Monday 14 September 2020

हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में अंतर्संबंध* (महेंद्र बघेल)

 *हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में अंतर्संबंध*

   (महेंद्र बघेल)


"मानव मुख से प्रयत्न विशेष से नि:सृत वह ध्वनि समूह जिसे समाज विशेष के सदस्य आपसी विचार विनिमय के लिए व्यवहार में लाते हैं ,भाषा कहलाती है।" 

        मनुष्य जिस समाज में रहता है उसकी अपनी एक भाषा होती है। मनुष्य सामाजिक क्रियाकलापों को मौन रहकर संचालित करने में सफल भी हो जाए। तब भी भाषा के बिना समाज की क्रमिक विकास की कल्पना नहीं किया जा सकता है। भाषा के विकास में बोलियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

          यहाॅं हिंदी और छत्तीसगढ़ी के संबंध में चर्चा के साथ ही साथ भाषाओं के विकास के क्रम की चर्चा करना भी आवश्यक है। यह 

सर्वविदित है कि हिंदी की ठीक पहले की भाषा अपभ्रंश है:-

1. संस्कृत :-1500 ईस्वी पूर्व से 800 ईस्वी पूर्व तक


2. लौकिक संस्कृत:- 800 ईस्वी पूर्व से 500 ईस्वी पूर्व तक


3. पाली (प्रथम प्राकृत):- 500 ईस्वी पूर्व से 1 ईसवी तक


4. प्राकृत भाषा (द्वितीय प्राकृत ) :-1 ईस्वी  से 500 ईस्वी तक


5. अपभ्रंश ( तृतीय प्राकृत ):- 500 ईसवी से 1000 ईस्वी तक


6. हिंदी :-1000 ईस्वी से अब तक

              यह भी आवश्यक है कि अगले सोपान में हिंदी की उपभाषाओं अर्थात बोलियों पर भी संक्षिप्त चर्चा कर लें। बोलियों में साहित्य की सृजन से भाषा समृद्ध होती है।

           हमें ज्ञात है हिंदी की 5 उप भाषाएं हैं:-

1. पश्चिमी हिंदी:-ब्रजभाषा, कन्नौजी, खड़ी बोली ( कौरवी), बुंदेली ,बांगरू


2. पूर्वी हिंदी:-बघेली,अवधि, छत्तीसगढ़ी


3. बिहारी हिंदी:-मैथिली, मगही, भोजपुरी


4.राजस्थानी:-मेवाड़ी,मालवी, मारवाड़ी, जयपुरी


5.पहाड़ी:-कुमाऊनी , गढ़वाली, नेपाली।

       हिंदी के विकास क्रम की कहानी  भी कुछ इस तरह है, मुख्यतः इसे चार भागों में बांटा गया है (1000 ईस्वी से लेकर अब तक)

1. आदिकाल 

2.भक्तिकाल 

3.रीतिकाल 

4.आधुनिक काल।

           हिंदी की कालजयी रचनाकार सूरदास, तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई और प्रेमचंद आदि के कृतियों ने हिंदी ही नहीं वरन गैर हिंदी भाषायी क्षेत्रों में अलग पहचान दी है। छत्तीसगढ़ी का इतिहास भी पुरातन है किंतु मौखिक साहित्य (वाचिक परंपरा) के प्रचलन में होने के कारण, छत्तीसगढ़ी का विकास क्रम:-

1. गाथा यूग (1000 ई. से 1500 ई. तक )से प्रारंभ होकर 


2.भक्ति युग (1520 ई. से 19 ईस्वी तक) और

 

3.आधुनिक युग- 1980 ईस्वी से अब तक 

अपनी प्रतिष्ठा की कहानी बयां करती है।

      इस संबंध में आदरणीय प्यारे लाल गुप्त जी कहते हैं कि "साहित्य का प्रवाह अखंडित और अव्याहत होता है तथापि विशिष्ट युग की प्रवृत्तियां साहित्य के वक्ष पर अपना चरण चिन्ह भी छोड़ती है प्रवृत्यानुरूप नामकरण को देखकर यह नहीं सोचना चाहिए कि किसी युग में किसी विशिष्ट प्रवृत्तियों से युक्त साहित्य की रचना ही की जाती थी कथा अन्य प्रकार की रचनाओं की इस युग में एकांत अभाव था।"

               यहाॅं छत्तीसगढ़ी के संबंध में चर्चा करते हुए भाषा और बोली कि अंतर्संबंध की पड़ताल करना भी आवश्यक है।प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है ,किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक व्यवहार शिक्षा और साहित्य में उसका क्या योगदान है। छत्तीसगढ़ी भाषा अपने 10 बोलियों (छत्तीसगढ़ी, खल्टाही, सरगुजिहा, सदरी कोरवा, बैगानी, बिंझवारी, कलिंगा,भुलिया, लरिया और हल्बी) के साथ कदम से कदम मिलाकर सतत गतिमान हैं। 

