Tuesday 14 July 2020

बड़े घर के बेटी(मुंसी प्रेमचंद)-(छत्तीसगढ़ी अनुवाद जगदीश "हीरा" साहू)

बड़े घर के बेटी(मुंसी प्रेमचंद)-(छत्तीसगढ़ी अनुवाद जगदीश "हीरा" साहू)

1.
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के जमींदार अउ नम्बरदार रहिस। ओकर बबा  कोनो बेरा बड़ धन-धान्य मा संपन्न रहिस। गाँव के पक्का तरिया अउ मंदिर जेकर अब मरम्मत घलो मुश्किल रहिस, उँकरे जस के खम्भा रहिस। कहिथे ये दुवारी मा हाथी झूमत रहय, अब ओकर जगा मा एकठन बुढ़िया भइँस रहिस, जेकर शरीर मा हड्डी पसली के सिवा अउ कुछु नइ बचे रहय; फेर दूध लगथे अबड़ देवत रहिस; काबर एक न एक मनखे हड़िया लेके ओकर मूड़ म चढ़े रहत रहिस। बेनीमाधव सिंह अपन आधी ले जादा जायदाद वकील मन ला चढ़ा डरे रहिस। ओकर वर्तमान आय एक हजार रुपये एक साल मा,  एकर ले जादा नइ रहिस। ठाकुर साहब के दू बेटा रहिस। बड़े के नाम श्रीकंठ सिंह रहिस। ओहा अब्बड़ दिन में मेहनत अउ उदिम के बाद बी.ए. के डिग्री पाय रहिस। अब एक दफ्तर मा नौकर रहिस। छोटे बेटा लालबिहारी सिंह दुहरी देंह के, सुग्घर जवान रहिस। भरे हुए गोल मुँह,चौड़ा छाती। भइँस के दू सेर ताजा दूध ओहा उठ के बिहनिया ले पी डरय। श्रीकंठ सिंह के दशा एकदम अलग रहिस। ये आँखी ला अच्छा लगइया गुण ला ओहा बी.ए. --इही दू अक्षर मा चढ़ा दे रहिस। ये दू अक्षर है ओकर शरीर ला निरबल अउ मुँह ला  कांतिहीन बना दे रहिस। एकरे खातिर वैद्यक ग्रंथमन मा ओकर विशेष मया रहिस। आयुर्वेदिक दवई मा ओकर अब्बड़ बिसवास रहिस। सँझा-बिहनिया ओकर खोली ले हमेशा खरल के सुग्घर कान ल अच्छा लगइया अवाज़ सुनाई देवत रहय। लाहौर अउ कलकत्ता के वैद्यमन ले बड़ लिखा-पढ़ी रहत रहिस।
श्रीकंठ ये अँगरेजी डिग्री ला पाये के बाद भी अँगरेजी समाजिक प्रथा बर विशेष लगाव नइ रहिस; बल्कि ओहा कईबार बड़ जोरदार ओकर निंदा अउ  तिरसकार करत रहिस। एकरे खातिर गाँव मे ओकर बड़  सम्मान रहिस। दसरहा के दिन मा ओहा बड़ मगन होके रामलील्ला होवय अउ खुद कोनो न कोनो के पात्र लेवत रहिस। गौरीपुर मा रामलीला के उही जनमदाता रहिस। पहिली के हिंदू सभ्यता के गुणगान करना ओकर धरम बर झुकाव के हिस्सा रहिस। समिलहा परिवार के ओहा एके झन मानने वाला रहिस। आज-काल नारी मन ला, परिवार ला परिवार मा मिल-जुल के रहना जेन ला अच्छा नइ लागे, ओला ओहा जात अउ देश दूनों बार  हानिकारक समझत रहिस। इही कारण रहिस कि गाँव के मनखे मन ओकर बुराई करय ! कोनो-कोनो  तो ओला अपन दुश्मन समझे मा घलो  संकोच नइ करत रहिस ! खुदे ओकर बाई घलो ला ये  बिसय मा ओकर ले विरोध रहिस। एहा एकर सेती नोहय कि ओला अपन सास-ससुर, देवर या जेठ मन ले घिनावत रहिस; बल्कि ओकर बिचार रहिस  कि कहूँ  अब्बड़ सहे अउ सम्मान दे के बाद भी  परिवार के साथ गुजर बसर नइ हो सकय, त रोज-रोज के झगरा ले अपन जिनगी खुवार करे ले अच्छा हे अपन खिचरी अलग राँधे जाय।
