जात का बंधन. .।

’’बिटिया के जनमत झांझर कोखिया, दिन-दिन बाढ़त गोतियार हो।

बेटवा के जनमत निरमल कोखिया, नितदिन बाढ़य परिवार हो।।’’

झंझट में पड़े गौटिया को पंडित ने समझाया ’’सुनो, जात पांत, हम लोगों का बनाया बंधन है. . . सब एक ही भगवान के सिरजे है। समाज का संकीर्ण विचार समाज को बढ़ने नही देता। दहेज, दान का बंधन गलें में फांसी है। धरम के नाम पर टोना, टामन, छुतीक छुआ. . .छू. . . छू . . . दुर. . .दुर. . .सब हमारी आंखो का दोष है. . . देखो न राजीव लोचन भगवान का पुजारी ठाकुर है, और मल्हार की डिड़िन दाई के पुजारी केवेट लोग है। शिवरी नारायण के भगवान की स्थापना संवार वनवासी ने की है, आज भी माघ पुन्नी को महाप्रभु जगन्नाथ की पूजा जगन्नाथपुरी में नहीं, शिवरी नारायण में होती है। उस दिन जगन्नाथ के पट नही खुलते। ये सब क्या हैं ?

जात पांत पूछय नहीं कोई, हरि का भजै सो हरि का होई।

देखो तो, बांभन पंडित की कन्या का डोली हरिजनों के कंधे पर उठी रहती है, तब भाई-बहिन को शरबत पिलाता है, कोई छुआ-छूत नहीं माना जाता। उसी प्रकार विवाह मंडप में पैकहा चर्मंकार के जूते पनही को रखते है, कोई बुरा नहीं मानता। कहा का छूत. . . कहां का छुआ. . . सब मन का भरम है, केवल सोचने का फरक है। छत्तीसगढ़ में तो जाति के नाम पर कभी कोई दंगा-फसाद-झगड़ा नहीं हुआ। जाति का मतलब सीमा-मरजादा। अपने-अपने रोजगार धंधे के लिए भाई बंटवारा। हम सब भाई एक गांव, एक धरती के पूत है।’’

आखिर, गौटिया ने झुझला कर भुरुवा के संग बिहाव करने की हायी भर दी। बिहाव का लागन हुआ, गड़वा बाजा बजे। इधर अंजोरा सोच रही थी - अंगना म कुंअना खनाय लेते ओ दाई, छियरी ला देते ढकेला। इधर दाई ददा का करेजा जल रहा है। मड़वा में गीत गा रहे हैं, सुआसिन गा रही है -

दाई अचहर पचहर टूट फूट जाही।

जुग-जुग सेंदुर भर रहि जाही।।

तोला भर सिंदूर के कारण बाबा, धियरी बेटी जुग-जुग से अहिवाती रहेगी। विदा की बेरा आ गई, आंसू की धार बह निकली-

बगूरी कोदई नदी म धोइ ले।

तोर आगे लेवैया, गली म रोइ ले।।

लड़के बच्चे सब सो गये, आगी बुता गई, और बिसाहिन दाई के नैना रो रहे हैं, टप-टप् टपा-टप् आंसू टपक रहे हैं - गोरसी के ऊपर . . . .।


साभार 

बलदाऊ राम साहू

No comments:

Post a Comment