           इस संबंध में छत्तीसगढ़ी का साहित्य संसार बहुत ही समृद्ध है मौखिक (वाचिक साहित्य) परंपरा के अकूत संपदा से लेकर धनी धर्मदास, संतगुरु घासीदास, गोपाल बाबू, रेवाराम, जगन्नाथ, पं. सुंदरलाल शर्मा, कपिलनाथ कश्यप, कोदूराम दलित, डाॅ. नरेंद्र देव वर्मा, हरि ठाकुर, पं.श्यामलाल चतुर्वेदी, पवन दीवान , लक्ष्मण मस्तुरिया के योगदान से लेकर पालेश्वर शर्मा, नंदकिशोर शुक्ल, बिहारी लाल साहू, परदेशी राम वर्मा, विनय पाठक, सुधा वर्मा, शकुंतला शर्मा,सरला शर्मा ,जीवन  यदु राही, सुधीर शर्मा , रामेश्वर वैष्णव, पीसी लाल यादव ,रामनाथ साहू और कुबेर साहू जैसे अनगिनत साहित्यकार छत्तीसगढ़ी भाषा को समृद्ध करने में जी-जान से जुटे हुए हैं। छंदकार अरुण कुमार निगम द्वारा सन 2016 से लगातार ऑनलाइन पाठशाला का आयोजन किया जा रहा है। जिसमें छत्तीसगढ़ के लगभग सभी जिलों से योग्य रचनाकार छंद का ज्ञान प्राप्त करने के साथ  उत्कृष्ट रचनाओं का सृजन कर छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दे रहे हैं ।छत्तीसगढ़ के ये सपूत छत्तीसगढ़ी के साथ ही साथ हिंदी की सेवा में समांतर रूप से लगे हुए हैं।


छत्तीसगढ़ी मातृभाषा होने के साथ ही साथ छत्तीसगढ़ वासियों के रोम रोम में स्पंदित होने वाली जीवन रेखा भी है ।अतिशय शिष्टता और क्लिष्टता की सीमाओं से परे हटकर यह लोक की, जन जन की भाषा है ।छत्तीसगढ़ी में कृत्रिमता तनिक भी नहीं है, यदि कुछ है तो बस सहज सरल और तरलता युक्त गजब मिठास इसलिए गैर छत्तीसगढ़िया भी इसकी सरल संप्रेषणियत्ता की अद्भुत गुण सौंदर्य से अभिभूत हो उठते हैं।


मूलत: हिंदी भाषा का जन्म संस्कृत से हुआ है ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।लगभग 1000 साल पूर्व हिंदी का जन्म हुआ, धीरे-धीरे परिष्कृत होते हुए आज हिंदी भाषा एक नए रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है ।भारत में विलक्षण प्राकृतिक संपदा है ,कहीं पहाड़, समुद्र, घास का मैदान, बड़े-बड़े मरुस्थल, घने जंगल कहीं कड़ाके की ठंड तो कहीं भीषण गर्मी पढ़ती है, इन तमाम विविधताओं के बावजूद भी हिंदी अपनी समृद्धि के लिए सीना तान कर खड़ी है ।हिंदी राष्ट्रीय एकता और विकास से जुड़ी भाषा है ,भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी ने विगत सात दशकों से अपनी सामर्थ्य प्रतिपादित किया है ।अंग्रेजो के द्वारा बलात अंग्रेजी को थोपने के बावजूद हिंदी आज ताल ठोकते हुए सिर ऊंचा कर खड़ी है,अपनों को यह बतलाने के लिए वही एकमात्र भाषा है जो विविधताओं के बावजूद सबको एक साथ ले चलने में सक्षम है।


छत्तीसगढ़ में हिंदी भाषा प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय के शैक्षिक पाठ्यक्रम का एक हिस्सा है, छत्तीसगढ़ की जनता पाठशाला के माध्यम से हिंदी को सीखते और समझते हैं। छत्तीसगढ़ का मजदूर जब जीवन यापन करने के लिए दूसरे प्रदेश में काम की तलाश में जाते हैं तो उनके लिए भाषा का माध्यम हिंदी ही होती है ,हिंदी के विस्तार के लिए हिंदी सिनेमा के साथ फिल्मों में कसे हुए संवादों का भी बहुत बड़ा योगदान है, जिसके कारण गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होने की घटना का अनुभव किया जा सकता है। वर्तमान समय में इंटरनेट ,टीवी ,व्हाट्सएप और फेसबुक आदि में हिंदी के बढ़ते उपयोग ने हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है।