आनंदी एक बड़े उच्च कुल के लड़की रहिस। ओकर ददा एक छोटे-ले रियासत के ताल्लुकेदार रहिस। बड़ेज्जन घर, एकठन हाथी, तीनठन कुकुर, बाज, बहरी-शिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट अउ उधारी, जेन एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के खाये के समान हे सब उँहे रहिस। नाम रहिस भूपसिंह। बड़े दिल के अउ प्रतिभाशाली आदमी रहिस; फेर दुर्भाग्य ले बेटा एकोझन नइ रहिस। सात झन बेटीच बेटी अउ भगवान के किरपा ले सबो झन जिंयत रहिस। पहली खुशी-खुशी मा तो ओहा तीन घा बिहाव दिल खोलके  करिच; फेर पन्द्रा-बीस हजार रुपया के करजा मूड़ म चढ़गे, त आँखी चौंधियागे, हाथ ला सकेल लिच। आनंदी चौथइया बेटी रहिस। वह अपने जम्मो बहिनी ले जादा  रूपवती और गुणवती रहिस। एकरे सेती ठाकुर भूपसिंह ओकर ले अब्बड़ मया करत रहिस। सुग्घर लइका ला ओकर दाई ददा घलो अब्बड़ मया करथे। ठाकुर साहब बड़ा धरम-संकट मा रहिस कि एकर बिहाव कहाँ करन? न तो ये चाहत रहिस कि उधारी के बोझा बाढ़य अउ न ये मान सकता रहिस कि ओला खुद ला भाग्यहीन समझना परय। एक दिन श्रीकंठ ओकर सो कोनो चंदा के रुपया माँगे बर आइच। लगथे नागरी-प्रचार के  चंदा रहिस। भूपसिंह ओकर सुभाव मा मोहागे अउ धूमधाम ले श्रीकंठसिंह के आनंदी के साथ बिहाव होगे।
आनंदी अपन नवा घर मा आइच, त इहाँ के रंग-ढंग कुछ अउच दिखिच। जेन टीम-टाम के ओला ननपन ले आदत पड़े रहिस, ओहा इहां थोरको भी नइ रहिस। हाथी-घोड़ा के त कहना ही का, कोनो सजे  सुग्घर बहली घलो नइ रहिस। रेशमी चप्पल साथ मा लाये रहिस; फेर इहाँ बगइचा कहाँ। घर मा खिड़की घलो नइ रहिस, न भुइँया मा फरस, न भिथिया मा फोटू। एहा एक सीधा-सादा देहाती परिवार के घर रहिस ; फेर आनंदी हा थोरके दिन मा खुद ला ए नवा माहौल बर अइसे ढाल  लिच, जइसे ओहा रहिसी के सामान कभू देखे नइ रहिस।

2
एक दिन मँझनिया बेरा लालबिहारी सिंह दू ठन चिरई धरके आथे अउ भउजी ल कहिथे- जल्दी राँध दे एला, मोला भूख लागत हे। आनंदी खाना बनाके ओकर रद्दा देखत रहिस। अब ओहा नवा पकवान बनाये बर बैठिच। हड़िया मा  देखिस, त घीव पाव-भर ले जादा नइ रहिच। बड़े घर के बेटी, बचत ला का जानय। ओहा सब्बो घीव ला मांस मा डाल दिच। लालबिहारी खाये बर बइठिच, त दार मा घीव नइ रहय, त कहिथे- दार मा घीव काबर नइ डारे हच?
आनंदी हा कहिथे - सब्बो घीव मांस मा डाल देंव। लालबिहारी चिल्लाके कहिथे- अभी परनदिन घीव आये हे। अतेक जल्दी कइसे सिरा जाही?