छत्तीसगढ़ के दुलारे सपूत हीरालाल काव्योपाध्याय जी ने 1886 में छत्तीसगढ़ी का व्याकरण लिख लिये थे, जिसका प्रकाशन ग्रियर्सन ने 1890 में किया ।हिंदी का व्याकरण भी लगभग इसी कालखंड में प्रकाशित हुआ था। हिंदी की पहली कहानी पंडित राम माधव राव सप्रे द्वारा छत्तीसगढ़ के पेंड्रा में लिखी गई। छायावाद के प्रवर्तक पद्मश्री मुकुटधर पांडे छत्तीसगढ़ी और हिंदी के महान लेखक थे। छत्तीसगढ़ की उर्वरा माटी छत्तीसगढ़ी और हिंदी को समभाव से पोषित कर रही है ।सुबह से शाम तक खेतों में काम करने वाले मजदूर, किसान और बनिहार की भाषा छत्तीसगढ़ी है ,यहां के व्यापारियों की भाषा हिंदी और छत्तीसगढ़ी है ,सरकार की भावी योजनाओं की भाषा हिंदी और छत्तीसगढ़ी है।


छत्तीसगढ़ की ऊर्जा नगरी भिलाई पूरे भारतवर्ष में लघु भारत के नाम से विख्यात है, भिलाई इस्पात संयंत्र ने भी हिंदी और छत्तीसगढ़ी के बीच भाषायी संबंधों को नई पहचान दी है ।भारत के विभिन्न राज्यों से आए हुए कामगारों के लिए हाट-बाजार, ऑफिस , चौपाल,दुकान ,बस स्टैंड आदि जगहों पर संपर्क की भाषा हिंदी ही है।


छत्तीसगढ़ की सीमा से निकलकर अन्य प्रदेशों में भी छत्तीसगढ़ी अपना स्थान बनाने में सफल हुई है, इस तरह से छत्तीसगढ़ की यह धरती छत्तीसगढ़ी और हिंदी के बीच भाषायी अंतर को कम करके नया आयाम करने में अपनी महती भूमिका निभा रही है। छत्तीसगढ़ की भाषा छत्तीसगढ़ी दो करोड़ जनता की भाषा है और हिंदी पूरे भारतवर्ष की भाषा है। आजादी के बाद जिन राज्यों का गठन भाषायी क्षेत्रवाद के कारण हुआ ,आज उन राज्यों को भी हिंदी का प्रचार करते हुए देखा जा सकता है। अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त बाहरी दुनिया से ज्ञान अर्जन करने के लिए तथा अपनी समझ बढ़ाने के लिए अन्य भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है पर भाषायी कट्टरता के मूल्यों पर कतई नहीं। कभी-कभी अंग्रेजी के घोर समर्थक हिंदी को और हिंदी का घोर समर्थक छत्तीसगढ़ी को कमतर आंकते हुए निम्न आचरण करने लग जाते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।भाषा तो अभिव्यक्ति का माध्यम है इसलिए कतिपय लोगों की सतही सोच से निर्मित इन दीवारों को ध्वस्त करने की महती आवश्यकता है।


छत्तीसगढ़ में निवासरत गैर हिंदीभाषी राज्यों से आए हुए परिवार के लिए संपर्क भाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी तो अनिवार्य है ही क्योंकि उनके घर में दूध छोड़ने वाला ग्वाला,नाई, कपड़ा धुलाई करने वाली धोबन, प्रेस करने वाले धोबी की भाषा, हाट बाजार की भाषा, ठेला और होटल की भाषा तो आखिर छत्तीसगढ़ी ही होता है। चाहे छत्तीसगढ़ी से परहेज करने वाले छत्तीसगढ़िया हो, बाहर से आए हुए गैर हिंदी भाषी या हिंदी भाषा भाषी हो इन सब को अपनी दिनचर्या में छत्तीसगढ़ी से दो-चार होना ही पड़ता है। इस प्रकार वे इन दोनों भाषाओं से संबंध तो रखते ही हैं।छत्तीसगढ़ी के वे लोग जो हिंदी की कम समझ रखते हैं पर टूटे-फूटे शब्दों को संयोजित कर हिंदी बोलने का भरपूर प्रयास करते हैं, इस धूल और प्रयत्न के बीच छत्तीसगढ़ी और हिंदी के सुमेल से उत्पन्न भाषा भी हमें चिंतन का अवसर देती है।

         हिंदी की तरह छत्तीसगढ़ी भी अपने बोलियों के संग अनवरत प्रवाह मान है तथा अन्य भाषाओं से आगत शब्दों का समुचित देखभाल कर उसे सवाॅंर रही है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, हिंदी का निस्वार्थ सेवा करके उसके संवर्धन में सतत प्रयासरत है बदले में हिंदी भी छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की सीमा से बाहर ले जाकर विस्तार की आशीष दे रही है। इस प्रकार हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों अपना सीना तान कर समृद्धि की कहानी गढ़ रहे हैं।


संदर्भ:- स्मारिका छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग प्रांतीय सम्मेलन 2017


महेंद्र कुमार बघेल डोंगरगांव जिला राजनांदगांव

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