आनंदी हा उत्तर दिच- आज तो बस पाव-भर ही रहिस होही। ओतका ल मँय हर मांस मा डाल देंव।
जइसे सुक्खा लकड़ी जल्दी  बर जथे, वइसने भूख मा तड़पत मनखे नान-नान बात मा भड़क जाथे। लालबिहारी ला भउजी के ए ढिठपना बहुत बुरा  लगिस, भड़क के कहिथे- अइसे लगथे मइके मा घीव के नदिया बोहाथे !
नारी गारी सहि लेथे, मार ला सहि लेथे; फेर मइके के निंदा ओकर ले नइ सहे जाय। आनंदी मुँह फेर के कहिथे - हाथी मरही  भी, तभो नौ लाख के। उँहा अतका घीव ला रोज नाउ-कहार मन खा जाथे।
लालबिहारी जल गे, थारी उठाके पटक दिच, अउ कहिथे--मन तो अइसे लगथे, जीभ ला धरके सुरर लँव।
आनंदी घलो ला गुस्सा आगे। मुँह लाल होगे, कहिथे - वो रहितिच त आज एकर मजा चखातिच।
अब अनपढ़, उजड्ड ठाकुर ले रहे नइ गिच। ओकर बाई एक साधारण जमींदार के बेटी रहिस। जब जी आवय, ओकर ऊपर हाथ साफ कर लेवय। खड़ऊँ उठाके आनंदी डहर जोर से फेंकिच, अउ कहिथे - जेकर घमंड मा भुलागे हच, उहू ल देख लुहूँ अउ तँहू ला।
आनंदी हा हाथ मा खड़ऊँ रोकिच, मूड़ बाँचगे; फेर अँगरी मा चोट आइच। गुस्सा के मारे हवा मा डोलत पत्ता कस कांपत अपन खोली मा आके खड़ा होगे। स्त्री के बल अउ हिम्मत, मान अउ मरयादा पति तक हे। ओला अपन पति के ही बल अउ पुरुषार्थ के घमंड होथे। आनंदी लहू के घूँट पीके रहि गे।

3
श्रीकंठ सिंह शनिच्चर के घर आवय। बिरस्पत के ये घटना होइच। दू दिन तक आनंदी कोप-भवन मा रहिच। न कुछु खाइच न पीच, ओकर रद्दा देखत रहय। आखिर मा शनिच्चर के ओहा नियम के अनुसार सँझा के बेरा घर आइच अउ बाहिर मा बइठ के कुछु एती-ओती के गोठ, कुछ देश-काल संबंधी समाचार अउ कुछु नवा मुकदमा आदि के चर्चा करे लागिच। ए गोठबात दस बजे रात तक होवत रहिच। गाँव के बने-बने मनखे मन ला को ये बात मा अइसे आनंद मिलय कि खाय पीये के सुरता घलो नइ रहय। श्रीकंठ ल उँकर ले पाछू छोड़ाना मुश्किल हो जाय। ये दू-तीन घंटा आनंदी बड़ मुश्किल मा काटिच! कइसनो करके खाय के बेरा आइच। पंचइती सिरागे। जब कोनो नइ रहिच, त लालबिहारी हा कहिथे -भइया, आप थोकिन भउजी ला समझा देहू कि मुँह सँभाल के बातचीत करे करय, नइ तो एक दिन अनरथ हो जाही।
बेनीमाधव सिंह हा बेटा डहर गवाही दिच -हाँ, बहू-बेटी मन के ये सुभाव अच्छा नइ होवय कि ओहा मरद मन ले जुबान लड़ावय।
लालबिहारी- ओहा बड़े घर के बेटी ये, तो हमु मन घलो कोनो कुर्मी-कहार नोहन।
श्रीकंठ हा चिंतित अवाज़ मा पूछथे- आखिर का बात होगे?
लालबिहारी  कहिथे - कुछु नइ होय हे; अइसने अपने आप उलझ गे। मइके के आगू मा हमन ला कुछु समझबे नइ करय।
श्रीकंठ खा-पीके आनंदी के तीर जाथे। ओहा दुखी बइठे रहय। ओकर हावभाव घलो तीखा रहिस। आनंदी हा पूछथे-- मन तो खुश हे ना।
श्रीकंठ कहिथे - अब्बड़ खुश हे; फेर तैंहा आजकाल घर मा ये का उधम मचा रखे हावच?
आनंदी के गुस्सा चढ़ जाथे, गुस्सा के मारे शरीर घलो जले लागिच। कहिथे - जेन हा तोला ये आगी लगा हे, ओला कहूँ पा जहूँ,  त ओकर मुँह ला हुरस देहूँ।
श्रीकंठ- अतेक गरम काबर होवत हावच, का होगे तेला तो बता।
आनंदी- का कइहँव, मोरे किस्मत खराब रहिस हे ! नइते गँवार छोकरा, जेला चपरासीगिरी करे के भी सहुर नइहे, मोला खड़ऊ मा मारके अइसन अकड़तिच।
श्रीकंठ- सब बात साफ-साफ बताबे, तो समझ आही। मैं तो कांही जानबे नइ करंव।
आनंदी--परनदिन तोर लाडला भाई हा मोला मांस राँधे बर कहिच। घीव हांडी मा पाव-भर ले जादा नइ रहिच। सब्बो ला मैं मांस मा डार देंव। जब खाय बर बइठिच त कहे लागिच - दार मा घीव काबर नइहे? बस, इही बात मा मोर मइके ला बुरा-भला कहे लगिच - मोर ले रहे नइ गिच। मैं कहेंव उँहा अतका घीव ला तो नाउ-कहार मन खा जाथे, अउ कोनो ला पता घलो नइ चलय। बस अतकेच बात मा वो अन्यायी हा मोला खड़ऊ मा फेंक के मारिच। कहूँ हाथ मा नइ रोके रहितेंव, त मोर मूड़ी फूट जतिच। उही ला पूछ, मैं जेन कहेंव, ओहा सच ये की झूठ।
श्रीकंठ के आँखी लाल होगे। कहिथे - इँहा तक होगे, ये छोकरा के ये दुस्साहस! आनंदी नारी सुभाव मा रोये लागिच; काबर कि आँसू उँकर आँखी के उपरेच मा रहिथे। श्रीकंठ बड़ा धैर्यवान अउ शांत आदमी आय। ओला कभूच कभू गुस्सा आवय; नारी के आंसू आदमी के गुस्सा भड़काये बर तेल के काम कर देथे। रात भर एती ले वोती करवट बदलत बितिच। गुस्सा के कारण नींद नइच आइच। बिहनिया अपन बाप सो जाके कहिथे - बाबू, अब ये घर मा मोर रहइ नइ हो सकय।
अइसन विद्रोह के बात कहे खातिर श्रीकंठ हा कई बार अपन कई सँगवारी मन ला को धुत्कारे रहिस; फेर दुर्भाग्य, आज उही खुद वो बात अपन मुँह ले कहत हे ! दूसर ला उपदेश देना बड़ सरल होथे!
बेनीमाधव सिंह घबरागे अउ कहिथे - काबर?
श्रीकंठ- एकर सेती कि मोला भी अपन मान--प्रतिष्ठा के कुछु चिंता हे। आपके घर मा अब अन्याय अउ हठ के  प्रकोप होवत हे। जेला बड़े के आदर-सम्मान करना चाही, वो ओकर मूड़ मा चढ़त हे। मैं दूसर के नौकरी करथंव घर मा नइ रहँव। इहाँ मोर पीठ पीछू मोर बाई पर खड़ऊँ अउ  पनही के बौछार होवत हे। कड़ा बात के चिन्ता नइ हे। कोनो एक- दो कहि सकथे, ओतका ला मैं सहि सकत हँव, फेर ये कभू नइ हो सकय कि मोर ऊपर कोनो मारपीट करय अउ मैं चुप रहँव।
बेनीमाधव सिंह कुछु जवाब नइ दे सकिच। श्रीकंठ हमेशा ओकर आदर करत रहिस। ओकर अइसन तेवर ला  देखके बुढ़वा ठाकुर अवाक रहिगे। बस अतके बोलिच - बेटा, तँय बुद्धिमान होके अइसन बात करत हच? नारी मन अइसने घर के नाश कर देथे। ओला जादा मूड़ी मा चढ़ाना ठीक नइ होवय।
श्रीकंठ- मैं अतका जानथंव, आपके आशीर्वाद ले अइसन मूरख नोहँव। आप खुदे जानथव कि मोरे समझाय-बुझाय ले, ए गाँव के कई घर सँभल गे, फेर जेन नारी के मान-प्रतिष्ठा के ईश्वर के दरबार मा जिम्मेदार हँव, ओकरे बर अइसन घोर अन्याय अउ जानवर जइसे व्यवहार मैं नइ सहि सकंव। आप सच मानौ, मोर बर ये कुछु कम नइहे,  कि लालबिहारी ल  कुछु दंड नइ होय।
अब बेनीमाधव सिंह घलो गुस्सागे। अइसन बात अउ नइ सुन सकँव। कहिथे - लालबिहारी तोर भाई हे। ओकर ले जब भी भूल--चूक होही, ओला सजा दे, फेर...
श्रीकंठ—लालबिहारी ला मैं अब अपन भाई नइ समझंव।
बेनीमाधव सिंह- नारी खातिर?
श्रीकंठ—जी नहीं, ओकर क्रूरता अउ बुद्धि हीनता के कारण।
दूनों कुछ देर चुप रहिथे। ठाकुर साहब बेटा के गुस्सा शांत करना चाहत रहिस, फेर ये स्वीकार करना नइ चाहत रहिस कि लालबिहारी हा कोनो अनुचित काम करे हे। इसी बीच मा गाँव के अउ  कई सज्जन मन  हुक्का-चिलम के बहाना उँहा आके बइठगे। कई माईलोगन मन जब ये सुनिच कि श्रीकंठ बाई के पाछू बाप सो लड़े बर तैयार हे, त ओमन ला बड़ खुशी होइच। दूनों के लड़ई-झगरा सुने बर उँकर आत्मा तिलमिलाये लगिच। गाँव मा कतको अइसन कपटी मनखे घलो रहिस, जो ये कुल के सुग्घर न्याय के रद्दा म रेंगई मा मने-मन जलत रहिस। वो मन काहय—श्रीकंठ अपन बाप ले दबथे, तेकरे सेती ओहा दब्बू हे। ओहा बस विद्या पढ़े हे, एकर सेती ओहा किताबी कीरा आय। बेनीमाधव सिंह ओकर सलाह के बिना कोनो काम नइ करत रहिस, ये ओकर मूर्खता हे। इन महानुभाव मन के शुभकामना आज पूरा होवत दिखत हे। कोई हुक्का पीये के बहाना अउ कोनो लगान के रसीद दिखाये के बहाना आके बइठगे। बेनीमाधव सिंह जुन्ना आदमी रहिस। इँकर भाव ला जान डरिच। ओहा सोंच लिच चाहे कुछु होय,  इन दुश्मन मन ला ताली बजाये के मउका नइ दँव। तुरते नरम शब्द मा बोलिच - बेटा, मैं तोर ले बाहिर नइ हँव। तोर मन जइसन चाहय वइसन कर, अब बेटा ले अपराध हो गेहे।
इलाहाबाद के अनुभव-रहित झल्लाये ग्रेजुएट ये बात ला नइ समझ सकिच। ओला डिबेटिंग-क्लब मा अपन बात मा अड़े के आदत रहिस, ये बात ला वो का जानय? बाप हा जेन मतलब के खातिर बात पलटे रहिस, ओहा ओकर समझ मा नइ आइच। कहिथे —लालबिहारी के साथ अब ये घर मा नइ रहि सकँव।
बेनीमाधव—बेटा, बुद्धिमान मनखे मूरख के बात मा ध्यान नइ देवय। वो नासमझ लड़का हे। ओकर ले कुछु भूल होगे हे, ओला तँय बड़े होके क्षमा करदे।
श्रीकंठ— ओकर ये दुष्टता ला मैं कभू नइ सहि सकँव। या तो उही ये घर मा रइही, या मैं। आपमन ला कहूँ उही जादा प्यारा होही, त मोला छुट्टी दे, मैं अपन भार खुदे संभाल लेहूँ। कहूँ मोला रखना चाहत हच त ओला बोल दे, जिहाँ चाहे चले जाय। बस इही मोर आखिरी निश्चय हे।
लालबिहारी सिंह दुवारी के चौखट मा चुपचाप खड़े-खड़े बड़े भाई के बात ला सुनत रहय। ओहा ओकर बहुत आदर करय। ओकर कभू अतका हिम्मत नइ होइच कि श्रीकंठ के आगू मा खटिया मा बइठ जाय, हुक्का पी लय या पान खा लय। बाप घलो के ओहा अतका मान नइ करत रहिच, जतका ओकर करय। श्रीकंठ घलो के ओकर  ऊपर अब्बड़ मया रहिस। अपन सुरता मा कभू ओला चिल्लाय घलो नइ रहिस। जब ओहा इलाहाबाद ले आवय, त ओकर बर कुछु न कुछु चीज जरूर लावय। मुगदर के जोड़ी उही हा बनवा के दे रहिस। पिछले साल जब ओहा अपन ले डेढ़वा जवान ला नागपंचमी के दिन दंगल मा हरवाय रहिस, तो ओहा खुश होके अखाड़ा मा ही जाके ओला गले लगा ले रहिस, पाँच रुपये खर्चा घलो करे रहिस। अइसन भाई के मुँह ले आज अइसन करेजा फाटे के लायक बात सुनके लालबिहारी ला बहुत पश्चाताप होइच। ओहा फूट-फूट के रोये लागिच। एमा कोनो शक नइहे कि अपन किये मा पछतावत रहिच। भाई के आये के एक दिन पहिलिच ले ओकर छाती धड़कत रहिस कि पता नइ भइया का कइही। मैं ओकर आगू कइसे जाहूँ, ओला कइसे कइहूँ, मैं ओकर ले नजर कइसे मिला पाहूँ। वो सोंचे रहिस कि भैया मोला बलाके समझा दिही। इही आशा के उल्टा आज ओहा ओला निर्दयी बने पाइच। ओहा मूरख रहिस। फेर ओकर मन कहत रहिस कि भैया मोर साथ अन्याय करत हे। कहूँ श्रीकंठ ओला अकेल्ला मा बलाके दू-चार बात कइ देतिच; अतके ही नइ दू-चार झापड़ मार भी देतिच तो ओला अतेक दु:ख नइ होतिच; फेर भाई के ये कहना कि अब मैं एकर सूरत नइ देखना चाहत हँव, लालबिहारी ले सहे नइ गिच ! ओहा रोवत-रोवत घर आइच। खोली मा जाके कपड़ा पहिनिच, आँसू पोछिस, जेमा कोनो ये मत समझय कि रोवत रहिस। तब आनंदी के दुवारी मा आके कहिथे —भउजी, भैया हा ये निश्चय कर डरे हे कि ओहा मोर साथ ये घर मा नइ रहय। अब ओहा मोर मुँह घलो नइ देखना चाहत हे ; तेकर सेती अब मैं जावत हँव। ओला फेर कभू मुँह नइ देखावँव ! मोर ले जो गलती होगे हे, ओला क्षमा करबे। ये कहत-कहत लालबिहारी के गला भर जाथे।

4
जतका बेरा लालबिहारी सिंह मूड़ी नवाये आनंदी के दुवारी मा खड़े रहिस, ओतके बेरा श्रीकंठ सिंह घलो आँखी लाल करत बाहिर ले आइच। भाई ला खड़े देखिच, त नफरत ले  आँखी ला दूसर डहर कर लिच, अउ तिरिया के निकलगे। जइसे ओकर छइँहा ले दूरिहा भागत हे।
आनंदी हा लालबिहारी के शिकायत तो करे रहिस, फेर अब मन मा पछतावत रहिस ओहा सुभाव ले ही दया करइया रहिस। वो येला थोरको नइ सोंचे रहिस कि बात अतका बढ़ जाही। ओहा मने-मन अपन पति ऊपर झुँझलावत रहिस कि एहा अतेक गरम काबर हो जाथे। ओकर मन मा ये डर भी रहिस कि कहूँ मोला संग मा इलाहाबाद जाय बर कइही , त मैं कइसे करहूँ। इही बीच मा जब ओहा लालबिहारी ला दुवारी मा खड़ा होके ये कहत सुनिच कि अब मैं जाथंव, मोर ले जो भी अपराध हो हे, क्षमा करबे, तो ओकर थोर बहुत गुस्सा रहिस तेनो पानी होगे। ओहा रोये लगिस। मन के जम्मो  मइल धोये बर आँखी के पानी ले जादा अच्छा अउ कोनो जिनिस नइ होवय।
श्रीकंठ ला देखके आनंदी हा कहिथे—लाला बाहर खड़े बहुत रोवत हे।
श्रीकंठ- त मैं का करँव ?
आनंदी—भीतरी मा  बला ले। मोरे मुँह मा आगी लगय! मैंहा कहाँ ले ये झगरा उठा डरेंव।
श्रीकंठ--मैं नइ बलावँव।
आनंदी--पछताबे। ओला बहुत अफसोस होवत हे, अइसन झन कहि, कहूँ चल दिही।
श्रीकंठ नइ उठिच। अतका मा लालबिहारी हा फेर  कहिच -भउजी, भइया ला मोर प्रणाम कहि दे। वो मोर मुँह नइ देखना चाहत हे; तेकर सेती महूँ हा अपन मुँह ओला नइ देखावँव।
लालबिहारी अतका कहिके लहुटगे, अउ जल्दी-जल्दी दुवारी डहर जाये लागिच। आखिर मा आनंदी अपन खोली ले निकलिच अउ ओकर हाथ ला धर लिच। लालबिहारी पाछू लहुट के देखथे अउ रोवत-रोवत कहिथे - मोला जावन दे।
आनंदी-- कहाँ जाबे?
लालबिहारी-- जिहाँ कोनो मोर मुँह झन देखय।
आनंदी—- मैं न जान दँव?
लालबिहारी—- मैं तुँहर संग रहे के लाइक नइ हँव।
आनंदी— तोला मोर कसम, कहूँ अब अउ अपन गोड़ ला अउ आगू मत बढ़ाबे।
लालबिहारी—जब तक मोला ये पता नइ चल जाही कि भइया के मन मोर बर साफ हो गेहे, तब तक मैं ये घर मा कदापि नइ रहँव।
आनंदी—मैं भगवान ला गवाही मान के कहत हँव कि तोर बर मोर मन मा थोरको मइल नइहे।
अब श्रीकंठ के हृदय घलो पिघलगे। ओहा बाहिर आके लालबिहारी ला पोटार लिच। दूनों भाई खूब फूट-फूट के रोइच। लालबिहारी हा सिसकत-सिसकत कहिथे —भइया, अब कभू झन कहिबे कि तोर मुँह नइ देखँव। एकर सिवा आप जो सजा देहू, मैं खुशी-खुशी स्वीकार कर लेहूँ।
श्रीकंठ हा कांपत बोली मा कहिथे - लल्लू! ये बात मन ला बिल्कुल भूल जा। भगवान चाहही, त फेर अइसन अवसर कभू नइ आवय।
बेनीमाधव सिंह बाहर ले आवत रहिस। दूनों भायमन ला  गला मिलत देखके आनंद ले मन प्रसन्न होगे। अउ कहिथे — बड़े घर के बेटी मन अइसने होथे। बिगड़त काम ला बना लेथे।
गाँव मा जेन हा भी ये किस्सा ला सुनथे, उहिच हा ये बोल कर आनंदी के उदारता के बड़ाई करथे —
‘बड़े घर के बेटी मन अइसन हे होथे।'

(मूल कहानी:- बड़े घर की बेटी, मुंशी प्रेमचंद जी)

छत्तीसगढ़ी अनुवादक-
जगदीश "हीरा" साहू (व्याख्याता)
कड़ार (भाटापारा), बलौदाबाजार

2 comments:

  1. गद्य खजाना मा शामिल करे बर धन्यवाद भैया जी

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  2. बहुत सुग्घर सर जी

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